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रेल की पटरियों पर बिखरे मजदूरों के क्षत-विक्षत शव पूछ रहे सवाल!

रेल की पटरियों पर बिखरे मजदूरों के क्षत-विक्षत शव पूछ रहे सवाल! - lockdown
अनकट लॉकडाउन डायरी

आप कोरोना से डर रहे हैं, हमें भूखे पेट का दर्द डरा रहा था। रेल की पटरियों पर 16 मजदूरों की क्षत-विक्षत लाशें, सभ्य समाज से जवाब मांग रही हैं। जवाब उनकी बिरादरी के बच्चों के पांवों में पड़े छालों का, जवाब उनके बुजुर्गों की अकड़ी पीठ का... जवाब उनके भूखे पेट का... जवाब उनके प्यासे कंठ का... और हां जवाब रेल की पटरियों पर बिखरे उनके शरीर का।

जवाब... जो जहां है वहीं रुका रहे लॉकडाउन है।
" जाके पांव न फटी बिवाई वह क्या जाने पीर पराई"

.... 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के बाद 25 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन लगा दिया गया। चलती दुनिया के पहियों को थम जाने के लिए निर्देशित किया गया। यह सुनते ही देश की राजधानी दिल्ली में मजदूर घरों में लॉक होने की जगह बाहर निकल आए। सड़कों पर भीड़ ही भीड़ जमा थी। सभी को कोरोना का नहीं घर पहुंच जाने का डर खाया जा रहा था। सोशल डिस्टेंसिंग के समय सड़क पर सिर्फ सिर ही सिर नजर आ रहे थे। लिखी पंक्तियों को फिर ध्यान से पढ़िए, मजदूर घरों में लॉक हो जाएं। क्या सच में परदेस में उनके पास कोई घर था? वे काम करने परदेस आए थे। किसी तरह ठिकाना ढूंढ रखा था... सिर छिपाने का। अब जब रोज की कमाई नहीं तो सिर छिपाने का यह ठिकाना बचना ही ना था।

अब जब रेल बंद-बसें बंद तब... ये मजदूर हैं। हमेशा भरोसा इन्हें अपने सख्त हो चुके हांड-मांस पर ही था... इसलिए पैदल ही निकल चले अपने घर की ओर। लॉकडाउन के तुरंत बाद से जगह-जगह से खबरें आती गईं... कामगर लोगों अपने पैरों की मदद से सैकड़ों-हजारों किलोमीटर की दूरी नापने निकल चुके हैं। लॉकडाउन के दो-तीन बाद ही मार्मिक खबरें आने लगी। छोटे-छोटे बच्चों के सिर पर भारी बोझ था, पांवों में छाले। अपने बुजुर्गों को किसी टोकनी नहीं खुद के शरीर पर लादे कई श्रवण कुमार दिखे। कई गर्भवती महिलाएं एक पेट में एक गोद में बच्चा लिए चलते दिखीं। बेबसी की तस्वीरें हर ओर से नुमाइंदा होने लगी। अभी दो दिन पहले ही तो तस्वीर आई थी धुले से अलीगढ़ के लिए निकले परिवार के दिव्यांग बुजुर्ग की पीठ पर छाले हो गए थे। परिवार के बच्चे उनकी व्हीलचेयर धकेल रहे थे।

कुछ तस्वीरों में खाकी वर्दी इन पैदल चल रहे मजदूरों को सजा देती नजर आई। सच है, इन मजदूरों ने कानून तो तोड़ा ही था... सच में... भूखे पेट किसी कानून को नहीं जानते। आप उन्हें मुर्गा बनवाएं या घुटनों के बल चलवाएं... इन्हें जाना तो अपने घर है। घर की उसी डगर पर यह चलते रहे। एक-एक कर लॉकडाउन के दिन महीने में बदल गए थे। हर खास की तरह मजदूरों को अपनी मिट्टी अपने घर की याद आने लगी। बर्दाश्त करने की हर सीमा ने जवाब दे दिया था। चलते-चलते जब पांव जवाब देने लगे तो जो साधन मिला उस पर चढ़ लिए। मजदूर दिवस बीतने के दो दिन बाद ही मध्यप्रदेश की इंदौर-उज्जैन सीमा पर मिले ना 18 मजदूर... कांक्रीट मिक्सर ट्रक में किसी तरह उकड़ू बैठकर अपने घर वापस जा रहे थे। हम सभी के लिए रोलर-कोस्टर में बैठना फन हो सकता है। इनके लिए मजबूरी थी... यह दो मिनिट का फन नहीं, लंबी थका-पका देने वाली, तोड़ देने वाली यात्रा थी, जिसका अंत पुलिस के हत्थे चढ़ने के बाद ही हुआ।

तो फिर पहले की ही बात पर आऊंगी, आज की दर्दनाक घटना पर आऊंगी… क्यों पटरी के सहारे चल रहे थे? इस तपती घाम में पटरी के आस-पास तो पेड़ की छांव भी नहीं होती? पूछ रहे पटरी पर सो क्यों रहे थे मजदूर? क्या पता नहीं ट्रेन किसी भी वक्त आ सकती है? फिर श्रमिक ट्रेन को चलाने की शुरुआत भी तो कर दी गई है।

 जवाब बहुत सीधा से है सुन लीजिए...

मजदूरों के पास शायद अक्ल थोड़ी कम ही होती है अन्यथा वह अपनी मजदूरी का सही दाम लगाना जानते।
उनके पास जीपीएस या गूगल देव नहीं जो रास्ता बता सकें, रेल नहीं तो उसकी पटरी सही, रास्ता तो सही दिखा देगी।

या फिर सड़क की जगह रेल की पटरी के पास से गुजरेंगे तो पुलिस के डंडों से बच जाएंगे।

श्रमिक ट्रेन शुरु तो हुईं लेकिन बहुत देर कर दी... तब तक अधिकांश कोरोना के डर को पीछे छोड़ अपने-अपने घरों की ओर चल दिए थे।

या फिर सोचिए ना, पटरियों के पास एक आस लेकर चल रहे थे.. कहीं लाल-नीले डिब्बे चलते दिख जाएं तो वे उस पर चढ़ कर अपने घर थोड़ा जल्दी पहुंच जाए।

अब जब हमारे सवालों के जवाब मिल गए तो उन मृत देहों के सवालों के जवाब दे दीजीए... आखिर क्यों... आजादी के सात दशक से ज्यादा समय बीतने के बाद भी मजदूर रेल की पटरियों पर बेमौत मारे जाने के लिए मजबूर हैं। किसी को जवाब मिले तो बताइएगा। तब तक के लिए कबीर की कुछ पंक्तियां...

साधो यह मुरदों का गांव!
पीर मरे, पैगम्बर मरि हैं,
मरि हैं जिंदा जोगी,
राज मरि है, परजा मरि है
मरि हैं बैद और रोगी।
साधो ये मुरदों का गांव!


(श्रुति अग्रवाल, पिछले 19 सालों से पत्रकारिता के पेशे में सक्रीय। उनकी  जोरबा द ग्रीक, प्रेम नाम है मेरा प्रेम चोपड़ा दो अनुदित क‍िताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।)

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है, वेबदुन‍िया डॉट कॉम से इसको कोई संबंध या लेना-देना नहीं है।
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