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प्रवासी कविता : तस्वीरें चिढ़ा रही हैं

प्रवासी कविता : तस्वीरें चिढ़ा रही हैं - Pravasi Poem
Hindi Poem

आज मेरी तस्वीरें चिढ़ा रही हैं मुझे
जब मैं उनसे नजरें मिला रही हूं
कुछ पुरानी तस्वीरें कॉलेज के दिनों की
प्रयोगशाला में सफेद कोट पहने
 
बीस, तीस, चालीस, पचास
पार हो गए कितने वसंत
इक्कीसवें वसंत के पार होते
सपने बदल गए सुर्ख होकर
 
समझ क्यों नहीं पाई थी तब
एक बेबसी आज महसूस हो रही
मां-पिता ने चेताया वक्त यही है
यौवन की दूरदर्शिता अंधी हो गई
प्रेम में पड़कर ठोकर मार दी
मेहनत, महानता, लगन, संघर्ष
बेतुकी बातें हैं, डिग्री काफी है
परिवार की खुशी सर्वोपरी है

 
आज व्याकुलता विष घोलती है
भीतर ताने मार तड़पाती है कितना
देश, संसार विपदा में पड़ा भुगत रहा
विषाणु को भगाने काश! कोट पहने रहती
वक्त कभी कहां ठहरता है इंतजार करता
इच्छा बाहशाह है, वक्त मौके देता है सबको !

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