सिख धर्म के 10वें गुरु गुरु गोविंद सिंह ने धर्म की रक्षा के लिए जो कार्य किया उसे कोई भी नहीं भूला सकता है। गुरु गोविंद सिंह जी ने इसके अलाव सिख धर्म को एक स्थापित संगत बनाया और संपूर्ण देश में गुरुओं के परंपरा को आगे बढ़ाया।
गुरु गोविंदसिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करना पड़े। गुरुजी के परदादा गुरु अर्जुनदेव की शहादत, दादागुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेगबहादुर की शहीदी, दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना, आतंकी शक्तियों द्वारा दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना, वीरता व बलिदान की विलक्षण मिसालें हैं। गुरु गोविंदसिंह इस सारे घटनाक्रम में भी अडिग रहकर संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है।
गुरु गोविंद सिंहजी ने ही पंज प्यारे की परंपरा की शुरुआत की थी। इसके पीछे एक बहुत ही मार्मिक कहानी है। गुरु गोविंद सिंह के समय मुगल बादशाह औरंगजेब का आतंक जारी था। उस दौर में देश और धर्म की रक्षार्थ सभी को संगठित किया जा रहा था। हजारों लोगों में से सर्वप्रथ पांच लोग अपना शीश देने के लिए सामने आए और फिर उसके बाद सभी लोग अपना शीश देने के लिए तैयार हो गए। जो पांच लोग सबसे पहले सामने आए उन्हें पंज प्यारे कहा गया।
पंच प्यारे के समर्पण को देखते हुए गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा, आज से ये पांचों मेरे पंच प्यारे हैं। इनकी निष्ठा और समर्पण से खालसा पंथ का आज जन्म हुआ है। आज से यही तुम्हारे लिए शक्ति का संवाहक बनेंगे। यही ध्यान, धर्म, हिम्मत, मोक्ष और साहिब का प्रतीक भी बने। पंज प्यारे के चयन के बाद गुरुजी ने धर्मरक्षार्थ खालसा पंथ की स्थापना की थी।
इन पंच प्यारों को गुरुजी ने अमृत (अमृत यानि पवित्र जल जो सिख धर्म धारण करने के लिए लिया जाता है) चखाया। इसके बाद इसे बाकी सभी लोगों को भी पिलाया गया। इस सभा में हर जाती और संप्रदाय के लोग मौजूद थे। सभी ने अमृत चखा और खालसा पंथ के सदस्य बन गए। खालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। बाबा बुड्ढ़ा ने गुरु हरगोविंद को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई थीं।
तख्त श्री हजूर साहिब नांदेड़ में गुरुग्रंथ को बनाया था गुरु। महाराष्ट्र के दक्षिण भाग में तेलंगाना की सीमा से लगे प्राचीन नगर नांदेड़ में तख्त श्री हजूर साहिब गोदावरी नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है। इस तख्त सचखंड साहिब भी कहते हैं। इसी स्थान पर गुरू गोविंद सिंह जी ने आदि ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी बख्शी और सन् 1708 में आप यहां पर ज्योति ज्योत में समाए। सन 1832 से 1837 तक पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के आदेश पर यहां गुरुद्वारे का निर्माण कार्य चला। यह सिक्खों का चौथा तख्त है। ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी बख्शी का अर्थ है कि अब गुरुग्रंथ साहिब भी अब से आपके गुरु हैं।
यहीं गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा था:-
आगिआ भई अकाल की तवी चलाओ पंथ..
सब सिखन को हुकम है गुरु मानियो ग्रंथ..
गुरु ग्रंथ जी मानियो प्रगट गुरां की देह..
जो प्रभ को मिलबो चहै खोज शब्द में लेह..
कहते हैं कि राम जन्मभूमि की रक्षा के लिए यहां गुरु गोविंद सिंह जी ने अपनी निहंग सेना को अयोध्या भेजा था जहां उनका मुकाबला मुगलों की शाही सेना से हुआ। दोनों में भीषण युद्ध हुआ था जिसमें मुगलों की सेना को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था। उस वक्त दिल्ली और आगरा पर औरंगजेब का शासन था।