5 प्रकार के यज्ञ करने से मिलती है पापों से मुक्ति
Five types of Yagya: वेदों में पांच प्रकार के यज्ञ बताए गए हैं- 1. ब्रह्म यज्ञ, 2. देव यज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ। इन्हीं यज्ञों का पुराणों में विस्तार हुआ है। इन्हीं में से एक है वैश्वदेव यज्ञ। इसके भी 5 प्रकार है। इन्हें अपनाकर हम अपने पापों से मुक्ति हो सकते हैं। इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और अग्निचयन का वर्णन यजुर्वेद में मिलता है यह सभी देवयज्ञ के ही प्रकार हैं।
वैश्वदेवयज्ञ : इसे भूत यज्ञ भी कहते हैं। पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति कारुणा और कर्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को देवे। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं।
श्रीमद्भागवत जी के षष्टम स्कन्ध में शुकदेव जी ने महाराज परीक्षित को अनजाने में हुए पाप से मुक्ति का उपाय बताया है। परीक्षित पूछते हैं कि अनजाने में जैसे चींटी मर गई, भोजन बनाते समय लकड़ी जलाते हैं, उस लकड़ी में भी कितने जीव मर जाते हैं। ऐसे कई पाप हैं जो अनजाने हो जाते हैं तो उस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है? इस पर आचार्य शुकदेव जी ने कहा राजन ऐसे पाप से मुक्ति के लिए रोज प्रतिदिन 5 प्रकार के यज्ञ करने चाहिए।
परीक्षित ने कहा, भगवन एक यज्ञ यदि कभी करना पड़ता है तो सोचना पड़ता है और आप 5 यज्ञ रोज कह रहे हैं! इस पर शुकदेव बोले- सुने राजन! यह ऐसे बड़े यज्ञ नहीं हैं।
पहला यज्ञ- भोजन बनाकर सबसे पहले अग्नि को देना चाहिए। यानी रोटी बनाकर उसके टुकड़े करके उसमें घी-चीनी मिलाकर अग्नि को भोग लगाना चाहिए जिसे अग्निहोत्र कर्म कहते हैं।
दूसरा यज्ञ- जब घर में रोटी बने तो पहली रोटी गऊ ग्रास के लिए निकाल देना चाहिए।
तीसरा यज्ञ- चींटी को 10 ग्राम आटा रोज वृक्षों की जड़ों के पास डालना चाहिए।
चौथा यज्ञ- पक्षियों को रोज अन्न का दाना डालना चाहिए।
पांचवां यज्ञ- आटे की गोली बनाकर रोज जलाशय में मछलियों को डालना चाहिए।
इसके अलावा राजन अतिथि आवे तो सबसे पहले उसे खिलाना चाहिए। कोई भिखारी द्वार पर हो तो उसे जूठा अन्न कभी भी भिक्षा में न दें। इन नियमों का पालन करने से अनजाने में किए हुए पाप से मुक्ति मिल जाती है। हमें उसका दोष नहीं लगता और उन पापों का फल हमें नहीं भोगना पड़ता।