गुरुवार, 13 नवंबर 2025
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Last Modified: शुक्रवार, 8 अगस्त 2025 (21:31 IST)

ग़ाज़ा: निराशा के मलबे में, उम्मीद तलाश करने की एक पत्रकार की आपबीती

Bad situation in Gaza
Bad situation in Gaza: ग़ाज़ा में जारी युद्ध के घातक हालात में, हर दिन अपने परिवार को सुरक्षित रखने और जीवित रहने की जद्दोजहद के बीच रिपोर्टिंग करना अन्तहीन सा महसूस होता है। वहाँ मौजूद संयुक्त राष्ट्र समाचार संवाददाता, युद्ध से उत्पन्न हुए डर और अफ़रा-तफ़री की लगातार रिपोर्टिंग करके अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने की कोशिश कर रहे हैं।
 
ग़ाज़ा में जारी युद्ध के घातक हालात में, हर दिन अपने परिवार को सुरक्षित रखने और जीवित रहने की जद्दोजहद के बीच रिपोर्टिंग करना अन्तहीन सा महसूस होता है। वहाँ मौजूद संयुक्त राष्ट्र समाचार संवाददाता, युद्ध से उत्पन्न हुए डर और अफ़रा-तफ़री की लगातार रिपोर्टिंग करके अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने की कोशिश कर रहे हैं।
 
इसराइल पर हुए हमलों को 21 महीने बीत चुके हैं युद्ध की शुरुआत से लेकर अब तक 60 हज़ार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और ग़ाज़ा का बड़ा हिस्सा तबाह हो चुका है। मगर, धरातल पर मौजूद यूएन संवाददाता के मुताबिक़, "ग़ाज़ा में रहने वालों को इस युद्ध का मतलब समझाने के लिए लम्बी-चौड़ी बातों की ज़रूरत नहीं है। 
 
यूएन संवाददाता, सुरक्षा कारणों से अपनी पहचान नहीं बताना चाहते है उनके अनुसार, ज़िन्दगी को किसी तरह आगे बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प है। वह कहते हैं: कुछ मिनटों तक बस कान लगाकर सुनना ही काफ़ी है, ऊपर आसमान में लगातार उड़ते लड़ाकू विमानों की गूँज और फिर बमबारी की आवाज़ें, जो सब कुछ शान्त कर देती हैं… सिवाय उस डर के, जो दिखाई तो नहीं देता, लेकिन हमारे तिरपालों के बीच की हर ख़ाली जगह में भर जाता है और हमारे शरीर के भीतर तक उतर जाता है
 
एक स्कूल में आश्रय स्थल पर हुए हमले में एक बच्चे की जान बचाई गई। रात में चारों तरफ़ घना अंधेरा होता है, बस बमबारी की चमक ही रौशनी देती है। हम इस सोच के साथ सोते हैं कि सुबह जीवित उठ भी पाएंगे या नहीं। ग़ाज़ा में, हर सुबह जीने की एक नई कोशिश होती है और हर शाम जीवित बचने की एक परीक्षा होती है यही हमारी क्रूर सच्चाई है।
 
मैं उन 20 लाख से अधिक फ़लस्तीनियों में से एक हूँ, जो जबरन विस्थापन का बोझ झेल रहे हैं मैं युद्ध और मायूसी की कहानियाँ दर्ज करता हूँ और साथ ही उनकी पूरी कड़वाहट खु़द भी महसूस करता हूँ। जब नवम्बर 2023 में, हमारा घर तबाह हो गया, तब से हमारा तिरपाल ही हमारी सुरक्षा बन गया है मेरा परिवार, जो कभी मेरी निजी दुनिया का हिस्सा था, अब उन कहानियों का हिस्सा बन चुका है…जिन्हें, मैं दुनिया तक पहुँचाता हूँ।
यहाँ की ज़िन्दगी बेहद सीधी, लेकिन बेहद त्रासद है। सख़्त ज़मीन पर सोना, लकड़ियाँ जलाकर पर भोजन पकाना और रोटी के एक-एक टुकड़े के लिए थकाऊ संघर्ष…अब ये सब सिर्फ़ विकल्प नहीं, बल्कि युद्ध की निर्दयता से जबरन थोपी गई ज़िन्दगी का हिस्सा है। मैं अपने सबसे बड़े बेटे के चेहरे पर युद्ध की छाया देखता हूँ, जो अभी 14 साल का भी नहीं हुआ है, युद्ध ने उसका बचपन छीन लिया और उस पर उसकी उम्र के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बोझ डाल दिया है।
 
वह अब पानी लाने के रास्तों का जानकार हो गया है, रोटी के लिए मोलभाव करता है और पानी के भारी गैलन उठाता है। उसकी हिम्मत पर मुझे बेहद गर्व है, लेकिन साथ ही एक गहरी बेबसी भी महसूस होती है, क्योंकि मैं उसे उस तबाही से नहीं बचा पा रहा हूँ जो हमारे चारों तरफ़ फैली है।
 
उम्मीद का एक मरूद्वीप : मेरी पत्नी हमारे बच्चों के लिए उम्मीद का एक छोटा-सा मरूद्वीप बनाने की कोशिश कर रही है। मेरी दो बड़ी बेटियाँ अब भी ऑनलाइन पढ़ाई करती रहती हैं जब कभी-कभी इंटरनैट चल जाता है, तो जो भी किताबें उपलब्ध हैं, उन्हें पढ़ने की कोशिश करती हैं।
 
मेरी सबसे छोटी बेटी घिसे हुए गत्ते के टुकड़ों पर चित्र बनाती है, जबकि मेरा सबसे छोटा बेटा, जो अभी चार साल का है, उसे बम धमाकों की आवाज़ के अलावा कुछ और याद ही नहीं। उसके मासूम सवालों के सामने हम बिल्कुल असहाय खड़े होते हैं। यहाँ न तो स्कूल हैं, न पढ़ाई… इस निर्मम हकीक़त के बीच, सिर्फ़ एक कोशिश है, किसी तरह उनके भीतर बचपन की मासूम रौशनी को जीवित रखने की।
 
ग़ाज़ा में 6 लाख 25 हज़ार से ज़्यादा बच्चे, शिक्षा से वंचित हो गए हैं। इसकी वजह स्कूलों का तबाह हो जाना और सुरक्षित शैक्षणिक माहौल का पूरी तरह नष्ट हो जाना है। एक पूरी पीढ़ी का भविष्य ख़तरे में है।
 
सबकुछ अपनी आँखों से देखना : मैं अन्य पत्रकारों के साथ काम करता हूँ। हम अस्पतालों, सड़कों और राहत शिविरों के बीच भटकते रहते हैं। हम अपने पत्रकारिता के उपकरण, सिर्फ़ घटनाओं को दर्ज करने के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों की आवाज़ बनने के लिए उठाते हैं, जिनकी आवाज़ें इस युद्ध ने ख़ामोश कर दी हैं।
 
हम एक ऐसे बच्चे को कैमरे में दर्ज करते हैं, जो कुपोषण से बुरी तरह पीड़ित है, उस व्यक्ति की कहानी सुनते हैं जिसका सब कुछ खो गया है, और उस महिला की आँखों में आँसू देखते हैं जो अपने बच्चों को खाना तक नहीं दे पा रही है।
 
हम एक ऐसा दृश्य दर्ज करते हैं, जो हर दिन दोहराया जाता है: हज़ारों लोग, आटे के ट्रक तक पहुँचने की होड़ में दौड़ पड़ते हैं। वे ट्रकों के पीछे भागते हैं और ज़मीन पर गिरे आटे के आखिरी कणों तक को समेटते हैं। उन्हें ख़तरे की परवाह नहीं, क्योंकि रोटी के एक टुकड़े तक पहुँच पाने की उम्मीद, अब ज़िन्दगी से भी ज़्यादा क़ीमती हो गई है।
 
हम सड़कों पर चलते हैं, हर आवाज़ के प्रति सतर्क, जैसे हर मोड़ पर मौत का इन्तेज़ार कर रहे हों। अब न किसी आश्चर्य के लिए वक़्त है, न दुख के लिए… यहाँ केवल लगातार तनाव और बेचैनी है, जो अब यहाँ बचे लोगों के शरीर और आत्मा का हिस्सा बन चुकी है। यह वही सच्चाई है जिसे कैमरे नहीं दिखा पाते, लेकिन जिसे हम हर दिन दुनिया को समझाने की कोशिश करते हैं।
 
यूएन सहयोगियों का दर्द : हम संयुक्त राष्ट्र और उसकी विभिन्न एजेंसियों के राहत प्रयासों को दर्ज करते हैं। मैं देखता हूँ कि कर्मचारी, अपने वाहनों में ही सोते है ताकि सीमाओं के पास रह सके, और मैं अपने ग़ाज़ावासियों की कहानियाँ सुनते वक़्त यूएन के हमारे सहयोगियों को रोते हुए भी देखता हूँ।
 
मदद नाकाफ़ी है। सीमाएँ अचानक खुलती और बन्द हो जाती हैं, और कई इलाक़ों तक कई दिनों तक कोई सहायता नहीं पहुँचती है। ग़ाज़ा सिटी के पश्चिमी हिस्सों में भीड़ बहुत ज़्यादा है। हर मोड़ पर, पगडंडियों पर और बमबारी में तबाह हुए घरों के मलबे के बीच… हर जगह तिरपाल लगे हुए हैं, और हालात बेहद भयावह हैं।
 
सूने पड़े बाज़ार : स्थानीय मुद्रा की क़ीमत पूरी तरह ख़त्म हो चुकी है। जिनके बैंक खातों में कुछ धन बचा भी है, वे उसे निकालने के लिए 50 प्रतिशत तक शुल्क दे रहे हैं। लेकिन फिर भी बाज़ार लगभग ख़ाली मिलते हैं. जो भी चीज़ें उपलब्ध हैं, वे बेहद ऊँचे दामों पर बिक रही हैं। सब्ज़ियाँ मुश्किल से मिलती हैं, और जब मिलती हैं तो एक किलो सब्ज़ी की क़ीमत 30 डॉलर से ज़्यादा होती है। फल और माँस अब सिर्फ़ याद बन चुके हैं।
 
ग़ाज़ा की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से ढह चुकी है, जहाँ 85 प्रतिशत अस्पताल अब काम नहीं कर रहे और डायलिसिस व कीमोथेरेपी जैसी सेवाएँ लगभग बन्द हो चुकी हैं। दीर्घकालिक बीमारियों की दवाएँ उपलब्ध नहीं हैं। मैं अपने माता-पिता के लिए दवाइयाँ नहीं जुटा पा रहा हूँ, जिन्हें मधुमेह और उच्च रक्तचाप है। और, मेरे भाई के घायल हाथ को बचाने के लिए जो सर्जरी ज़रूरी है… उसकी कोई उम्मीद नहीं बची है। वह हवाई हमले में घायल हुआ था।
 
हर चीज़ का दर्शक : कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं दो पहचानों के बीच फँसा हुआ हूँ, एक पत्रकार जो इस पीड़ा को दर्ज कर रहा है, और एक इनसान जो इसे खुद़ झेल रहा है। शायद, हमारी पत्रकारिता की यही असली ताक़त है, ग़ाज़ा पट्टी के बीचो-बीच से, दुनिया को सच्चाई बताने की कोशिश करना… उस त्रासदी के दिल से एक आवाज़ बनकर, जो हर दिन यहाँ घट रही है।
 
ग़ाज़ा में हर दिन एक नया सवाल लेकर आता है:
क्या हम जीवित बचेंगे?
क्या हमारे बच्चे पानी की तलाश से सही-सलामत लौटेंगे?
क्या यह युद्ध कभी ख़त्म होगा?
क्या सीमाएँ खुलेंगी ताकि मदद पहुँच सके?
यहीं से हम आगे बढ़ते रहेंगे, क्योंकि जो कहानियाँ कही नहीं जातीं, वे मर जाती हैं। 
 
और ग़ाज़ा में हर बच्चे, हर महिला, हर पुरुष की आवाज़ सुने जाने की हक़दार है। 
मैं एक पत्रकार हूँ।
मैं एक पिता हूँ।
मैं बेघर हूँ।
और मैं, हर चीज़ का गवाह हूँ।
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