निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 14 सितंबर के 135वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 135 ) में फिर वानर द्वीत गंधमादन पर्वत पर पहुंच जाता है और वह उस सरोवर को देखता है जिसमें ये कमल खिले होते हैं। तब वह उनके पास जाने का प्रयास करता है परंतु तभी आग उत्पन्न हो जाती है। तब वह कहता है- कौन है वो जो मुझे अपनी मायावी शक्ति से रोक रहा है? तब उसे आवाज सुनाई देती है ऐसे असुर द्वीत तुम यहां से ये दिव्य कमल पुष्प नहीं ले जा सकते। क्योंकि इन दिव्य कमल पुष्पों पर केवल मेरे प्रभु का अधिकार है। इन दिव्य पुष्पों से रोज अपने प्रभु की पूजा करता हूं। तब द्वीत जोर से कहता है- तुम्हारा प्रभु।
तब एक कुटिया से हनुमानजी बाहर निकलते हैं और कहते हैं- प्रभु श्रीराम। यह देख और सुनकर द्वीत कहता है- अच्छा तो तुम्हीं हो वो मायावी। तुम अपनी माया से लोगों को भ्रमित कर रहे हो और अपने आप को हनुमान समझते हो। तब हनुमानजी कहते हैं कि मैं समझता नहीं हूं मैं स्वयं हनुमान हूं। तब द्वीत कहता है- सचमुच वृद्धावस्था के कारण तुम्हारी बुद्धिभ्रष्ट है। अरे बुढ्ढे इस सरोवर के सारे फूल में तोड़ ले जाऊंगा। यदि तुमने मुझे रोकने की कोशिश की तो मैं तुम्हारी गर्दन उड़ा दूंगा।
यह सुनकर हनुमानजी का द्वीत से युद्ध होता है। हनुमानजी उसे बुरी तरह धो देते हैं तब वह अंत में एक मायावी अस्त्र निकालता है। वह भी निष्फल हो जाता है तब हनुमानजी उसकी छाती पर पैर रखकर उसका वध करने वाले रहते हैं तो वह कहता है- रुक जाओ हनुमान, रुक जाओ..तुम्हें श्रीराम की सौगंध हैं। यह सुनकर हनुमानजी चौंक जाते तब श्रीकृष्ण संकेतों से हनुमानजी को उसका वध करने से रोक देते हैं और मानसिक रूप से हनुमानजी कहते हैं कि ये अच्छा अवसर है। आपके संकेत के अनुसार मैं इसे छोड़ देता हूं। ये पाखंडी अवश्य मेरे साथ धोखा करेगा और मुझे बंदी बनाएगा। इस बहाने मैं इसके साथ चला जाऊंगा और पौंड्रक के पास पहुंचकर उसे अंतिम चेतावनी दूंगा कि यदि उसने अपने आप को वासुदेव समझना नहीं छोड़ा तो फिर मेरे प्रभु उसका वध कर देंगे। मुझे आज्ञा दीजिये। तब श्रीकृष्ण आशीर्वाद देते हैं।
फिर जैसे ही हनुमानजी उस द्वीत को छोड़ते हैं वह अपनी माया से हनुमानजी को बंदी बना लेता है और फिर कहता है- अब कमल पुष्पों को ले जाने से कैसे रोकोगे मुझे? यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- जय श्रीराम। तभी वह कमल पुष्प का सरोवर वहां से अदृश्य हो जाता है। तब वह द्वीत कहता है- तुम मायावी हो तुमने अपनी माया से कमल सरोवर को अदृश्य कर दिया है। तुम्हारे इस अपराध का मैं इसी समय दंड दे सकता हूं परंतु मैं ऐसा नहीं करूंगा। अब तुम्हें ये दंड केवल वासुदेव पौंड्रक ही देंगे।
उधर, पौंड्रक कहता है- महारानी तुम चिंता कर रही हो कि अभी तक द्वीत फूल लेकर क्यों नहीं आया? महारानी तारा कहती है- स्वामी मुझे फूलों की चिंता नहीं है। तब वह कहता है- अच्छा अब तक तुम उसे हनुमान समझ रही हो। तब वह कहती है- स्वामी मैं तो आपकी पौंड्र नगरी को बचाना चाहती हूं। इससे पहले की कोई हनुमान आपकी नगरी को जला ना डाले। यह सुनकर पौंड्रक हंसता है और कहता है- भगवान वासुदेव की नगरी को राख कर डाले। हम राख कर देंगे हनुमान को.. हा हा हा।
तभी, द्वीत वानर हनुमानजी को बांधक बनाकर ले आता है। तब पौंड्रक कहता है कि हम भरे दरबार में उस हनुमान का भांडा फोड़ना चाहते हैं और महारानी तारा को यह बताना चाहते हैं कि जिसे तुम हनुमान समझ रही थी वह तो एक बहुरूपिया है।.. फिर भरे दरबार में हनुमानजी को प्रस्तुत किया जाता है। द्वीत कहता है वासुदेव भगवान मैं आपके लिए संसार का सबसे विचित्र उपहार लेकर आया हूं। हनुमानजी को देखकर महारानी तारा उन्हें प्रणाम करती है। हनुमानजी को देखकर पौंड्रक कहता है- हां यह तो वही मायावी है और अब इसने हनुमान का रूप धारण कर लिया है। वाह द्वीत वाह हम प्रसन्न हो गए। तुमने इस नकली हनुमान को बंदी बनाकर यह प्रमाणित कर दिया है कि तुम इस युग के सच्चे हनुमान हो और हम सच्चे भगवान। इस नकली हनुमान को देखकर हम अति प्रसन्न हुए।
तब हनुमानजी कहते हैं- पौंड्रक तुम मूर्ख हो। तुम इतना भी नहीं जानते की हनुमान को कोई बंदी नहीं बना सकता। मैं पवनपुत्र हूं और पवन और हनुमान को कोई अपनी मुट्ठी में बंद नहीं कर सकता।...यह सुनकर पौंड्रक कहता है- अब तो तुम मेरी मुठ्ठी में आ गए हो और अब हम तुम्हें चुटकी में मसल देंगे किसी मच्छर की भांति।...फिर सभी वहां पर वासुदेव पौंड्रक की जय-जयकार करते हैं।
तब हनुमानजी कहते हैं- पौंड्रक मैंने तुम्हें चेतावनी दी थी कि तुम धर्म के रास्ते पर आ जाओ और श्रीकृष्ण को भगवान मान लो परंतु तुमने मेरी बात नहीं मानी। मैंने तुम्हें सीधे रास्ते पर आने का अवसार दिया था परंतु तुमने उसका लाभ नहीं उठाया और अब तुम दंड के पात्र बन गए हो।
यह सुनकर पौंड्रक व्यंग से कहता है- दंड.. हा हा हा। हे वृद्ध वानर! तुम हमें दंड दोगे? अब देखो हम तुम्हें कैसे दंड देते हैं.. हा हा हा। मित्र द्वीत इस बूढ़े का अहंकार नष्ट कर दो। नई नई नई..इसी को नष्ट कर दो। वध कर दो इसका.. हा हा हा। यह सुनकर द्वीत अपना फरसा उठाता है तो महारानी तारा कहती है- नहीं स्वामी ये तो अनर्थ हो जाएगा। यह सुनकर पौंड्रक कहता है- भ्राताश्री इन्हें समझाइये कि पृथ्वीलोक की महारानी को इतना दुर्बल नहीं होना चाहिए। तब भ्राताश्री कहता है- हां आप इस वानर से इतना भयभीत क्यों हो रही हैं? ये कोई सचमुच का हनुमान थोड़े ही है। अभी कुछ ही क्षणों में इसकी सारी की सारी हनुमानी नष्ट हो जाएगी। तब तारा कहती है- स्वामी मेरी बात मानिये...ये साक्षात हनुमान हैं। आप अपना आदेश वापस ले लीजिये। तब पौंड्रक कहता है- द्वीत मेरे आदेश का पालन किया जाए, वध कर दो इसका।
द्वीत फारसा उठाता है तो तभी हनुमानजी उसे अपनी पूंछ में लपेटकर पूंछ बढ़ाकर उसे अपने से दूर कर देते हैं। यह देखकर सभी चौंक जाते हैं। हनुमानजी मजे से हंसते हैं। फिर वह जय श्रीराम कहते हुए जंजीरें तोड़ देते हैं। यह देखकर सभी खड़े हो जाते हैं। फिर हनुमानजी अपनी पूंछ से उस वानर द्वीत को ऊपर हवा में उठा लेते हैं और फिर उसे इधर से उधर घुमाकर सिंहासन पर बैठे दरबारियों को नीचे गिरा देते हैं। फिर उसे हवा में उठाकर उसे खंभे से टकरा-टकरा कर घायल कर देते हैं। घायल करने के बाद उसे भूमि पर फेंक कर उसे अपनी पूंछ से मुक्त कर देते हैं।
यह देखकर पौंड्रक, काशीराज और उसका भ्राताश्री रणवीर भयभीत हो जाते हैं। तब पौंड्रक अपने भ्राताश्री को आदेश देता है तो भ्राताश्री अपनी तलवार निकाल कर हनुमानजी को मारने लगता है इस पर हनुमानजी एक सिंहासन उठाकर उसके ऊपर फेंक देते हैं। सिंहासन की मार से भ्राताश्री घायल होकर नीचे गिरकर कराहने लगता है। तब पौंड्रक सैनिकों को आदेश देता है तो हनुमानजी सभी सैनिकों की गदा से धुलाई कर देते हैं। फिर हनुमानजी क्रोधित होकर उसके महल को अपनी गदा से नष्ट करने लग जाते हैं। वह महल के खंभों को तोड़ने लग जाते हैं।
यह देखकर पौंड्रक भयभीत हो जाता है। महारानी तारा और काशीराज चारों ओर हुई तबाही को देखते हैं। द्वीत, भ्राताश्री सहित सभी दरबारी और सैनिक अचेत पड़े रहते हैं। महल को ध्वस्त करने के बाद हनुमानजी अपनी गदा को हाथ में लेकर पौंड्रक के सामने खड़े हो जाते हैं और कहते हैं- हे दुराचारी पौंड्रक मैं भी तेरा वध कर सकता हूं परंतु मेरे स्वामी ने मुझे आज्ञा नहीं दी है। पौंड्रक तू भगवान श्रीकृष्ण का अपराधी है और तेरा अंत उन्हीं के हाथों निश्चित है। ऐसा कहकर हनुमानजी अदृश्य हो जाते हैं।
फिर श्रीकृष्ण भक्ति के कई रूपों को बताने के बाद कहते हैं कि पौंड्रक भी मेरा भक्त ही है। पौंड्रक की इस भक्ति को विरोधी भक्ति कहा जाता है। उसके मन में भी समर्पण की भावना है। वह मेरी भक्ति में इतना एकरूप हो गया है कि अपने आप को ही कृष्ण समझने लगा है और जानबूझकर मेरा विरोध कर रहा है। जिस प्रकार कंस मामा और शिशुपाल ने भी विरोधी भक्ति का मार्ग अपनाया था और मेरे दंड द्वारा मुक्ति प्राप्त की थी। मेरा दंड ही तो पौंड्रक को इस पाप के चक्र से बाहर निकालेगा और उसे मुक्ति देगा।
उधर, पौंड्रक अपने महल की ताबाही अपनी पत्नी और साथियों के साथ देखता है। काशीराज कहता है- वासुदेव ये सब ठीक नहीं हुआ। आपने चारों दिशाओं में धाक जमा दी थी। उसे केवल एक वानर ने कुछ ही क्षणों में ध्वस्त कर दिया। तब पौंड्रक कहता है- हां काशीराज उस धूर्त ने हमारे मान-सम्मान को पौंड्र की गलियों में नीलाम कर दिया। हमारी प्रजा और हमारे श्रद्धालु के सामने उसने हमारा अपमान किया है। इस अपमान का बदल हम अवश्य लेंगे। यह सुनकर उसकी पत्नी तारा कहती है कि बस कीजिये स्वामी। इतना विनाश हो जाने के बाद भी आप अपने झूठे मान-अभिमान को अब भी छोड़ नहीं रहे हैं।...फिर दोनों में विवाद होता है तब पौंड्रक कहता है कि वह कोई हनुमान नहीं था। वह तो उस ग्वाले कृष्ण की माया है माया। तब काशीराज कहता है- हां महारानी वासुदेव पौंड्रक ने उसके पास दूत भेजकर उसे चुनौती दी थी। इसलिए वो अपनी माया से हमें भी भ्रमित करने का प्रयास कर रहा है।
तभी वहां पर जंजीर में बंधा उसका काकाश्री हंसते हुए आ जाता है। तब पौंड्रक उसे देखकर कहता है- तुम! तुम कारागृह से कैसे छूट गए। तब काकाश्री कहता है- मूरख! अरे इतना भी नहीं समझ सकता उसने तुम्हारा महल और नगरी को नष्ट करके उसने कारागार को भी नष्ट करके मुझे स्वतंत्रता प्रदान की है। तब पौंड्रक कहता है- हम तुम्हें फिर से बंदी बना देंगे। तब काकाश्री कहते हैं- भतीजे तुम जितनी बार मुझे बंदी बनाते हो मैं उतनी बार छूट जाता हूं। तुम मुझे मारने की चेष्ठा करते हो और तुम्हारा ये चापलूस रणवीर (भ्राताश्री) घायल हो जाता है। अरे तुम अपने राजमहल की रक्षा नहीं कर पाए फिर भी अपने आप को भगवान समझते हो?
यह सुनकर पौंड्रक क्रोधित होकर तलवार निकालकर काकाश्री की ओर दौड़ता है तो रणवीर उसका भाई उसे रोककर कहता है जाने भी दो भैया। तब काकाश्री कहता है कि बेटे रणवीर लगता है कि तुम्हारी अक्ल ठीकाने आ गई है। तुम ईश्वर की अदृश्य लाठी को भूले नहीं हो परंतु इन अंधों को कुछ भी दिखाई नहीं देता। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्त हनुमान के हाथों तुम्हारी इस पौंड्र नगरी को खंडहर बना दिया। यदि वो स्वयं तुम्हें दंड देने को आ गए तो तुम नर्क की ज्वाला का निवाला बन जाओगे।.. फिर महारानी तारा काकाश्री को वहां से ले जाती है।
बाद में पौंड्रक अपने साथी काशीराज, द्वीत और भ्राताश्री रणवीर के साथ खड़ा रहकर कहता है कि इस बूढ़े (हनुमान) ने तो हमारी नाक में दम कर दिया है। समझ में नहीं आता की इसका क्या करें। जब भी आता है बिच्छू की भांति डंक मारकर चला जाता है और हम यूंही तड़फ कर रह जाते हैं। तब काशीराज कहता है कि वासुदेव इस बिच्छू के बारे में सोचना छोड़िये और उस विषैले सांप के बार में सोचिये जो अपने बिल से निकलकर पौंड्र नगरी मैं आतंक मचाने लगा है। तब पौंड्रक कहता है- हम उसकी नगरी पर आक्रमण करके उसकी नगरी को समुद्र में फेंक देंगे। तब उसका भ्राताश्री रवणीर कहता है- नहीं वासुदेव, कृष्ण ने अपना वानर भेजा था हम भी द्वारिका में अपना वानर भेजकर उसकी नगरी को ध्वस्त कर देंगे, यही न्याय होगा। सभी को ये बात समझ में आ जाती है। तब वानर द्वीत कहता है कि मुझे द्वारिका नगरी जाने की आज्ञा दीजिये। यह सुनकर पौंड्रक कहता है- जाओ द्वीत विजयभव:।
वानर द्वीत द्वारिका नगरी के आसमान में पहुंचकर उसे देखता है और कहता है- हां तो ये है द्वारिका, ग्वाले कृष्ण की द्वारिका। जैसा नाम सुना था नगरी तो उससे अधिक सुंदर है परंतु अब नहीं रहेगी। मैं इस सुंदर नगरी को भयानक श्मशान में बदल दूंगा। फिर वानर द्वीत विशाल रूप धारण करके द्वारका में उतर जाता है। उसे देखकर नगर में भगदड़ मच जाती है। वह लोगों के मकान तोड़ने लगता है।
इसी की सूचना जब बलरामजी को मिलती है तो वह कहते हैं एक वानर होकर उसका इतना साहस की वह द्वारिका में घुसकर वह आतंक मचा रहा है। क्या उसको इस बात का ज्ञान नहीं कि ये बलराम और श्रीकृष्ण की नगरी है। तब सैनिक कहता है कि वह कोई साधारण वानर नहीं विशालकाय है और अपनी शक्ति में उन्मत हो रहा है।
फिर बलरामजी श्रीकृष्ण के सामने कहते हैं- वह वानर हो या दानव, अवश्य उसकी मृत्यु मेरे हाथ से लिखी है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हमारे द्वारिकावासियों की सुरक्षा के लिए हमें उस वानर को नष्ट करना ही होगा, चलो दाऊ भैया। तब बलरामजी कहते हैं- एक वानर से लड़ने के लिए तुम स्वयं चलोगे? उस पागल वानर के होश ठिकाने लगाने के लिए तो मैं अकेला ही काफी हूं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- परंतु दाऊ भैया? तब बलरामजी कहते हैं- परंतु-वरंतु कुछ नहीं कन्हैया। तुम चिंता ना करो मैं यूं गया और यूं आया। ऐसा कहकर बलरामजी चले जाते हैं।
तब रुक्मिणी आकर श्रीकृष्ण से कहती है- प्रभु आपने दाऊ भैया का आत्मविश्वास देखा! अकेले ही उस महाकाय वानर के साथ युद्ध करने निकल पड़े हैं। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- देवी आप उस वानर के कारण दाऊ भैया के लिए चिंतित हैं परंतु मेरी चिंता तो दाऊ भैया का व्यवहार है। तब रुक्मिणी पूछती है- दाऊ भैया का व्यवहार? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां देवी उनका अतिरिक्त आत्मविश्वास, उनके घमंड और अहंकार प्रतीक है।
फिर उधर बलरामजी अपने रथ पर सवार होकर उस वानर द्वीत के सामने खड़े हो जाते हैं। फिर रथ से नीचे उतरकर उसे चुनौती देते हैं और कहते हैं- हे उन्मत्त वानर कौन हो तुम और तुमने द्वारिका नगरी में घुसने का साहस कैसे किया? तब वह वानर कहता है- मैं वानरश्रेष्ठ हूं, मुझे मेरे स्वामी प्यार से वानर द्वीत कहते हैं। तब बलरामजी पूछते हैं- कौन है तुम्हारा स्वामी? किसकी आज्ञा से तुम ये सब कर रहे हो? तब वह द्वीत कहता है- आश्चर्य तुम वासुदेव भगवान पौंड्रक को नहीं जानते? यह सुनकर बलरामजी चौंक जाते हैं।
तब वह द्वीत कहता है कि मैं यहां अपने भगवान वासुदेव की आज्ञा से द्वारिका को श्मशान और तुम सबको मृत्यु का दान देने आया हूं। लोग मुझे मृत्यु दाता भी कहते हैं। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- हे मूर्ख उन्मत वानर तेरे झूठे भगवान ने तेरी झूठी प्रशंसा करके तुझे मृत्यु की आग में झोंका है। हे मायावी वानर! मैं तुझे एक और मौका देता हूं यदि तू जीवित रहना चाहता है तो भाग, भाग यहां से। यह सुनकर वह कहता है कि मैं यहां द्वारिका का विनाश करने आया हूं और विनाश करके ही जाऊंगा। तू जान बचाना चाहता है तो मुझसे क्षमा मांगकर, रोकर, गिड़गिड़ाकर यहां से भाग सकता है। जय श्रीकृष्णा।