देवानंद हमारे बीच होते तो 26 सितंबर 2024 को वे पूरे 101 बरस के हो गए होते। देव आनंद भले ही विदा हो गए हों, लेकिन उनकी परछाइयाँ हमारे इर्द-गिर्द मौजूद हैं। उन्होंने अपनी प्रतिभा तथा लगन के आधार पर अभिनय के नए कीर्तिमान रचे और आने वाली पीढ़ियों को अभिनय का ककहरा सिखाया। देव साहब का फिल्म करियर छह दशक से अधिक लंबा रहा। इतना कालखंड एक इतिहास बनाने के लिए काफी है। आइए, हम देव साहब के जीवन के कुछ अनछुए दिलचस्प पहलुओं को जानें-
आशावादी सिनेमा
देव आनन्द के सिनेमा का सबसे सुखद पहलू यह है कि उनकी फिल्में मनोरंजन और सिर्फ मनोरंजन करती हैं। उनमें गीत हैं, संगीत है, जीवन का उल्लास है और एक आशावादी दृष्टिकोण है। उन्होंने अपनी बॉडी लैंग्वेज/रहन-सहन/चाल-ढाल/पोशाक और हावभाव के जरिये आजाद भारत के नौजवानों को स्मार्ट रहना सिखाया। वे हमेशा युवा वर्ग खासकर युवतियों से सदैव घिरे रहे, इसलिए उन्हें 'सदाबहार' भी कहा जाता है। उन्होंने अपनी फिल्मों में कई नई नवेली नायिकाओं को मौका दिया और बॉलीवुड में स्थापित किया।
जो भी प्यार से मिला
देव आनन्द ने फैशन के अनेक नए प्रतिमान कायम किए। वैसे वे धोती-कुरता पहनकर प्रभात फिल्म कंपनी की फिल्म हम एक हैं से परदे पर प्रकट हुए थे, लेकिन जल्दी ही उन्होंने विलायती तानाबाना धारण कर लिया। सिर पर कई आकार-प्रकार के हेट। गले में स्कार्फ। बालों में गुब्बारे। शर्ट की सबसे ऊपरी बटन हमेशा बंद। हाथ में हंटर/कंधे झुकाकर और लंबे हाथों द्वारा खुले आसमान के नीचे हरी-भरी घाटियों तथा सड़कों पर अपनी नायिका के पीछे-पीछे गीत गाते देव आनन्द युवा वर्ग को लुभाते रहे। हम हैं राही प्यार के, हम से कुछ न बोलिए। जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए। या फिर आँचल में क्या जी, रुपहला बादल। बादल में क्या जी, अजब-सी हलचल। जैसे मदमस्त करने वाले गीतों के बीच देव साहब की चुहलबाजी दर्शकों के आकर्षण का केंद्र रही।
हर फिक्र को धुएँ में उड़ाते चले गए
देव आनन्द के सदाबहार रहने और अंतिम समय तक सक्रिय रहने के अनेक राज हैं। मसलन उन्होंने सिगरेट उतनी ही पी, जितनी अभिनय के लिए जरूरी थी। शराब को दवा की तरह पिया। सिर्फ एक जाम और वह भी पार्टियों में मेहमानों की शान रखने के लिए। देव साहब दादा मुनि यानी अशोक कुमार के शिष्य रहे हैं, इसलिए स्वास्थ्य के प्रति सदैव सजग रहे। उन्होंने फिल्मों से जो पैसा कमाया, उसे फिल्मों में ही लगाया। अपने बैनर नवकेतन के तले अपने बड़े भाई चेतन आनन्द के निर्देशन में उन्होंने यादगार फिल्मों का निर्माण किया। जब चेतन ने अपना प्रोडक्शन हाउस अलग कायम किया तो छोटे भाई विजय आनन्द को साथ लेकर तेरे घर के सामने तथा गाइड जैसी कालजयी फिल्में दर्शकों को उपहार में दी। आर.के. नारायण के उपन्यास पर बनी गाइड ने अपने समय में देश में एक नई बहस को जन्म दिया था। आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है।
एंटी हीरो की लोकप्रिय इमेज
हिन्दी सिनेमा में पहली बार एंटी हीरो के रूप में आए अशोक कुमार, बॉम्बे टॉकीज की फिल्म किस्मत (1943) में। यह फिल्म कलकत्ता के रॉक्सी सिनेमा में 3 साल 11 महीने और 24 दिन चली थी। इसमें कवि प्रदीप का गाना उन दिनों आजादी का तराना बन गया था- दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है। देव आनन्द ने अपने अँगरेजियत भरे तौर-तरीकों से दर्शकों को लुभाया। उनकी अधिकांश फिल्मों की थीम अपराध आधारित होती थीं। 1958 में बनी कालापानी में अभिनय का सर्वोत्तम फिल्म फेयर अवार्ड मिला। 1966 में गाइड ने दूसरी बार यह इनाम उन्हें दिलाया। ज्वेलथीफ/ जॉनी मेरा नाम/ हरे रामा हरे कृष्णा फिल्मों का दौर देव साहब के जीवन का स्वर्णिम काल माना जाता है। विविध भारती के एक इंटरव्यू में देव आनन्द ने कहा था- कामयाबियों का जश्न और नाकामयाबी का मातम मनाए बिना मैं अपना काम लगातार किए जा रहा हूँ। इसके पीछे उनकी सक्रियता और आत्मविश्वास है।
जाएँ तो जाएँ कहाँ!
26 सितम्बर 1923 को पंजाब के गुरदासपुर कस्बे में जन्मे देव आनन्द के पिता पिशोरीमल नामी वकील थे। वे कांग्रेस के कार्यकर्ता थे और आजादी की लड़ाई में कई बार जेल भी गए थे। देव साहब अपने माता-पिता की पाँचवीं संतान थे। 1940 में माता के निधन के बाद नौ भाई-बहनों को अपनी देखभाल खुद करनी पड़ी। बचपन कठिनाइयों में गुजरा। रद्दी की दुकान से बाबूराव पटेल द्वारा सम्पादित फिल्म इंडिया के पुराने अंक पढ़कर देव साहब ने फिल्मों में दिलचस्पी लेना शुरू किया। कई बार दोस्तों की जुगाड़ से फिल्म भी देख लिया करते थे। फिल्म बंधन के सिलसिले में अशोक कुमार गुरदासपुर आए, तो भीड़ में घिरे दादा मुनि को एकटक निहारते रहे। अशोककुमार के प्रति लोगों का भक्तिभाव देखकर देव आनंद ने मन में सोचा कि बी.ए. करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए विदेश नहीं जा सका तो वे अभिनेता बनना पसंद करेंगे। पिता के मुंबई जाकर काम न करने की सलाह के विपरीत देव अपने भाई चेतन के साथ फ्रंटियर मेल से 1943 में बंबई पहुँचे। उस समय उनकी जेब में तीस रुपए थे। ये तीस रुपए रंग लाए और जाएँ तो जाएँ कहाँ वाले देव आनन्द को फिल्मी दुनिया में आशियाना मिल गया।
धोबी की दिलचस्प भूल!
प्रभात फिल्म कंपनी (पुणे) में काम करते समय अपने धोबी की गलती से देव आनन्द की मुलाकात ऐसे व्यक्ति से हुई, जो आगे चलकर उनका हमदम दोस्त बना। वह व्यक्ति थे गुरुदत्त, जिन्होंने प्यासा/कागज के फूल और साहब, बीबी और गुलाब जैसी क्लासिक फिल्में बनाकर दुनिया में नाम कमाया। गुरुदत्त कर्नाटक से शांति निकेतन वाया उदयशंकर के अल्मोड़ा स्थित बैले ग्रुप से कोरियोग्राफी सीखकर प्रभात में आए थे। एक बार धोबी ने दोनों के शर्ट की रांग डिलेवरी दे दी। अपने-अपने शर्ट लेकर धोबी की दुकान पर संयोग से एक साथ पहुँचे। धोबी की गलती ने उन्हें जिंदगीभर का दोस्त बना दिया। दोनों ने एक-दूसरे से वादा किया कि जो कोई पहले निर्माता-निर्देशक बनेगा, वह दूसरे को फिल्म में ब्रेक देगा। 1951-52 में देव ने अपने बैनर नवकेतन के जरिए बाजी और जाल फिल्म का निर्देशन गुरुदत्त से कराया। इसी प्रकार गुरुदत्त ने फिल्म सीआईडी में देव को शकीला के साथ पेश किया।
चुप-चुप खड़े हो जरूर कोई बात है
हर हीरो का किसी न किसी हीरोइन से रोमांस का चक्कर चलना फिल्मी दुनिया की आम बात है। 1948 में बनी विद्या फिल्म की नायिका सुरैया थी। इसके सेट पर ही दोनों में प्यार हो गया। 1951 तक दोनों ने सात फिल्मों में साथ काम किया। दोनों के प्यार के चर्चे नरगिस-राजकपूर या दिलीपकुमार-मधुबाला के चर्चों की तरह हर किसी की जुबान पर थे। सुरैया की नानी कट्टर मुस्लिम थी। 1947 के भारत विभाजन से हिन्दू-मुसलमान के बीच दरारें बढ़ गई थीं। यदि सुरैया की शादी देव से हुई होती तो दंगे तक भड़कने का अंदेशा था। इसलिए सुरैया ताउम्र कुँवारी रही और उन्होंने देव के अलावा और किसी के सपने नहीं देखे, जबकि पाकिस्तान से एक दूल्हा बैंडबाजे के साथ बारात लेकर उनके दरवाजे तक आ गया था। देव ने अपने टूटे प्यार का इजहार कई बार किया था। बाद में टैक्सी ड्राइवर की हीरोइन मोना याने कल्पना कार्तिक से फिल्म के सेट पर सिर्फ दस मिनट में शादी हो गई। सेट पर उपस्थित उनके भाई चेतन आनन्द तक को इस शादी की भनक तक नहीं थी।
गाता रहे मेरा दिल
आजादी के बाद फिल्मों में टीम वर्क का सिलसिला राजकपूर ने शुरू किया। उन्होंने लता-मुकेश/शैलेन्द्र-हसरत/शंकर-जयकिशन/ की जोड़ी को अपनी टीम में शामिल किया। दूसरी ओर नौशाद-शकील साथ रहे। साहिर-एसडी बर्मन की जुगलबंदी लंबी चली। देव आनन्द ने गुरुदत्त/गीता बाली/किशोर कुमार/एसडी बर्मन/ साहिर को अपनी टीम का हमसफर बनाया। नौशाद तथा शंकर जयकिशन के सामने यदि किसी संगीतकार को सफलता और लोकप्रियता मिली तो वे थे दादा बर्मन। ये तमाम साथी कलाकार मिलकर देवआनन्द को लार्जर देन लाइफ बनाते हैं।
चलते चलो, चलते चलो
ये देव आनंद के जीवन का फलसफा है। उनके करियर के कुछ खट्टे-मीठे-चरपरे संस्मरण :
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राजकपूर जैसे दोस्त के साथ देव साब ने एक भी फिल्म में काम नहीं किया।
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दिलीपकुमार के साथ वे सिर्फ इंसानियत फिल्म में आए थे।
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किशोर कुमार की आवाज उधार लेकर देव ने अपनी शिखर यात्रा तय की।
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फिल्म आनन्द और आनन्द में देव ने अपने बेटे सुनील को लाँच किया, मगर वे सफल नहीं हुए।
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देव आनन्द कभी पार्टी नहीं देते और दूसरों की पार्टी में भी यदाकदा ही जाते थे।
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देव आनंद ने कई लड़कियों को बतौर हीरोइन अपनी फिल्मों में मौका दिया था।