यहां पहली बात यह समझने की है कि मनु स्मृति को कभी भी हिन्दुओं ने अपना धर्मग्रंथ नहीं माना। इसका कभी भी किसी मंदिर में पाठ भी नहीं होता और न ही इसे कोई पढ़ता है। कोई इसे खरीदकर घर में भी नहीं रखता है। अत: वर्तमान 'मनुस्मृति' को मनु के नाम से प्रचारित करके उसे प्रामाणिकता प्रदान की गई है। परंतु बहुमत इसे स्वीकार नहीं करता।
कई स्मृतियां: स्मृतियों को प्रमुख ऋषियों और मनुओं ने लिखा है। जैसे, मनु, याज्ञवल्क्य, पराशर, आपस्तंब, नारद, अत्रि, विष्णु, हरीत, औषनासी, अंगिरा, उशनस, यम, कात्यायन, उमव्रत, बृहस्पति, व्यास, दक्ष, गौतम, वशिष्ट, संवर्त, शंख, गार्गेय, देवल, शरतातय और शातातप स्मृति। अब मनु स्मृति की बात करें तो अब तक 14 मनु हो गए हैं। प्रत्येक मनु ने अलग मनु स्मृति की रचना की है। इसी तरह प्रयेक ऋषियों की अलग अलग स्मृतियां हैं और इस तरह कम से कम 20-25 स्मृतियां मौजूद हैं।
मनु स्मृति में हेरफेर :
अंग्रेज काल में जब शरिया और बाइबल पर आधारित कानून बनाये जा रहे थे तब हिन्दू लॉ को भी बनाये जाने की जरुरत महसूस हुई. चूँकि हिन्दुओं के पास कानून की कोई पुस्तक नहीं थी तो अंग्रेजों ने अपने सलाहकारों के माध्यम से यह तय किया की मनु स्मृति को हिन्दुओं की क़ानूनी पुस्तक बनाई जाए. बस फिर क्या था।
ऐसी मान्यता अधिक है कि अंग्रेज काल में इस ग्रंथ में हेरफेर करके इसे जबरन मान्यता दी गई और इस आधार पर हिन्दुओं का कानून बनाया गया। जब अंग्रेज चले गए तो भारत में जो सरकार बैठी उसने यह कभी ध्यान नहीं दिया की अंग्रेजों द्वारा जो गड़बड़ियां की गई थी उसे ठीक किया जाए। उन्होंने भी अंग्रेजों का अनुसरण करते हुए अंग्रेजों की ही परंपरा को आगे बढ़ाया।
मनुस्मृति के बहुत से संस्करण उपलब्ध हैं। कालान्तर में बहुत से प्रक्षेप भी स्वाभाविक हैं। साधारण व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह बाद में सम्मिलित हुए सूत्रों या अंशों की पहचान कर सके। कोई अधिकारी विद्वान ही तुलनात्मक अध्ययन के उपरान्त ऐसा कर सकता है। क्योंकि बहुत ही चालाकी से यह जोड़े गए हैं। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार मनु परंपरा की प्राचीनता होने पर भी वर्तमान मनुस्मृति ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी से प्राचीन नहीं हो सकती।
मनुवाद और ब्राह्मणवाद:- भारतीय राजनीति में जिन दो शब्दों का सर्वाधिक उपयोग या दुरुपयोग किया वह है 'मनुवाद और ब्राह्मणवाद।' इन शब्दों के माध्यम से हिन्दुओं में विभाजन करके दलितों के वोट कबाड़े जा सकते हैं या उनका धर्मान्तरण किया जा सकता है। मनुवाद की आड़ में क्या धर्मान्तरण का कुचक्र रचा जा रहा है? बहुत से लोगों के मन में अब यह सवाल उठने लगा है और इसको लेकर रोष भी काफी बढ़ गया है।
अधिकांश लोगों में भ्रम है कि मनु कोई एक व्यक्ति था जो ब्राह्मण था। जबकि तथ्य यह है कि मनु एक राजा थे। इसके अलावा मनु एक नहीं अब तक 14 हो गए हैं। इनमें से भी स्वयंभुव मनु और वैवस्वत मनु की ही चर्चा अधिक होती है। इन दोनों में से स्वयंभुव मनु से ही मनु स्मृति को जोड़ा जाता है।
मनु के बारे में दूसरा भ्रम मनु संहिता को मनुवाद बना देना है। दरअसल यह मनुवाद शब्द पिछले 70 वर्षों में प्रचारित किया गया शब्द है। संहिता और वाद में बहुत अंतर होता है। संहिता का आधार आदर्श नियमों से होता है जबकि वाद दर्शनशास्त्र का विषय है। जैसे अणुवाद, सांख्यवाद, मार्क्सवाद, गांधीवाद आदि। उल्लेखनीय है कि यह दलित शब्द भी पिछले कुछ वर्षों में ही प्रचलित किया गया। इससे पहले हरिजन शब्द महात्मा गांधी ने प्रचलित किया था। इससे पहले शूद्र शब्द अंग्रेजों के काल में प्रचलित हुआ और इससे पहले क्षुद्र शब्द प्रचलन में था। ठीक इसी तरह मनुवाद और ब्राह्मणवाद भी धर्मान्तरण करने वालों की देन है।
कुछ लोग मानते हैं कि बाबा साहब अंबेडकर ने जिस तरह संविधान लिखा उसी तरह प्राचीनकाल में राजा स्वायंभुव मनु ने 'मनु स्मृति' लिखी। जिस तरह संविधान में संशोधन होते गए उसी तरह हर काल में 'मनु स्मृति' में सुविधा अनुसार हेरफेर होते गए। अंग्रेजों के काल में इसमें जबरदस्त हेरफेर हुए।
कहना नहीं होगा कि मनु स्मृति में योग्यता को सर्वोच्च माना गया है इसलिए अकर्मणय, आलसी, विधर्मी लोगों ने इसे अपने विरुद्ध मान लिया और वे ही लोग भ्रम फैलाने में जुट गए। इसी की आग पर राजनीतिक रोटियां अच्छे से सेंकी जा सकती है और इसी के माध्यम से कालांतर में धर्मान्तरण होते रहे हैं और आज भी यह क्रम जारी है। इसका कारण यह कि गरीब, मजदूर, आदिवासी और वनवासी लोग न तो अपने धर्म को अच्छे से जानते हैं और न ही अपने देश को। उनके लिए तो उनका सबसे बड़ा धर्म रोटी की जुगाड़ करना होता है।
ब्राह्मण वाद क्या है?
जिस तरह मनुवाद जैसा कोई वाद नहीं है उसी तरह ब्राह्मणवाद भी कोई वाद नहीं। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि किसी नियम, कानून या परम्परा के तहत जब किसी व्यक्ति को उसकी जाति, धर्म, कुल, रंग, नस्ल, परिवार, भाषा, प्रांत विशेष में जन्म के आधार पर ही किसी कार्य के लिए योग्य या अयोग्य मान लिया जाए तो वह ब्राह्मणवाद कहलाता है। जैसे पुजारी बनने के लिए ब्राह्मण कुल में पैदा होना। ब्राह्मणवाद के बारे में आम जनता की सोच यहीं तक सीमित है।
आजकल यही हो रहा है आरक्षण के नाम पर किसी जाति, धर्म, कुल, रंग, नस्ल, परिवार, भाषा, प्रांत विशेष में जन्म के आधार पर ही आरक्षण दिया जा रहा है। यही तो ब्राह्मणवाद का आधुनिक रूप है। इस तरह का प्रत्येक वाद ब्राह्मणवाद ही है। फिर चाहे वह नारीवाद हो, किसानवाद हो, अल्पसंख्यक वाद हो, वंशवाद हो; सभी के सभी ब्राह्मणवाद ही है क्योंकि इनका निर्धारण योग्यता से नहीं जन्म से होता है।
आज कोई भी महिला, कोई भी किसान, कोई भी पिछड़ा, कोई भी अल्पसंख्यक, कोई भी दलित वर्ग संपन्न और सक्षम हो जाने के बाद भी आरक्षण की सुविधा को खोने को तैयार नहीं है। आज एक किसान करोड़ों की कार में घुमकर भी इंकम टैक्स देने से इंकार कर सकता है। एक दलित विशेष कानून का सहारा लेकर किसी को भी गिरफ्तार करवा सकता है। एक महिला अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके किसी की भी जिंदगी बर्बाद कर सकती है। अर्थात इनके वचन ही सत्य और स्व:प्रमाणित मान लिए जाते हैं जैसे किसी समय ब्राह्मणों के वचनों को सत्य माना लिया जाता था। यही तो ब्राह्मणवाद है।
मनु स्मृति क्या है?
मनु स्मृति विश्व में समाज शास्त्र के सिद्धान्तों का प्रथम ग्रंथ है। जीवन से जुडे़ सभी विषयों के बारे में मनु स्मृति के अन्दर उल्लेख मिलता है। समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाए गए हैं वह सभी संसार की सभी सभ्य जातियों में समय के साथ-साथ थोड़े परिवर्तनों के साथ मान्य हैं। मनु स्मृति में सृष्टि पर जीवन आरम्भ होने से ले कर विस्तरित विषयों के बारे में जैसे कि समय-चक्र, वनस्पति ज्ञान, राजनीति शास्त्र, अर्थ व्यवस्था, अपराध नियन्त्रण, प्रशासन, सामान्य शिष्टाचार तथा सामाजिक जीवन के सभी अंगों पर विस्तरित जानकारी दी गई है। समाजशास्त्र पर मनु स्मृति से अधिक प्राचीन और सक्षम ग्रंथ अन्य किसी भाषा में नहीं है। इसी ग्रंथ के आधार पर दुनिया के संविधानों का निर्माण हुआ और दूसरे धर्मों के धार्मिक कानून बनाए गए। यही कारण था कि इस ग्रंथ की प्रतिष्ठा धूल में मिलाने के लिए अंग्रेजों और विधर्मियों ने इसके बारे में भ्रम फैलाया।