भारत भर में कई तीज-त्योहार पर मेहंदी, महावर और मांडने मांडे जाते हैं तो दिन की शुरुआत रंगोली से होती है।
भाद्रपद माह के शुक्ल पूर्णिमा से पितृ मोक्ष अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष में कुंआरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला संजा पर्व भी हमारी विरासत है, जो मालवा-निमाड़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि जगह प्रचलित है। संजा एक लोक पर्व है, इसमें जो गीत गाए जाते हैं, उनकी बानगी इस प्रकार है :-
संझा बाई को छेड़ते हुए लड़कियां गाती हैं-
'संझा बाई का लाड़ाजी, लूगड़ो लाया जाड़ाजी
असो कई लाया दारिका, लाता गोट किनारी का।'
'संझा तू थारा घर जा कि थारी मां
मारेगी कि कूटेगी
चांद गयो गुजरात हरणी का बड़ा-बड़ा दांत,
कि छोरा-छोरी डरपेगा भई डरपेगा।'
'म्हारा अंगना में मेंदी को झाड़,
दो-दो पत्ती चुनती थी
गाय को खिलाती थी, गाय ने दिया दूध,
दूध की बनाई खीर
खीर खिलाई संझा को, संझा ने दिया भाई,
भाई की हुई सगाई, सगाई से आई भाभी,
भाभी को हुई लड़की, लड़की ने मांडी संझा'
'संझा सहेली बाजार में खेले, बाजार में रमे
वा किसकी बेटी व खाय-खाजा रोटी वा
पेरे माणक मोती,
ठकराणी चाल चाले, मराठी बोली बोले,
संझा हेड़ो, संझा ना माथे बेड़ो।'
इस दौरान संझा बाई को ससुराल जाने का संदेश भी दिया जाता है-
'छोटी-सी गाड़ी लुढ़कती जाय,
जिसमें बैठी संझा बाई सासरे जाय,
घाघरो घमकाती जाय, लूगड़ो लटकाती जाय
बिछिया बजाती जाय'।
'म्हारा आकड़ा सुनार, म्हारा बाकड़ा सुनार
म्हारी नथनी घड़ई दो मालवा जाऊं
मालवा से आई गाड़ी इंदौर होती जाय
इसमें बैठी संझा बाई सासरे जाय।'
'संझा बाई का सासरे से, हाथी भी आया
घोड़ा भी आया, जा वो संझा बाई सासरिये,'
अब पढ़ें, संझा बाई क्या जवाब देती है-
'हूं तो नी जाऊं दादाजी सासरिये'
दादाजी समझाते हैं-
'हाथी हाथ बंधाऊं, घोड़ा पाल बंधाऊं,
गाड़ी सड़क पे खड़ी जा हो संझा बाई सासरिये।'
गीत के अंत में भोग लगाकर गाते हैं-
'संझा तू जिम ले,
चूढ ले मैं जिमाऊं सारी रात,
चमक चांदनी सी रात,
फूलो भरी रे परात,
एक फूलो घटी गयो,
संझा माता रूसी गई,
एक घड़ी, दो घड़ी, साढ़े तीन घड़ी।'
संजा पर्व के दिनों में प्रतिदिन शाम को कुंआरी कन्याओं द्वारा घर-घर जाकर इस तरह के कई गीत गाकर संझादेवी को मनाया जाता है एवं प्रसाद वितरण किया जाता हैं।