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Last Modified: शुक्रवार, 25 सितम्बर 2020 (23:05 IST)

Shri Krishna 25 Sept Episode 146 : कौरव-पांडवों की सेना चली कुरुक्षेत्र की ओर, वेद व्यास का अंतिम प्रयास

Shri Krishna 25 Sept Episode 146 : कौरव-पांडवों की सेना चली कुरुक्षेत्र की ओर, वेद व्यास का अंतिम प्रयास - Shri Krishna on DD National Episode 146
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 25 सितंबर के 146वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 146 ) में दुर्योधन को मिल जाती है श्रीकृष्‍ण की नारायणी सेना और अर्जुन को मिलते हैं श्रीकृष्ण। फिर भीष्म पितामह दुर्योधन से कहते हैं कि मैं पांडवों का वध नहीं करूंगा परंतु उनका बल क्षीण कर दूंगा। मैं प्रतिदिन उनके 10 हजार सैनिकों का वध करूंगा और उनके वीरों और महावीरों का वध करके उन्हें शक्तिहीन बना दूंगा। बाद में कर्ण युद्ध में सेनापति बनने की बात करता है तो शकुनि कहता है कि तुम योग्य हो परंतु तुम सूत पुत्र हो। यह सुनकर कर्ण भड़क जाता है और कहता है कि मैं सूत पुत्र नहीं हूं। यह सुनकर दुर्योधन कहता है कि फिर तुम कौन हो? फिर कर्ण अर्जुन से अपने मुकाबले की बात बताता और बताता है कि तुमने किस तरह मुझे अंगदेश का राजा बनाया था।
 
 
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फिर कर्ण बताता है कि मैं अधीरथ और राधा का पुत्र नहीं हूं क्योंकि उन्होंने तो मुझे नदी के किनारे एक सुपड़े में बहता हुआ पाया था। उन्होंने तो मुझे पाला है। मेरे बाबा ने तो मुझे सच बता दिया था परंतु उस सच के बार कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, बस एक शून्य था। उस शून्य के बाद मैं खोया खोया रहता था। एक ओर मैं ये जानता चाहता था कि कौन मेरे माता-पिता है जिन्होंने जन्म होते ही मुझे नदी में बहा दिया और क्यूं। ये जानने के लिए मैं रात दिन महीनों घाटियों में घुमता रहा और चिल्लाता रहा कि कोई तो बताए कि कहां है मेरी माता, कहां है मेरा पिता.. कहां है। भगवान के लिए कोई तो बताए कि क्यूं मेरा त्याग किया गया। क्यूं मेरे साथ छल किया गया है।..... 
 
तब भगवान सूर्य प्रकट होकर बताते हैं कि मैं तुम्हारा पिता हूं। यह सुनकर कर्ण आश्चर्य करता है और फिर प्रणाम करता है तो सूर्य देव उन्हें आशीर्वाद देते हैं। फिर कर्ण पूछता है कि मेरा जन्म होते ही आपने मुझे नदी में बहा दिया क्यूं? तब सूर्यदेव कहते हैं कि मैंने तुम्हें नदी में नहीं तुम्हारी माता ने बहाया था क्योंकि वो विवश थी। तब कर्ण पूछता है कि कृपा करके बताएं कि कौन हैं मेरी माता? तब सूर्य देव कहते हैं कि मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता क्योंकि पुरुष का धर्म है स्त्री की लाज रखना। तब कर्ण कहता है कि जिसने अपने नवजात पुत्र को नदी में फेंक दिया ऐसी निर्दयी मां से आपको सहानुभूति है, अपने पुत्र से नहीं।
 
इस पर सूर्यदेव कहते हैं कि नदी में फेंका नहीं बल्ली एक नर्म रेशमी वस्त्रों में लपेटकर एक टोकरी में रखकर नदी में बहा दिया था। अपनी माता पर क्रोध करने से पहले ये तो सोचो की अपने पुत्र को विदा करते समय उसके हृदय ने कितना चित्कार किया होगा। अंत में सूर्यदेव कर्ण को कवच और कुंडल प्रदान करते हैं। फिर सूर्यदेव कहते हैं कि तुम्हारी माताजी इस वक्त धरती पर विद्यमान हैं। यह गाधा सुनाकर कर्ण दुर्योधन और शकुनि से कहता है कि अब तो आप दोनों को विश्वास हो गया होगा कि मैं सूत पुत्र नहीं सूर्य पुत्र हूं। 
 
यह बात दुर्योधन और शकुनि दोनों ही भीष्म के पास जाकर बताते हैं कि वह सूत पुत्र नहीं सूर्य पुत्र है। तब भीष्म पितामह कहते हैं कि तुम्हारा मित्र कर्ण तुम्हें बहकाता रहता है। मैं नहीं मानता कि वह सूर्य पुत्र है। दुर्योधन यदि तुम्हें मेरी क्षमताओं पर विश्वास नहीं है तो तुम कर्ण को सेनापति बना सकते हो, परंतु मैं उसके नेतृत्व में युद्ध नहीं करूंगा। बाद में यह सुनकर कर्ण भी प्रतिज्ञा लेता है कि जब तक पितामह युद्ध में सेनापति बने रहेंगे तब तक मैं उनके नेतृत्व में युद्ध नहीं करूंगा। यदि वो गंगा पुत्र हैं तो मैं भी सूर्य पुत्र हूं।
 
फिर धृतराष्ट्र की सभा में भीष्म पितामह को कौरवों का सेनापति बना दिया जाता है। उधर पांडवों ने श्रीकृष्‍ण की आज्ञानुसार द्रोपदी के भाई धृष्टदुम्न को पांडवों का सेनापति बना दिया। धृष्टदुम्न को सेनापति बनाने के निर्णय से महाराज द्रुपद बहुत प्रसन्न हुए। 
 
उधर, भीष्म पितामह दुखी और चिंताग्रस्त हो गए थे कि अब क्या करें और क्या ना करें। इस धर्मसंकट और दुविधा से निकलने के लिए वे अपनी माता गंगा के पास गए। तब माता गंगा कहती है कि मनुष्य को ममता की छांव में शांति ना मिले तो फिर उसे भगवान की शरण में जाना चाहिए। इसलिए वत्स तुम भगवान श्रीकृष्ण का सच्चे मन से स्मरण करके उनकी शरण में जाओ। वही तुम्हारा मार्ग दर्शन करेंगे। तब भीष्म पितामह श्रीकृष्ण की प्रार्थना करते हैं तो श्रीकृष्‍ण वहां प्रकट होकर कहते हैं जिस प्रकार आपने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए स्वयं अपने गुरु परशुराम से युद्ध किया था उसी प्रकार हस्तिनापुर के राज सिंघासन की रक्षा करना आपका धर्म है, परम कर्तव्य है। अत: आप नि:शंकोच होकर कौरवों की ओर से युद्ध करके अपने धर्म का पालन कीजिये और अपने कर्तव्य को निभाइये। भीष्म पितामह इस उत्तर से संतुष्ट होकर कहते हैं कि मैं अवश्य युद्ध करूंगा।
 
जब युद्ध अनिवार्य हो गया तो दोनों ओर के सेनापतियों ने अपनी-अपनी सेना को कुरुक्षेत्र की ओर बढ़ने का आदेश दिया। फिर दोनों ओर की सेना कुरुक्षेत्र की ओर रवाना हो जाती है। कुरुक्षेत्र में पहुंचकर सभी अपने-अपने शिविर लगा लेते हैं। युद्ध से पूर्व की भयानक तूफानी रात को कौरव और पांडवों के प्रमुख एकत्रित होकर कल आरंभ होने वाले युद्ध की मंत्रणा कर रहे थे, युद्ध नीति तय कर रहे थे। उधर, द्रौपदी यह देख और सुनकर हर्षित हो रही थी। 
 
फिर पितामह भीष्म श्रीकृष्ण के शिविर में उनसे मिलने आते हैं और कहते हैं कि मुझे क्या पता था कि मुझे मेरी प्रतिज्ञा निभाते हुए अधर्म के साथ रहकर धर्म के विरुद्ध युद्ध लड़ना होगा। कई बातें करने के बाद श्रीकृष्ण कहते हैं कि आशा की एक किरण अभी भी बाकी है। आपके ज्येष्ठ भ्राताश्री भगवान वेद व्यासजी ही वो आशा की एक किरण है जो कुरुवंश के उपर छाई विनाश की काली घटाओं के बीच चमक रही है। यदि भगवान वेद व्यासजी महाराज धृतराष्ट्र से जाकर मिलें और उन्हें समझाएं तो हो सकता है कि यह महायुद्ध, यह महाविनाश धम जाए। 
 
फिर वेद व्यासजी धृतराष्ट्र के पास जाकर उन्हें समझाते हैं कि यह युद्ध रोक दो अन्यथा भीषण संहार होगा और कौरव वंश का नाश हो जाएगा। अब भी धर्म का मार्ग अपनाओं, पांडवों का राज्य लौटा दो। तब धृतराष्ट्र कहते हैं- काश में रोक सकता। मेरे पुत्र अब मेरे अधीन नहीं रहे। मैं युद्ध को रोक नहीं सकता। यह सुनकर वेद व्यासजी क्रोधित होकर कहते हैं- तुम्हें इस अपराध के लिए युगों-युगों तक समाज क्षमा नहीं करेगा धृतराष्ट्र। इस पर धृतराष्ट्र कहते हैं- तातश्री आप मुझसे रुष्ठ मत होइये और मेरी एक बिनती सुनिये। मैं देख नहीं सकता परंतु यदि आप अपनी तपस्या के प्रभाव से संजय को युद्ध के संदर्भ में सबकुछ देखने के लिए दिव्य दृष्टि प्रदान करें तो मैं युद्ध की हर घटना का वर्णन सुन तो सकता हूं। तब वेद व्यासजी कहते हैं कि तुम यदि चाहो तो ये दिव्य दृष्टि तुम्हें भी प्रदान कर सकता हूं। परंतु धृतराष्ट्र इसके लिए इनकार कर देते हैं तब वेद व्यासजी संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं। 
 
फिर संजय कहता है- भगवन! मैं सबकुछ देख सकता हूं। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं स्वयं कुरुक्षेत्र में खड़ा हूं। तब धृतराष्ट्र पूछते हैं- संजय क्या तुम मुझे बता सकते हो कि मेरा प्रिय पुत्र दुर्योधन कहां है? यह सुनकर वेद व्यासजी कहते हैं- धृतराष्ट्र मेरे इतना समझाने पर भी तुमने पुत्र मोह का त्याग नहीं किया। अब भी समय है धृतराष्ट्र, अब भी समय है। जो अनर्थ होने वाला है उसका स्मरण करो। इस कुल के ज्येष्ठ होने के नाते मैंने तुम्हें सत्यता का ज्ञान करा दिया। मेरे कर्तव्य की सीमा यहीं तक थी। अब मैं वापस जाना चाहूंगा। फिर वेद व्यासजी वहां से चले जाते हैं। जय श्रीकृष्णा। 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
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