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Written By अनिरुद्ध जोशी
Last Updated : गुरुवार, 17 सितम्बर 2020 (07:19 IST)

Shri Krishna 16 Sept Episode 137 : पौंड्रक का वध और दूर्जय भेजता है मायावी कृत्या को द्वारिका

Shri Krishna 16 Sept Episode 137 : पौंड्रक का वध और दूर्जय भेजता है मायावी कृत्या को द्वारिका - Shri Krishna on DD National Episode 137
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 16 सितंबर के 137वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 137 ) में पौंड्रक अपने साथी काशी नरेश और अपने भाई रणधीर के साथ मिलकर आक्रमण हेतु द्वारिका की ओर निकल पड़ता है तो इधर द्वारिका में भी गुप्तचर इसकी सूचना देता है तो बलराम की सेना भी तैयार होकर युद्ध के लिए निकल पड़ती है।
 
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फिर द्वारिका के सभी सैनिक द्वारिका से बाहर निकलकर युद्ध के लिए निकल पड़ते हैं। उधर पौंड्रक को भी द्वारिका की ओर आते हुए बताया जाता है। फिर एक जगह पर काशीराज और रणधीर सेना को रुकने का आदेश देते हैं। पौंड्रक का रथ भी रुक जाता है। सभी देखते हैं कि सामने श्रीकृष्ण, बलराम और अक्रूरजी अपनी सेना के साथ खड़े हैं। यह देखकर पौंड्रक कहता है- काशीराज हमने तो युद्ध की घोषणा ही नहीं की तो फिर यादवों की सेना का समंदर कहां से उभर आया? तब काशीराज कहता है- वासुदेव। अवश्‍य ही हमारी सेना में शत्रु का कोई भेदी घुस आया है।
 
फिर पौंड्रक श्रीकृष्‍ण को देखकर कहता है- ओह हो! तो तुम्हीं हो कृष्ण। ग्वाले होकर अपने आपको वासुदेव कहते हो। हमारा स्वांग रचकर अपने आपको भगवान समझते हो। शंख, गदा, पद्म और सुदर्शन चक्र भी बना लिया है तुमने क्यों?....श्रीकृष्‍ण उसे देखकर मुस्कुराते रहते हैं और बलराम के चेहरे पर क्रोध उभर आता है तब वह पौंड्रक जोर-जोर से हंसता है और कहता है- मित्र काशीराज ये बिचारा ग्वाला पागल हो गया है। साक्षात भगवान से युद्ध करना चाहता है। तुम इसे समझाओ, समझाओ इसे हां। यह सुनकर काशीराज कहता है- जो आज्ञा वासुदेव। फिर काशीराज श्रीकृष्ण से कहता है- हे कृष्ण! मैं काशी नरेश, वासुदेव पौंड्रक की आज्ञा से युद्ध से पहले तुम्हें एक अवसर और देता हूं कि तुम और बलराम वासुदेव पौंड्रक को भगवान मान लो और उनकी शरण में आ जाओ और भगवान को लगान दो तो भगवान वासुदेव तुम्हें क्षमा कर देंगे।  
 
तब बलरामजी भड़क कर अपनी गदा कंधे पर से उतारकर कहते हैं- काशीराज। तभी श्रीकृष्‍ण रोककर कहते हैं- नहीं दाऊ भैया युद्ध का आरंभ पौंड्रक को ही करने दो। तब पौंड्रक कहता है- उत्तर क्यों नहीं देते क्या तुम्हारी जीभ गूंगी हो गई है...हा हा हा। भ्राताश्री रणधीर देखिये इन निर्बल प्राणियों की क्या दूर्दशा हो रही है। रथधीर को देखकर और पौंड्रक को सुनकर बलरामजी हंसने लगते हैं और कहते हैं- पौंड्रक तुमने भांडों की अच्‍छी सेना खड़ी कर दी है। बहुत अच्छी नाटक मंडली है। परंतु हम तुम्हारा नाटक देखने नहीं तुम्हारे नाटक का अंत करने आए हैं। बहुत हो चुका तुम्हारा वासुदेव बनने का नाटक। यह सुनकर पौंड्रक कहता है- बलराम तुम तो बोले परंतु तुम्हारा ये कन्हैया माखनचोर चुप क्यों है? क्या इन्होंने मक्खन की डली चुराकर मुंह में रख ली है..हा हा हा।
 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- पौंड्रक तुम हंस रहे हो परंतु ये जीवन हंसी-खेल नहीं है। युद्ध भूमि पर केवल जीवन-मृत्यु का अंतिम खेल खेला जाता है। मैं ये खेल खेलना नहीं चाहता था परंतु तुमने मुझे विवश कर दिया था। तुम युद्ध चाहते हो युद्ध का आरंभ भी तुम्हीं को करना होगा। मैं केवल ये आश्वासन दे सकता हूं कि इस युद्ध का अंत मैं करूंगा। यह सुनकर पौंड्रक कहता है- तुम अंत करोगे? अरे प्रारंभ भी हम है और अंत भी हम हैं और इस युद्ध का आरंभ भी हम करेंगे और अंत भी हम, तुम नहीं। ऐसा कहकर पौंड्रक कहता है- आक्रमण।
 
फिर श्रीकृष्‍ण आसमान में एक तीर छोड़ते हैं तो चारों ओर बिजली कड़कने लगती है। यह देखकर पौंड्रक और उसका भाई भयभीत होकर आसमान में देखने लगते हैं। फिर भयानक युद्ध प्रारंभ हो जाता है। फिर बलरामजी अपना हल बड़ा करके पौंड्रक की सेना का संहार करने लगते हैं। यह देखकर पौंड्रक अपने भाई को कहता है- हलधारी रणधीर कृष्‍ण हमारा शत्रु है परंतु आपका विरोधी बलराम है। इसलिए उसका वध आपके ही हाथों होना चाहिए। इस पर रणधीर कहता है- हां वासुदेव यदि उचित होगा।..
 
फिर वह अपना हल उठाकर बलराम को देखता है तो बलरामजी अपना हल उठाकर उसे बड़ा करके उसके हल को उसके हाथ से छुड़ाकर फेंक देते हैं। इस पर रणधीर बलराम का हल पकड़ लेता है तो बलरामजी उस हल को हवा में उठा लेते हैं जिसके चलते रणधीर हवा में ही हल पकड़े लटका जाता है। यह देखकर पौंड्रक भयभीत हो जाता है। बहुत ऊंचाई पर लटका रणधीर अपने भाई पौंड्रक को कहता है- वासुदेव बचाइये वासुदेव। फिर बलरामजी अपने हल को छोटा करके उसे अपने रथ में ही उतार लेते हैं और फिर उसकी धलाई शुरू हो जाती है। अंत में बलरामजी उठाकर उसे भूमि पर फेंक देते हैं तो वह मारा जाता है।
 
यह देखकर पौंड्रक भयभीत और क्रोधित हो जाता है और कहता है- बलराम तुमने हमारे भ्राताश्री का वध किया है हम भी तुम्हारे भाई को नहीं छोड़ेंगे। हम उसका वध कर देंगे और तुम्हारा भी वध कर देंगे। फिर बलरामजी कहते हैं- पौंड्रक अब मैं तुम्हें नहीं छोड़ूंगा। तब पौंड्रक और बलरामजी में युद्ध होता है। बलरामजी के बाणों के असफल हो जाने के बाद बलरामजी अपना हल उठा लेते हैं तो श्रीकृष्ण उन्हें रोककर खुद ही पौंड्रक से युद्ध करने लगते हैं। श्रीकृष्‍ण उसके बाणों को असफल कर देते हैं तो वह अपने मित्र काशीराज से कहता है कि यदि तुम हमारे मित्र हो तो जाओ इस कृष्ण का मुंड काटकर हमारे चरणों में रख दो। काशीराज कहता है- जो आज्ञा भगवना वासुदेव। ऐसे कहकर वह श्रीकृष्‍ण से युद्ध करने लगता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम अपने पुत्र दूर्जय को याद कर लो क्योंकि अब तुम जीवित नहीं लौटने वाले हो। फिर श्रीकृष्‍ण उसका वध कर देते हैं।
 
यह देखकर पौंड्रक कहता है- कृष्ण तुमने हमारे भ्राताश्री रणधीर और हमारे मित्र काशीराज का वध किया है और अब हम तुम्हारा वध करने जा रहे हैं। फिर वह कई दिव्यास्त्रों का प्रयोग करता है परंतु श्रीकृष्‍ण के अस्त्र उसके अस्त्रों को विफल कर देते हैं। तब वह कहता है- कृष्‍ण तुमने हमारे अस्त्रों को नष्ट कर दिया तुम मायावी हो मायावी, परंतु हमारे पास अभी और भी अस्त्र हैं। बहुत ही घातक और विनाशकारी। 
 
तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि पौंड्रक इस जीवन में तुम्हारे सारे शब्द, सारे शस्त्र, सारे अस्त्र और तुम्हारी सांसें भी अब समाप्त हो चुकी हैं। इसलिए अब अपना शरीर त्यागने के लिए तैयार हो जाओ। यह सुनकर पौंड्रक अंगुली उठाकर चक्र का आहवान करता है तो उसी अंगुली पर चक्र घुमने लगता है जिसे वह श्रीकृष्ण की ओर फेंक देता है। यह देखकर श्रीकृष्ण भी अपनी अंगुली पर सुदर्शन चक्र को दृश्यमान कर देते हैं। फिर वह भी सुदर्शन चक्र को उसकी ओर जाने का आदेश देते हैं। श्रीकृष्‍ण का सुदर्शन चक्र पौंड्रक के चक्र को तोड़कर आगे बढ़ता है और तक्षण ही पौंड्रक की गर्दन उड़ा देता है। उसका सिर भूमि पर गिर जाता है।
 
यह देखकर बलरामजी कहते हैं- कन्हैया तुम्हारा और एक शत्रु मारा गया। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- हां दाऊ भैया, पौंड्रक की आत्मा मुक्त हो गई है। इस पर बलराम कहते हैं- हां कन्हैया इसके साथ साथ पौंड्र नगरी भी मुक्त हो गई है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- दाऊ भैया पौंड्रक ने अपने काकाश्री वीरमणि को राजगद्दी से बलपूर्वक उतारा था। आप किसी के द्वारा महारानी तारा तक मेरा ये संदेश पहुंचा दीजिये कि पौंड्र नगरी की राजगद्दी पर वो वीरमणि को दौबारा बिठाएं। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- अवश्‍य।
 
फिर उधर वीरमणि को पौंड्र नगरी की गद्दी सौंपकर पौंड्रक की पत्नी तारा तपस्या के लिए जाने का संकल्प लेती हैं। तब वहां दरबार में सभी जय श्रीकृष्‍ण की जय-जय कार करते हैं। बाद में उधर, काशीराज के पुत्र राजकुमार दूर्जय को यह पता चलता है कि उसके पिता का वध श्रीकृष्ण ने किया है तो वह भड़ककर कहता है- मैं अपने प्रतिशोध की अग्नि में द्वारिका को ऐसे जलाऊंगा कि सातों समुद्र का जल भी उस आग को बुझा नहीं पाएगा। 
 
यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- प्रभु काशीराज का पुत्र भी विनाश के रास्ते पर चल पड़ा है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां देवी काशीराज का तो एक ही पुत्र है। संभरासुर के दो सौ पुत्र थे जो सबके सब विनाश के मार्ग पर चल पड़े थे। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है कि अर्थात दूर्जय भी नष्ट होगा।
 
फिर उधर, काशीराज का पुत्र दूर्जय महायज्ञ करके उसमें से एक राक्षसनी को पैदा करता है। वह राक्षसनी कहती है- प्रणाम स्वामी, युवराज दूर्जय आज्ञा दीजिये आपके किस शत्रु को नष्ट करना है? तब दूर्जय कहता है- हे कृत्या तुम द्वारिका जाकर द्वारिका के साथ साथ कृष्ण और बलराम को भी नष्ट कर दो। कृत्या कहती है- जो आज्ञा। ऐसा कहकर वह चली जाती है। कृत्या द्वारिका जाकर द्वारिका में आग लगा देती है। सभी जगह आग लगाने के बाद वह चीखती है- वह ग्वाला कृष्ण कहां है, वह रणछोर कहां जाकर बैठ गया है? आज मैं उसका वध करूंगी।

भगवान श्रीकृष्‍ण अपने महल की गैलरी में रुक्मिणी के साथ खड़े रहते हैं तब वे कृत्या के इस विध्वंसक दृश्य को देखकर अपनी अंगुली पर सुदर्शन चक्र प्रकट करके उसे आदेश देते हैं कि जाओ सुदर्शन इस कृत्या को भगाकर इसके स्वामी के पास ले जाओ और वहीं उसके स्वामी के सामने इसका वध कर दो। यह आदेश पाकर सुदर्शन जाने लगता है तो श्रीकृ्‍ष्ण उसे रोकते हैं और कहते हैं- रुको और सुनो! इसके स्वामी के महल के साथ ही इसके स्वामी का भी वध कर दो...जाओ। सुदर्शन जैसे ही कृत्या की ओर जाता है तो कृत्या डर के मारे भागने लगती है तो सुदर्शन भी उसके पीछे-पीछे होता है। फिर सुदर्शन उसी यज्ञ के समक्ष कृत्या के दो टूकड़े करने के बाद दूर्जय के महल को नष्ट कर देता है और अंत में वह दूर्जय की गर्दन काट देता है। इसके बाद द्वारिका में श्रीकृष्‍ण की जय, द्वारिकाधीश की जय जय कार होने लगती रहै। जय श्रीकृष्‍णा।
 
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