- राजशेखर व्यास
अमर शहीद कॉमरेड भगतसिंह को एक क्रांतिकारी देशभक्त के रूप में ही जाना जाता है,किंतु वह केवल क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं अपितु एक अध्ययनशील, विचारक, कलम के धनी, दार्शनिक, चिंतक, लेखक, पत्रकार और महान् मानव भी थे। अपनी 23 वर्ष की छोटी सी आयु में ही उन्होंने फ्रांस, आयरलैंड और रूस की क्रांतियों का विषद् अध्ययन किया था।
नेशनल कॉलेज लेकर फांसी की कोठरी तक उनका अध्ययन बराबर जारी रहा और इसी अध्ययन के सहारे वह गंभीर चिंतक और क्रांतिकारी दार्शनिक बने।
उर्दू, अंग्रेजी, हिन्दी, पंजाबी, संस्कृत, तथा आयरिश भाषा के मर्मज्ञ भगत सिंह ने 'अकाली' और 'कीर्ति' पत्रों का संपादन भी किया। बाद में स्व. इन्द्रविद्या वाचस्पति के 'अर्जुन' तथा गणेश शंकर विद्यार्थी के 'प्रताप' में संवाददाता का भी कार्य किया। ' चांद' का मासिक जब्तशुदा फांसी अंक भगत सिंह की संपादन योग्यता का उत्कृष्ट उदाहरण है।
दल के पर्चे, पोस्टर, पैंफलेट तथा सारे साहित्य का सृजन भगतसिंह ही करते थे। खेद तो यह है कि 'एक उत्कृष्ट विचारक के विचारोत्तेजक विचार 'राष्ट्र के कर्णधारों' के षडयंत्र के फलस्वरूप उन तक नहीं पहुंचे हैं जिनके लिए वे शहीद हो गए।
लाहौर षडयंत्र कांड के समय अदालत में दिए गए उनके विचारोत्तेजक बयान, उनके लिखे पत्र भी जन-जन तक नहीं पहुंचने दिए गए, न तब-न अब।
भगतसिंह पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाए नहीं जाते, राष्ट्रीय इतिहास में उनके लिए कोई जगह नहीं है। दूरदर्शन या आकाशवाणी से उम्मीद ही व्यर्थ है जो देश को एक परिवार की बपौती मान रहे हैं या जिन्हें सत्ताधारियों के स्तुति गान से ही फुर्सत नहीं है।
असेंबली बम विस्फोट के समय फेंके गए परचे में उनका महत्वपूर्ण वाक्य था - हम देश की जनता की तरफ से कदम उठा रहे हैं। बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत समझने वाले भगतसिंह फांसी के फंदे को विचार का मंच समझते-मानते थे।
आदर्श और विचारों के लिए समर्पित भगतसिंह मनुष्य द्वारा मनुष्य के रक्त बहाए जाने के खिलाफ थे। उनके लिखे कई पत्र और बहुमूल्य दस्तावेज सही मायने में राष्ट्र की मूल्यवान् निधि है और आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक भी, वह सही-सही रूप में सामने नहीं आई है। अपने अंतिम क्षणों में भी भगतसिंह कितने संयत, शिष्ट, शालीन और संतुलित थे, उसके लिए सिर्फ दो ही उदाहरण पर्याप्त हैं।
फांसी के ठीक एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को सेंट्रल जेल के 14 नंबर वार्ड में रहनेवाले कुछ बंदी क्रांतिकारियों ने भगतसिंह के पास एक परची भेजी-
'सरदार, यदि आप फांसी से बचना चाहते हैं तो बताएं, इन घडियों में भी शायद कुछ हो सके।'
भगतसिंह ने जो उत्तर लिखा, वह संसार के पत्र-साहित्य में एक दुर्लभ दस्तावेज है। इतना मर्मस्पर्शी और इतना स्पष्ट तथा प्रखर विचारों का प्रवाह मौत के सामने!
'साथियों !
'जिंदा रहने की ख्वाहिश कुदरती तौर पर मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन मुझे जिंदा रहना एक शर्त पर मंजूर है। मैं कैद या पाबंद होकर जिंदा नहीं रहना चाहता। मेरा नाम हिंदुस्तानी, इंकलाब पार्टी (भारतीय क्रांति) का निशान बन चुका है और इंकलाब पसंद पार्टी (क्रांतिकारी दल) के आदर्शों, बलिदानों ने मुझे बहुत ऊंचा कर दिया है। इतना ऊंचा कि जिंदा रहने की सूरत में इससे ऊंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता।
'आज मेरी कमजोरियां लोगों के सामने नहीं हैं। अगर मैं फांसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और इंकलाब का निशान मद्धिम पड़ जाएगा या शायद मिट ही जाए, लेकिन मेरे दिलेराना ढंग से हंसते- हंसते फांसी पाने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए बलिदान होने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि इंकलाब रोकना इंपीरियलिज्म (साम्राज्यवाद) की तमामतर (संपूर्ण) शैतानी शक्तियों के बस की बात नहीं रहेगी।
'हां, एक विचार आज भी मेरे दिल को कचोटता है। देश और इंसानियत लिए जो कुछ हसरत मेरे दिल में थी, उसका हजारवां हिस्सा भी मैं पूरा नहीं कर पाया। अगर जिंदा रहता, रह सकता तो शायद इनको पूरा करने का मौका मिलता और मैं अपनी हसरत पूरी कर सकता। इसके सिवा कोई लालच मेरे दिल में फांसी से बचने के लिए कभी नहीं आया।
'मुझसे ज्यादा खुश किस्मत कौन होगा? आजकल मुझे अपने आप पर बहुत नाज है। अब तो बड़ी बेताबी से आखिरी इम्तहान का इंतजार है। आरजू है कि यह और करीब हो जाए।'
उसी रात अपने अनुज कुलतार सिंह को अपने जीवन का यह अंतिम पत्र लिखा-
'अजीज कुलतार,
आज तुम्हारी आंखों में आंसू देखकर बहुत दुःख हुआ। आज तुम्हारी बातों में बड़ा दर्द था। तुम्हारे आंसू मुझसे सहन नहीं होते। बरखुरदार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना। हौसला रखना। और क्या कहूं -
उसे यह फ़िक्र है हरदम,
नया तर्जे-जफ़ा क्या है?
हमें यह शौक देखें,
सितम की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों खफ़ा रहे,
चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहां अदू सही,
आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूं,
ए-अहले-महफ़िल,
चरागे सहर हूं,
बुझा चाहता हूं।
मेरी हवाओं में रहेगी,
ख़यालों की बिजली,
यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी,
रहे रहे न रहे।
(मार्च 1931)
'अच्छा रूखसत। 'खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं।' हौसले से रहना।'
23 मार्च, 1931 को संसार भर के नियमों के विरूद्ध सवेरे के बजाय शाम को भारत के कार्ल मार्क्स, डॉनब्रीन, कॉमरेड सरदार भगतसिंह को फांसीघर में बुलवाया गया। उन्होंने फंदे को चूमा और खुद ही फांसी पर झूल गए। ब्रिटिश शासन ने उनका शव चोरी-छिपे फिरोजपुर के निकट सतलज नदी के किनारे पेट्रोल डालकर जला दिया और अधजली दशा में ही नदी में बहा दिया।
कई बार सोचा करता हूं क्या वे उनके विचारों को भी जला या बहा पाए? नहीं। उनके विचार आज भी दिल और दिमागों में आग लगाया करते हैं।