यह है भैरव अष्टमी की प्रामाणिक और पौराणिक कथा
एक बार की बात है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों में श्रेष्ठता की लड़ाई चली। इस बात पर बहस बढ़ गई तो सभी देवताओं को बुलाकर बैठक की गई। सबसे यही पूछा गया कि श्रेष्ठ कौन है। सभी ने अपने अपने विचार व्यक्त किए और उतर खोजा लेकिन उस बात का समर्थन शिवजी और विष्णु ने तो किया परन्तु ब्रह्माजी ने शिवजी को अपशब्द कह दिए। इस बात पर शिवजी को क्रोध आ गया और शिवजी ने अपना अपमान समझा।
शिवजी ने उस क्रोध में अपने रूप से भैरव को जन्म दिया। इस भैरव अवतार का वाहन काला कुत्ता है। इनके एक हाथ में छड़ी है इस अवतार को महाकालेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। इसलिए ही इन्हें दंडाधिपति कहा गया है। शिवजी के इस रूप को देख कर सभी देवता घबरा गए। भैरव ने क्रोध में ब्रह्मा जी के पांच मुखों में से एक मुख को काट दिया। तब से ब्रह्मा के पास चार मुख है। इस प्रकार ब्रह्माजी के सर को काटने के कारण भैरव जी पर ब्रह्महत्या का पाप आ गया। ब्रह्माजी ने भैरव बाबा से माफ़ी मांगी तब जाकर शिवजी अपने असली रूप में आए।
भैरव बाबा को उनके पापों के कारण दंड मिला इसीलिए भैरव को कई दिनों तक भिखारी की तरह रहना पड़ा। इस प्रकार कई वर्षो बाद वाराणसी में इनका दंड समाप्त होता हैं। इसका एक नाम दंडपाणी पड़ा था। इस प्रकार भैरव जयंती को पाप का दंड मिलने वाला दिवस भी माना जाता है।