एक बार नारदजी वैकुण्ठ आए, तो उन्होंने देखा कि महाविष्णु चित्र बनाने में मग्न हैं और आसपास शिव, ब्रह्मा इत्यादि अगणित देवता विष्णु का कृपाकटाक्ष पाने के लिए लालायित खड़े हैं।
किन्तु विष्णु को उनकी ओर देखने का अवकाश नहीं। चित्रलीन विष्णु ने नारद को भी नहीं देखा। विष्णु का यह व्यवहार नारद को बड़ा अपमानजनक प्रतीत हुआ। वे आवेश में विष्णु के समीप गए और पास ही खड़ी लक्ष्मी जी से उन्होंने पूछा,
"आज इतनी तन्मयता के साथ भगवान् किसका चित्र बना रहे हैं ?"
लक्ष्मी ने अपने स्वाभाविक भृकुटी-चांचल्य के साथ कहा, "अपने सबसे बड़े भक्त का, आपसे भी बड़े भक्त का !"
दोहरे अपमानित नारदजी ने पास जाकर देखा, तो आश्चर्य से स्तब्ध हो गए। अचल ध्यानावस्थित विष्णु एक मैले-कुचैले अर्धनग्न मनुष्य का चित्र बना रहे थे।
नारदजी का चेहरा क्रोध से तमतमा गया । वे उल्टे पांव भूलोक की ओर चल पड़े। कई दिनों के भ्रमण के बाद उन्हें एक अत्यन्त घिनौनी जगह पर पशु-चर्मों से घिरा एक चर्मकार दिखाई दिया, जो गंदगी और पसीने से लथपथ चमड़ों के ढेर को साफ कर रहा था।
पहली दृष्टि मे ही नारदजी ने पहचान लिया कि विष्णु इसी का चित्र बना रहे थे। दुर्गंध के कारण नारदजी उसके पास न जा सके। अदृश्य होकर वे दूर से ही उसकी दिनचर्या का निरीक्षण करने लगे।
संध्या होने को आयी, किन्तु वह चर्मकार न तो मंदिर में गया और न आँख मूंदकर उसने क्षण भर के लिए हरिस्मरण ही किया। नारदजी के क्रोध की सीमा न रही। एक अधमाधम चर्मकार को श्रेष्ठ बताकर विष्णु ने उनका कितना घोर अपमान किया है ! अंधेरा बढ़ने के साथ-साथ उनके मन की अस्थिरता भी गहरी होने लगी।
आवेशान्ध हो विष्णु को श्राप देने के लिए उन्होंने अपनी तेजस्वी बाहु उपर उठायी थी कि लक्ष्मी ने प्रकट होकर उनका हाथ पकड़ लिया और कहा, "देव ! भक्त की उपासना का उपसंहार तो देख लीजिए; फिर जो करना हो कीजिए।"
उस चर्मकार ने चमड़ों के ढेर को समेटा। सबको एक गठरी में बाँधा। फिर एक मैले कपड़े से सिर से पैर तक शरीर को पोंछा और गठरी के सामने झुककर विनय-विह्वल वाणी में कहने लगा, "प्रभो ! दया करना। कल भी मुझे ऐसी ही सुमति देना कि आज की तरह ही पसीना बहाकर तेरी दी हुई इस चाकरी में सारा दिन गुजार दूँ।" और नारदजी को विश्वास हो गया कि वह चर्मकार विष्णु को क्यों सर्वाधिक प्रिय है !!
अर्थात जो मानव अपनी आजीविका को ही प्रभु की कृपा मानकर तल्लीन होकर काम करे वही उनको प्रिय होता है...