• Webdunia Deals
  1. समाचार
  2. मुख्य ख़बरें
  3. प्रादेशिक
  4. Epidemics and culture
Written By
Last Updated : शनिवार, 27 जून 2020 (15:51 IST)

लोक संस्कृति पर महामारियों का प्रभाव

लोक संस्कृति पर महामारियों का प्रभाव - Epidemics and culture
(मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद का राष्ट्रीय परिसंवाद सम्पन्न)

आदिवासी लोककला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, भोपाल द्वारा आयोजित छः दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद 21 जून से 26 जून 2020 के बीच सम्पन्न हुआ।

‘महामारियों का लोक संस्कृति पर प्रभाव’ विषय पर केन्द्रित इस राष्ट्रीय परिसंवाद में उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, अरूणाचल, राजस्थान, दिल्ली,गुजरात, केरल, कर्नाटक, उत्तराखंड,हरियाणा, झारखंड,छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र आदि के विद्वानों ने भारतीय संस्कृति और लोक जीवन पर पड़ने वाले महामारी जनित प्रभावों की गंभीर पड़ताल की।

परिसंवाद के पहले दिन लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य- अध्यक्ष डॉ सूर्यप्रसाद दीक्षित ने भारत में महामारियों के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर केन्द्रित व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने चेचक के प्रकोप के संदर्भ में शीतला के उपचार से सम्बन्धित लौकिक उपचारों और अनुष्ठानों की व्यापक चर्चा की। डॉ जमुना बीनी ने ईटानगर (अरूणाचल) की क्षेत्रीय लोक परम्पराओं का परिचय देते हुए वहां के अनुष्ठानों का परिचय दिया। डॉ बी. नंदा जागृत ने राजनादगांव, (छत्तीसगढ) ने कोरोना महामारी के वर्तमान प्रभावों की चर्चा करते हुए लोक जीवन पर उसके प्रभावों को रेखांकित किए।

22 जून को परिसंवाद के दूसरे दिन दमोह, मध्यप्रदेश के वयोवृद्ध विद्वान डॉ श्याम सुन्दर दुबे ने लोक की सामूहिक चेतना पर प्रकाश डालते हुए लोक संस्कृति की शक्ति से परिचित कराया। शिव सागर, आसाम की वक्ता सुश्री कविता कार्मकार ने स्थानीय लोक उत्सवों खास कर बिहू के परिप्रेक्ष्य में अपनी बात रखी। अकोला महाराष्ट्र के वक्ता डॉ श्रीकृष्ण काकडे का वक्तव्य महाराष्ट्र की लोक कलाओं के माध्यम से क्षेत्रीय लोक कलाओं यथा, कड़कड़लक्ष्मी, हरबोले, संपेरों, की आजीविका पर उपस्थित संकटों की ओर ध्यान आकृष्ट किया।

23 जून को परिसंवाद का प्रारम्भ रांची, झारखंड के लोक संस्कृति मर्मज्ञ श्री महादेव टोप्पो के व्याख्यान से हुआ।
उन्होंने आदिवासी परम्पराओं में प्रचलित स्वच्छता संबंधी आचार-विचार रेखांकित किए। उन्होंने लोक संस्कृति में वनस्पतियों के पूजन-उपयोग का महत्त्व भी निरूपित किया। डिगबोई असम के वक्ता डॉ हरेराम पाठक ने लोक संस्कृति के माध्यम से लोक सेवा का संदेश देते हुए क्षेत्रीय रीतियों से अवगत कराया। उन्होंने असम के सांस्कृति जीवन देश-विदेश के विभिन्न क्षेत्रों से आकर बसे विविध जाति समूहों की समन्वयकारी प्रकृति पर विचार व्यक्त किए। कोट्टायम केरल की विदुषी डॉ प्रिया उदयन ने केरल की वनस्पतियों में फैलने वाली महामारियों के आर्थिक दुष्प्रभाव समझाए उन्होंने पशु-पक्षियों और मनुष्यों पर प्रभाव डालने वाली महामारियों से भी परिचित कराया।

24 जून को डॉ सावित्री बड़ाइत ने रांची, झारखंड की क्षेत्रीय लोक संस्कृति पर महामारी के प्रभाव निरूपित करते हुए प्लेग, हैजा, एन्फ्लूएंजा आदि की संकटापन्न स्थितियों से उलन्न संघर्ष में विरसा मुण्डा, विवेकानन्द आदि के सामाजिक अवदान की विस्तृत चर्चा की। डॉ कृष्ण गोपाल मिश्र, होशंगाबाद ने अपने गृह जनपद पीलीभीत और रूहेलखण्ड मण्डल (उत्तर प्रदेश) की लोक संस्कृति पर वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए महामारियों के कारणों और लोक-अनुष्ठानों में देवीरूपों के शास्त्रीय आधारों की विवेचना की।

दिल्ली की वक्ता डॉ विभा ठाकुर ने अपने व्याख्यान में बताया कि कष्ट के समय बालक मां का आश्रय ग्रहण करता है। इसीलिए महामारियों से रक्षा के संदर्भ में देनियों की पूजा-अर्चना हुई हैं। उन्होंने लोक जीवन में  प्राकृतिक शक्तियों की पूजा-संस्कृति पर भी विचार व्यक्त किए।

25 जून को ललित निबंधकार डॉ श्रीराम परिहार ने खण्डवा- निमाड़ की लोक संस्कृति को केन्द्र में रखकर उस पर वर्तमान कोरोना महामारी के दुष्प्रभावों के विवेचन की। उनके भावपूर्ण उद्बोधन में लोक- संस्कारों और क्षेत्रीय संतों के प्रभाव की भी चर्चा हुई। लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ पवन अग्रवाल ने अवध और बुन्देलखंड की सांस्कृतिक रीतियों पर महामारियों के प्रभावों के रेखांकित किया तथा लोकसंस्कृति में स्वीकृत अनुष्ठानों, जादू टोनों, टोटकों का परिचय देते हुए उनके मनोवैज्ञानिक प्रभावों को व्याख्यायित किया।

जोधपुर राजस्थान के विद्वान डॉ महीपाल सिंह ने लोक संस्कृति में देवियों की प्रतिष्ठा और महामारियों मे समय उनकी अर्चना-वंदना के शास्त्रीय पक्ष चिन्हित किए।

राष्ट्रीय परिसंवाद के अंतिम दिन प्रथम व्याख्यान कर्वी आंगलॉन्‍ग आसाम असम के युवा कवि अन तेरेन ने कर्वी जनजातीय समुदाय की परंपराओं में महामारी सम्बन्धी मंत्रों, लोकगीतों और अनुष्ठानों पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कर्वी जनजाति की लोकसंस्कृति का परिचय दिया तथा असमिया जनजीवन पर कोरोना के प्रभावों की विवेचना की।

चाईवासा, झारखंड के वक्ता सुभाष महतो ने कुड़माली भाषा-संस्कृति पर वक्तव्य देते हुए महामारी से संघर्ष में ईश्वरीय-आस्था की महिमा पर प्रकाश डाला। श्री महतो ने अपने समाज में मान्य ‘कुड़माली दिनचर्या में मंत्र‘ शीर्षक भोजन पर अंकित पुस्तक का प्रदर्शन करते हुए आयुर्वेद के निदानों की चर्चा की। उन्होंने ताड़पत्रों पर लिखित महामारी सम्बन्धी जानकारी को भी साझा किया। कैलाश मण्डलेकर ने स्पष्ट किया कि लोक संस्कृति महामारियों पर सदा विजयी रही हैं। श्री मण्डलेकर ने शुद्धिकरण की लोकरीतियों को भी रेखांकित किया।

उपर्युक्त राष्ट्रीय परिसंवाद के समस्त सत्रों का संचालन लोक एवं जनजातीय साहित्य के अध्येता प्रो धर्मेन्द्र पारे ने किया। कार्यक्रम के संयोजकीय दायित्व का निर्वाह करते हुए उन्होंन प्रतिभगियों एवं वक्ता-विद्वानों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की। नासिक महाराष्ट्र से प्रतिभागी डॉ दीपा कुचेकर ने छः दिवसीय परिसंवाद के निष्कर्षों पर समीक्षात्मक टिप्पणी देकर दूसरी सार्थकता प्रतिपादित की। डॉ ममता उपाध्याय, रीवा ने भी परिसंवाद की उपलब्धियां रेखांकित कीं।