मंगलवार, 26 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. मेरा ब्लॉग
  4. makar sankranti 2019

मकर संक्रांति विशेष : एक उड़ान अतीत के आकाश से...

मकर संक्रांति विशेष : एक उड़ान अतीत के आकाश से... - makar sankranti 2019
पतंग, मुक्ताकाश में उड़ती, सरसराती, लहराती, इठलाती, सुंदर ,सजीली पतंग, कई -कई रंगों की आकर्षक पतंग किसे नहीं लुभाती? रंगीन कागज का यह नन्हा सलोना आविष्कार कुछ लोगों के लिए समय की बर्बादी हो सकता है। लेकिन आशा और विश्वास की पतंग, आकांक्षा और संकल्प की पतंग तथा प्रेम और स्वप्न की भावुक पतंग हर युग के हर मानव ने उड़ाई है, उड़ा रहा है।
 
आज भी कितने ही लोग हमारे बीच ऐसे है जिनकी स्मृतियों के विराट समुद्र में इस एक पतंग के बहाने बहुत कुछ आलोडि़त होता है। कितनी ही दुर्बल अंजुरियों में वह पतंगमयी अतीत आज भी थरथराता है। किसी ने इसे अपनी मुट्ठी में कसकर भींच रखा है । बार-बार खुलती है मुट्ठी और एक मीठी याद शब्दों में बँधकर, कपोलों पर सजकर इसी पुराने आकाश पर ऊंचा उठने के लिए बेकल हो जाती है। जब हमने जानने के लिए हथेली पसारी तो कहाँ संभल सकी वे स्मृतियाँ? अंगुलियों की दरारों से फिसलने लगी। सच ही कहा है किसी ने कि स्मृतियों को समेटने के लिए दामन भी बड़ा होना चाहिए।
 
एक जोड़ी चमकती बूढ़ी आंखें, खुशी से फैल जाती है। फिर सिकुड़ती हैं, माथे पर त्रिपुंड-तिलक बनता है और यकायक जैसे आत्मीयता से लबरेज एक खिलखिलाता मोहल्ला हमारे समक्ष आ जाता है। ये हैं पंडित सोहनलाल चतुर्वेदी - वो आकाश हमारा अपना था, वो कच्ची खपरैल फिर बाद में बनी टीन की छत। खनकती उन्मुक्त बयार और गगनभेदी अनुगूंज 'काटा है.....!!' आजकल की संक्रांति में वो बात कहाँ?
 
पतंगे तो आज भी है, आवाजें भी गूँज रही है, फिर वो क्या है जो हमारी एक खास पीढ़ी को लगता है कि कहीं खो गया है। कहाँ? किस जगह? कैसे ? उन्हें नहीं पता, लेकिन बस शिकायत है कि 'वो' नहीं है अब जो ' तब' था। किसे फुर्सत कि ढूंढे 'उसे' ।
 
हम कहां कहते हैं कि तुम ढूंढों। हम तो स्वयं उस कल की मिठास और भोलेपन को ढूंढकर तुम्हें भेंट देना चाहते हैं पर हमारी तो सहज स्वतंत्रता ही बाधित कर दी आज के बाशिंदों ने। यह है अनोखीलाल कर्मा। जो बस थोड़ी देर नाराज रहते हैं ‍िफर उनकी यादों से परत-दर-परत पतंगे उठती है और बिखरते हैं पतंगों के नाम - सिरकटी, तिरंगी, चौकड़ी, परियल, डंडियल, कानभात, आंखभात, चांदभात, गिलासिया, चुग्गी, ढग्गा, और भी ना जाने कितने अनूठे नाम !
 
पास बैठे गिरधारी शंकर एक जीवंत दृश्य खड़ा कर देते हैं। किसी संकरी सी गली में डोर 'सूती' जा रही है। कोई फ्यूज बल्बों को फोड़कर काँच पीस रहा है। कोई 'सरस' या नीला थोथा रंग के साथ घोल रहा है। घोल तैयार होते ही किसी के हाथों में धागे की 'रील' होती है। और कोई उसे घोल में डुबोकर 'चकरी' में लपेट रहा है। इस चकरी को 'हुचका' या 'उचका' भी कहते हैं। बिजली के दो खंबों के बीच यह डोर सुखाई जाती है और फिर लपेट ली जाती है। यह संक्रांति की पूर्व संध्या है। इसी जीते-जागते मोहल्ले से यह जानकारी मिलती है कि बरेली की डोर सबसे अच्छी होती है। यह पतली लगती है पर मजबूत होती है।
 
अब एक और जीवन संध्या के पंछी अतीत के घरौंदे की ओर अपना रूख करते हैं और हम भी उड़ चलते हैं उनके पीछे-पीछे। ये हैं रमणीक भाई देसाई।बता रहे हैं पतंग बनाने का तरीका। ' ये जो पतली छिली लकड़ी पतंग पर चिपकाई जाती है उसे 'कांप' कहते हैं। एक कांप सीधी लंबवत लगाई जाती है और दूसरी धनुषाकार में आहिस्ता से मोड़कर। पतंग उड़ाने के लिए धागों से संतुलन बनाकर जो नाप बाँधा जाता है उसे 'जोते बांधना' कहते हैं। पतंग का ऊपर आसमान से बातें करना इन्हीं जोतों पर निर्भर है।
 
एक 'दूर का चश्मा' ऊपर आकाश में उठता है कोई पतंग उनमें उलझकर फिर हमको टटोलती है। आंखों में उलझी वह पतंग स्मृतियों की छत से मुस्कुरा उठती है। ये हैं भगवानदास मोर्या। जो यादों की महकती बयार में बहते चले जाते हैं। 'भिनसारे'(प्रात:काल) से ही चढ़ जाते थे संक्रांति के दिन और बिना पतंग के ही जोर से चिल्लाते 'हट, का...टा...है ...!!!' और छिप जाते। आवाज सुनकर आस-पड़ौस के नन्हे पतंगबाज आंखें मसलते हुए उठ बैठते और घने कोहरे में ठिठुरती ठंड में कांपती-कुनमुनाती आवाज में कहीं से जवाब देते -का...टा...है ! हम पहले सूर्य पूजा करते,उसके बाद पतंगों की तिल से पूजा करते। हमारे पिताजी कहते हमेशा ऊपर उठने की सोचों पतंग की तरह। बातें करते हुए वे हाँफने लगते हैं और दूसरे साथी को इस अतीत-पतंग की डोर थमा देते हैं।
 
साथी असगर अली कमर सीधी कर भाषण देने की मुद्रा में आ जाते हैं। उनके चेहरे की पुलक दर्शनीय हो जाती है। पतंग के आकाश में पहुंचने अर्थ होता है आप मैदान में आकर दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हैं। पतंग का मुकाबला इसलिए भी दिलचस्प होता है क्योंकि इसका निर्णय क्षण भर में आसमान में हो जाता है।' इन कांपते हाथों की अंगुलियों में फिर कोई डोर रगड़ खाती है और एक रौनक सी चेहरे पर आ जाती है। हमने एक बार धागे के साथ अगरबत्ती बांधी और कुछ दूरी पर पटाखा भी बांधा।जब अगरबत्ती का गुल बिखरा और अगरबत्ती छोटी होकर पटाखे से लगी तो ऊपर आसमान में पटाखा फूटा,बड़ा मजा आया।
 
परतें सारी खुल चुकी है ऐसा मुझे लगा लेकिन एक रंगबिरंगी परत अभी शेष थी। इसके नीचे कई लाल, हरे, पीले, नीले और गुलाबी कंदिल झिलमिला रहे थे । इस बार इक़बाल भाई थे : शाम होते-होते अंधेरा छाने लगता। गर्दन, हाथ, पैर और आंखें सब थककर चूर हो जाते पर संक्रांति का उत्साह वैसा ही रहता। बल्कि बढ़ जाता कंदिल उड़ाने के लिए। पहले पतंग उड़ा ली जाती फिर उसमें गत्ते का कंदिल बांधा जाता। आजकल तो बाजार में मिलता है। हम हाथ से बनाते थे। अगरबत्ती की पीली पन्नी आसपास चिपका कर बीच में मोमबत्ती रखते और धीरे-धीरे पतंग आगे बढ़ाते । आकाश में जगमगाते इन कंदिलों की छटा ही निराली होती।
 
आज ये पुराने शौकीन पतंगबाज आंखों पर हथेली की छांव रख खुले आकाश में पतंग को निहारते हैं इन आंखों में सिर्फ कोई पतंग ही नहीं उलझती बल्कि उस पतंग के साथ न जाने कितनी लंबी डोर वाली चकरी घूमने लगती है। एक सुनहरा रंगीन अतीत अकुलाकर बाहर आना चाहता है। लेकिन जब यथार्थ की तीखी धूप आंखों में चूभती है तो वे आंखें बंद कर लेते हैं। आज हम सभी अपने स्वार्थ की पतंगों को ऊंचाई पर पहुंचाने के लिए बेताब है। राष्ट्र की उन्नति की पतंग, शांति की पतंग और राष्ट्र जागृति की पतंग को शुभ्राकाश के अंतिम छोर से स्पर्श कराने के लिए जाने हम कब प्रतिबद्ध होंगे, जिसे पड़ोसी मुल्क (चीन या पाक) की कोई शैतानी पतंग न काट सके। यदि कोई बेवजह उलझे तो उसे हम पूरे हौसलें और हिम्मत के साथ उसे काट दें। फिर करें पूरी शक्ति के साथ यह जयघोष -- का...टा है....!
 
आशा की इस पतंग को उड़ाने की अनुमति दीजिए कि ऐसी संक्रांति भी आएगी जब आने वाले वर्षों में ये मीठे पर्व नए महत्त्व और नई मासूमियत के साथ इस तरह मनाए जाएंगे  कि पुरानी परंपरा का परचम भी शान से लहरा सकें। राष्ट्रहित में यह शुभचिन्ह होगा।