जिन देशों में हाथ और मुंह पर मजदूरी की धूल नहीं पड़ने पाती वे धर्म और कला कौशल में कभी भी उन्नति नहीं कर सकते। आनंद और प्रेम की राजधानी का सिंहासन सदा से प्रेम व मजदूरी के कांधों पर रहता आया है। विचार पूर्वक किया हुआ श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाज सेवा की श्रेणी में आता है। जो श्रम नहीं करता, दूसरों के श्रम से जीवित रहता है, वही सबसे बड़ा हिंसक है।
क्रिया ही जीवन है और अक्रिया मृत्यु। सृष्टि सृजन करने के लिए भी भगवान को संकल्प की क्रिया करना होती है। सृष्टि संचालन व लय भी क्रिया के बिना संभव नहीं। यही क्रिया व्यावहारिक जीवन में श्रम के नाम से अभिव्यक्त होती है। नियोजन भी क्रिया है और निर्माण भी। इसलिए हमारी संस्कृति में श्रम को सर्वोच्च आदर देते हुए श्रम के देवता भगवान विश्वकर्मा की पूजा की जाती है।
ऋग्वेद में भी कहा गया है कि ‘न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः’ अर्थात श्रम किये बिना देवताओं का सहयोग प्राप्त नहीं होता। पंचतंत्र में भी “उद्यमेन हि सिध्यन्ति” जैसे श्लोक के माध्यम से भी श्रम का महत्व ही दर्शाया गया है। गीता तो पूरी ही श्रम और कर्म के महत्व को रेखांकित करती है। मध्यकाल में जहां छत्रपति शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप ने कई कई दिन तक श्रम करके देश के स्वाभिमान की रक्षा की वहीं तुलसीदास जी जैसे संतों ने प्रभुकृपा पर पूर्ण विश्वास होते हुए भी ‘दैव दैव आलसी पुकारा’ तथा ‘सकल पदारथ है जग माहीं, कर्महीन कछु पावत नहीं’ जैसी अमर सूक्तियों के माध्यम से श्रम का महत्व ही बताया है।
‘है मनुष्य की देह में कैसा एक रहस्य,
शत्रु मित्र हैं संग ही, श्रम एवं आलस्य’
तमिल लोकोक्ति है जो कहती है-‘इरुदं काल मूदेवी, नडंद काल शीदेवि’
मतलब स्थिर रहने वाले पैर में दुर्भाग्य देवी, चलने वाले के पैर में श्रीदेवी का वास होता है।
लाला लाजपत राय ने भी कहा था ‘ऐसा कोई भी श्रम-रूप अपयशकर नहीं है जो सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो और समाज को जिसकी आवश्यकता हो’
आधुनिक युग में जहां साम्यवादी विचारकों ने दुनिया के मजदूरों को एक हो जाने की अपील की थी वहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘श्रमेव जयते’ कह कर देश के विकास में श्रम के योगदान को स्वीकारा है। यदि एक दिन सफाई श्रमिक काम करना बंद कर दें तो देश की क्या हालत हो जाती है इसे फिल्म ‘आर्टिकल 15’ में बखूबी दिखाया गया है।
श्रमिक देश की एकता के बहुत बड़े प्रतीक होते हैं। वे देश/विश्व के अलग-अलग कोनों में जा कर उत्पादक कार्यों में अपना योगदान देते हैं। कोई भी अर्थव्यवस्था हो, वह श्रमिकों के सहयोग के बिना नहीं चल सकती। हाल ही में चल रहे लॉकडाउन के दौर में पूरे देश में फैले हुए श्रमिकों ने अपने घर लौटते समय न तो यातायात के साधनों की चिंता की और न कहीं पथराव किया।
अकल्पनीय कष्ट व त्रासदायी पीड़ा के साथ लम्बी-लम्बी पद यात्राओं के बाद भी राष्ट्रहित व शांति को सर्वोपरि रखा। अभिनंदनीय हैं हमारे देश के श्रमिक, पूजनीय है उनकी भावना और वन्दनीय है उनका त्याग कि वे तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बाद भी अपना धैर्य नहीं खोते। चाहे जैसी विपदाएं आ जाएं, वे फिर उठ खड़े होते हैं एक नए संकल्प के साथ और देश के नवनिर्माण में जुट जाते हैं। माना कि उन्हें मजदूरी मिलती है लेकिन देश के विकास में उनके योगदान को कभी भी मुद्रा में नहीं आंका नहीं जा सकता। श्रम प्रेम को प्रत्यक्ष करता है। जब भी प्रेमपूर्वक श्रम किया जाता है तब हम अपने आप से, एक दूसरे से और ईश्वर से संयोग की गांठ बांधते हैं।
सारी दुनिया के भार को अपने पर उठाने वाले शेषनाग रुपी श्रमिकों की सारी दुनिया, सारा संसार है, इनका कोई एक राष्ट्र और कोई एक जाति नहीं होती, सारे श्रमजीवी हमारे बंधु हैं। इनकी विशाल संख्या व विशाल शक्ति है। हमेशा और हर जगह काम करने में सबसे आगे। हम सभी इनके श्रम पर ही निर्भर हैं।
आज मजदूर दिवस पर हमारा यह संकल्प होना चाहिए कि हम श्रम के प्रति आदर भाव रखेंगे, गांधी जी ने अपने कार्यों, व्यवहारों और आश्रम की गतिविधियों में श्रम को जो सर्वोच्च गौरव प्रदान किया था उसका सम्मान बनाये रखेंगे और यह प्रयत्न करेंगे कि श्रमिक भी देश के विकास के घटकों में अपने महत्व को पूरी शिद्दत के साथ अनुभव करें और हम सब यह कह सकें कि ‘आज सारा देश अपने लाम पर है, जो जहां है वतन के काम पर है’
कोरोना लॉकडाउन के चलते, आर्थिक मंदी के चलते, भविष्य की आने वाली अर्थव्यवस्था की मजबूती हेतु हमें दृढ़ रहना होगा। मैथिलिशरण गुप्त ने ‘राजा पृथा’ में कितना सटीक कहा है-
‘हम सब का अभ्युदय एक क्रम से ही होगा, बातों से कुछ नहीं काम श्रम से ही होगा’
रहे रक्त व अश्रुपात के हम अभ्यासी, पर अब अपनी भूमि पसीने की ही प्यासी’
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अभिव्यक्ति है, वेबदुनिया डॉट कॉम से इसका कोई संबंध या लेना-देना नहीं है।)