आजाद भारत को तोहफे में अभिनेताओं की जो त्रिमूर्ति प्राप्त हुई, उनमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश कौन है, यह तय करना मुश्किल है, लेकिन तीनों ने अपने ढंग के विशिष्ट सिनेमा की रचना कर भारतीय फिल्मों को कलागत और वैचारिक रूप से समृद्ध बनाया। उन्होंने न सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन किया, अपितु भारतीय समाज और खासकर युवाओं की जीवनशैली को प्रभावित किया। तीनों ने अपने दर्शकों के दिलों में इतनी जगह बनाई कि दिलीप-राज-देव के समर्थक दर्शकों के अपने-अपने वर्ग हो गए थे। देव आनंद ने अपने जीवन का तीन-चौथाई हिस्सा फिल्मों को समर्पित किया और उम्र के अंतिम दौर तक वे फिल्मों से सक्रिय रूप से जुड़े रहे।
अभिनय के तीन स्कूल
त्रिमूर्ति की एक मूर्ति ने फिल्मों का शतक पार किया है। दिलीपकुमार ने कुल 54 फिल्में कीं, जबकि देव आनंद के ही समान निर्माता निर्देशक रहे राजकपूर ने जून 1988 में अपने निधन तक कुल 66 फिल्में की थीं, जिनमें से 8 फिल्मों में उन्होंने अभिनय नहीं किया था। अपने जीवनकाल में लीजैण्ड बनने वाले इन फिल्मकारों ने देश को तीन विशिष्ट शैलियाँ दीं।
और उनके अभिनय के स्कूल चल पड़े
अगली पीढ़ी के अभिनेताओं ने बड़े चाव से इनके अभिनय की स्टाइल और मैनरिज्म को अपनाया। जबकि इन अँग्रेजों ने हॉलीवुड के कलाकारों को देखकर अभिनय की अपनी शैलियों को स्वयं विकसित किया था।
दिलीप कुमार के अभिनय का उज्ज्वल पक्ष निराश प्रेमी की भूमिका को शिद्दत से साकार करना था। राजकपूर ने भले और भोले आदमी की छवि को भुनाया, तो देव आनंद ने बने-ठने, सजीले, जल्दी-जल्दी बोलने वाले स्मार्ट युवक के किरदार को अपनाना पसंद किया।
देव आनंद को जीवन से बहुत प्यार रहा है और वे आशावादी सिनेमा के पक्षधर थे, इसलिए अपने चाहते उन्होंने उदासीनता भरी भूमिकाओं से सदैव परहेज किया। करियर के आरंभ 1949 में वे निर्माता बन गए थे और 1970 में फिल्म 'प्रेम पुजारी' से निर्देशक बने।
उन्होंने अपने बड़े भाई चेतन आनंद और अनुज गोल्डी उर्फ विजय आनंद को फिल्मों में आगे बढ़ाया, क्योंकि वे सचमुच प्रतिभाशाली थे। गांगुली बंधुओं (अशोक, किशोर, और अनूप कुमार) की तरह आनंद बंधुओं ने भी फिल्मी दुनिया में प्रतिष्ठाजनक स्थान बनाया है।
देव आनंद एक बार अपने कैमरे को स्टूडियो से बाहर क्या लाए, वे पुरी तरह घुमक्कड़ फिल्मकार बन गए। देशभर में घूमते-घूमते वे हिमालय तक जा पहुँचे। नेपाल के शाही परिवार से मित्रता के कारण कुछ फिल्में उन्होंने वहाँ भी बनाईं। फिल्मों के लिए नई-नई लोकेशन चुनते-चुनते वे अंतरराष्ट्रीय हो गए थे।
निर्माता की हैसियत से देव आनंद ने फिल्म इंडस्ट्री को कई निर्देशक दिए। चेतन और विजय आनंद के अलावा राज खोसला, अमरजीत/मंडी बर्मन ही नहीं महान निर्माता-निर्देशक-अभिनेता गुरुदत्त को भी देव आनंद ने ही निर्देशक के रूप में पेश किया था।
शम्मी कपूर को देव आनंद का एक्सटेंशन (विस्तार) कहा जा सकता है। जैकी श्रॉफ ने तो खुद को देव की शैली में ढाला है। वे देव आनंद के पुत्र सुनील के मित्र थे। उन्हें बुजुर्ग स्टार ने 'स्वामी दादा' (1982) में छोटा-सा रोल दिया था, क्योंकि वे अगली फिल्म में बड़े रोल तक रुकने को राजी नहीं थे। आमिर खान की गिनती भी देव शैली के अभिनेताओं में की जाती है।
अफलातून अभिनेता
देव आनंद को हम अच्छे सेंस में एक 'अफलातून' अभिनेता कह सकते हैं। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि 'मैं सोचने-विचारने से संबंध रखने वाले परिवार से आया हूँ।' उन्हें अपने पिता की विद्वत्ता पर सदा नाज रहा। अपने निर्देशक भाइयों की सूझबूझ और कल्पनाशीलता से वे अभिभूत रहे। अँगरेजी साहित्य में बीए ऑनर्स करना भी उन्हें विशिष्टता दे गया।
आरंभिक फिल्मों में धोती-कुर्ता पहनकर पेश हुए देव आनंद ने विलायती बाना धारण कर लिया और अपनी रंगीन तबीयत के अनुकूल गले में स्कार्फ बाँधना शुरू किया। वे शर्ट की सबसे ऊपर वाली बटन तक बंद रखते हैं। अपनी कई फिल्मों में कई तरह की हेट का फैशन उन्होंने चलाया। अब देव आनंद की पोशाक आम भारतीय की पोशाक है। देव आनंद ने राजनीति में थोड़ी दिलचस्पी दिखाई थी। शुरू में वे कांग्रेस समर्थक थे। आपातकाल के बाद कांग्रेस से उनका मोहभंग हो गया।
कुछ अपवादों को छोड़कर लगभग सभी समकालीन अभिनेत्रियों के साथ देव आनंद ने काम किया, उनमें कुछ अभिनेत्रियाँ तो ऐसी थीं जो दिलीप-राज-देव तीनों के साथ समान रूप से आईं। जैसे वैजयंतीमाला, नर्गिस, मीना कुमारी, मधुबाला, गीताबाली, वहीदा रहमान। देव आनंद ने निर्माता होने के नाते राज कपूर से अधिक नई तारिकाओं को पेश किया।
पिछले चार दशकों में उन्होंने कई लड़कियों को ब्रेक दिया था, जिनमें जीनत अमान और टीना मुनीम भी शामिल हैं। ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी राज कपूर के साथ 1968 में फिल्म 'सपनों का सौदागर' में पहली बार परदे पर आई। लेकिन सबसे ज्यादा नौ फिल्में उन्होंने देव आनंद के साथ कीं। अपनी पत्नी कल्पना कार्तिक के अलावा देव आनंद ने सुरैया/गीता बाली/वहीदा रहमान और जीनत अमान के साथ आधा दर्जन से अधिक फिल्में कीं। अर्थात इन अभिनेत्रियों के साथ देव आनंद की जोड़ी को खूब पसंद किया गया।
कॉलेज से जनरल तड़ी
देव आनंद की ख्यासति यह है कि उपलब्ध अभिनेताओं में वे सबसे ज्यादा सुंदर थे और नियमित जीवनशैली के कारण उनकी सदाबहार जवानी ने उन्हें सदाबहार महानायक बनाए रखा। वे रुपहले पर्दे के सुनहरे नायक थे। उनका रूप-यौवन देखकर तो शायद कामदेव भी शरमा जाते। लड़के-लड़कियों ने स्कूल-कॉलेज से तड़ी मारकर मेटिनी शो में देव आनंद की फिल्में खूब देखी थीं।
अपने प्रति दीवानगी के इस आलम के बावजूद देव आनंद सद्गृ-हस्थ बने रहे। वे सदैव झक्की की तरह अपने काम में लगे रहे। यह सवाल देव आनंद से कई मर्तबा पूछा गया कि आप इतने लंबे समय तक तरुण बने रहे, इसका राज क्या है। उनकी तरुणाई कायम रखने का अगर कोई रहस्य होता, तो वे बताते। ईश्वर प्रदत्त इस तरुणाई के कारण ही लंबे समय तक देव आनंद को नायक के रूप में स्वीकार किया गया।
लेकिन यह सत्य है कि अस्सी के बाद, यानी आज के अमिताभ बच्चन की उम्र में नायक के रूप में उन्हें सराहा नहीं गया। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने अपना काम जारी रखा। स्वर्गीय अशोक कुमार ने पचास के होते-होते चरित्र अभिनेता बनना शुरू कर दिया, लेकिन देव आनंद ने साठ के बाद भी ऐसा करना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने 'लोग क्या कहते हैं' इस बात की फिक्र किए बगैर अपनी दैहिक इमारत को बुलंद बनाए रखा।
फिल्म हम दोनों में उन्होंने गाया था - हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया, लेकिन धूम्रपान उतना ही किया, जितना अभिनय के लिए आवश्यक था। शराब को दवा की तरह पिया, सिर्फ एक जाम और वह भी पार्टी में भाग लेने वालों का मान रखने के लिए।
कौन नहीं जानता कि कुंदनलाल सहगल, गुरुदत्त, राज कपूर, संजीव कुमार खानपान की ज्यादतियों के कारण वक्त से पहले चले गए। दिलीप और देव, दादामुनि के पटु शिष्य होने के नाते स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहे। देव आनंद ने अभिनय का ककहरा पुणे की प्रभात फिल्म कंपनी में सीखा था, जहाँ वे अभिनेता के रूप में पसंद किए गए थे, लेकिन उनका अगला पड़ाव मलाड स्थित बॉम्बे टॉकीज का स्टुडियो बना, जिसने पहली बार देव आनंद को अपनी फिल्म के लिए 20 हजार रुपए में अनुबंधित किया था।
प्रभात कंपनी ने उन्हें चार सौ रुपए माहवार पर रखा था। वहाँ उन्होंने दो फिल्मों में काम किया। उनकी पहली फिल्म 'हम एक हैं' थी। बॉम्बे टॉकीज की 'जिद्दी' उनकी चौथी फिल्म थी, जिसने उन्हें सीधे स्टार बना दिया।
सफलता की कई पताकाएँ
देव आनंद की सफल फिल्मों की सूची लंबी है। 'जिद्दी' के बाद 'बाजी'/आँधियाँ/पतिता/टैक्सी ड्राइवर/हाउस नं. 44/इंसानियत/नौ दो ग्यारह/पेइंग गेस्ट/अमरदीप/काला पानी/सोलवाँ साल/लव मैरिज/बंबई का बाबू/एक के बाद एक/जाली नोट/काला बाजार/मंजिल/सरहद/हम दोनों/जब प्यार किसी से होता है/माया/असली नकली/बात एक रात की/तेरे घर के सामने/शराबी/तीन देवियाँ/गाइड/प्यार मोहब्बत/ज्वेल थीफ/जॉनी मेरा नाम/हरे राम हरे कृष्णा/बनारसी बाबू/अमीर-गरीब/देस परदेस आदि फिल्मों के इन नामों से देव आनंद के व्यक्तित्व और कृतित्व का सारा खाका स्पष्ट हो जाता है। प्रेमी देव आनंद और बहुत सारी प्रेमिकाएँ, इन फिल्मों के नाम पढ़कर अनेक पाठक कह उठेंगे - कितने अच्छे कलाकार के युग में हमने जन्म लिया।
देव आनंद की महिला प्रशंसकों की संख्याल ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक है। शायद अमिताभ बच्चन ने उनके इस रिकॉर्ड को तोड़ दिया हो क्योंकि वे अधिक आबादी वाले युग में अवतरित हुए। अग्रज देव आनंद ही कहे जाएँगे।
जुलाई 1946 में स्टार बनने का सपना लेकर पहुँचा गुरदासपुर का पंजाबी युवक धर्मदेव आनंद अपने मूल नाम से धर्म हटाकर देव आनंद बन गया। अंदर ही अंदर वह भी अपने समकालीन राज कपूर के समान संगीत से सराबोर था, इस बात के प्रमाण हैं, उनकी फिल्मों के मधुर तराने।
फिल्मों से कमाया : फिल्मों में लगाया
देव आनंद को हमने एक अफलातून एक्टर कहा, जो अभिनय की बारीकियों की फिक्र नहीं पालता। मनमर्जी का अभिनय करता है। जो हमारी रोजमर्रा की बोल-व्यवहार शैली है, वही हमारा अभिनय है। वे अपने आपको नित नए अंदाज में पेश करते रहते थे और चेहरे पर खुशी के हावभाव चंचल और मोहक बनाए रखने में माहिर थे।
वैसे वे कई चीजों में माहिर थे। वे निर्माता, निर्देशक, संपादक, लेखक, अभिनेता व नवकेतन इंटरनेशनल फिल्म्स तथा आनंद डबिंग रिकार्डिंग थिएटर और लेबोरेटरीज के मालिक थे। फिल्मों से कमाया और फिल्मों में ही लगाया। फिल्मी दुनिया में अनेक भले मानुस ऐसे ही हुए हैं। देव आनंद जैसी लोकप्रिय और अध्यवसायी हस्ती के लिए क्या कभी नाणातंगी हो सकती है। उनका फलसफा है - फिल्में पिटती हैं तो पिटती रहें, मेरी बला से।
मुझे जो कहना है, कह दिया। दर्शकों को बात जँची तो ठीक है, नहीं जँची तो भी ठीक है। यही रवैया देव आनंद को पलट-पलटकर लोकप्रियता की रोशनी के मध्य ले आता है।
एंटी हीरो की लोकप्रिय इमेज
अभिनय के शास्त्रीय विवेचक देव आनंद को एक्टर नहीं स्टार बताते हैं, जो अपने अँगरेजियत भरे तौर-तरीकों से लोगों को लुभाता है। लेकिन देव आनंद का करियर ग्राफ दिखाता है कि 1958 में उन्हें अपनी फिल्म कालापानी में अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था। इसके आठ साल बाद 1966 में उन्हें फिल्म 'गाइड' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और सर्वश्रेष्ठ निर्माता का फिल्म फेयर अवार्ड दिया गया। 'गाइड', 'ज्वेलथीेफ' और 'जॉनी मेरा नाम' का काल देव आनंद के चरम उत्कर्ष का काल था। उन्होंने ज्यादातर अपराध कथाओं पर फिल्में बनाईं। अशोक कुमार की फिल्म 'किस्मत' जैसी विनायक 'एंटी हीरो' छवि उन्हें ज्यादा रास आई और फिल्म गाइड में स्वामीजी बनना भी उन्हें अच्छा लगा।
पिछले 50 वर्षों से अभिनेताओं की कई पीढ़ियों ने जाने-अनजाने देव आनंद से प्रेरणा ली है, उनकी अभिनय प्रतिभा को सिरे से नकारने वालों की भी कभी कोई कमी नहीं रही है। एक बार एक प्रमुख सितारे ने कहा था, हमारे बीच स्टार तो सिर्फ एक है, देव आनंद।
उसकी फिल्में आम तौर पर अच्छा व्यवसाय नहीं कर पातीं, लेकिन वे लगातार फिल्में बनाते रहे। अगर हमारी एक फिल्म फ्लॉरप हो जाती है, तो हमारी पैरों के नीचे की जमीन खिसक जाती है। हम डाँवाडोल हो जाते हैं और असुरक्षा की भावना से हम घिर जाते हैं। सचमुच देव आनंद की स्थितप्रज्ञता का जवाब नहीं।
विविध भारती के एक विज्ञापन में देव आनंद कहते थे, कामयाबियों का जश्न मनाए बिना और नाकामियों पर मातम किए बिना मैं अपने काम में लगा रहता हूँ। देव आनंद की सक्रियता के पीछे उनके आत्मविश्वास का बड़ा रोल था। बहुत आला दर्जे के फिल्मकारों की संगति उन्हें हासिल हुई। बॉम्बे टॉकीज के अशोक कुमार ने दिलीप कुमार की तरह देव आनंद ने भी अपनी प्रतिभा सँवारने और सपनों को साकार करने में सहायता देकर ऐतिहासिक भूमिका का निर्वहन किया। अशोक कुमार, दिलीप कुमार की तरह देव के भी बड़े भैया थे।