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कोरोना काल की कहानियां : जीने के बदल गए हैं अंदाज़, एक दूसरे का सब दे रहे हैं साथ

कोरोना काल की कहानियां : जीने के बदल गए हैं अंदाज़, एक दूसरे का सब दे रहे हैं साथ - corona time stories
-रूना आशीष
 
'पिछले हफ्ते मेरी बेटी का जन्मदिन था। आमतौर पर हमारी बिल्डिंग में आसपास के सभी घर वालों को और खासतौर पर बच्चों को बुलाते हैं ताकि सारे बच्चे मिलकर मस्ती कर सकें। पिछले साल भी लॉकडाउन के चलते मेरे बच्चे का जन्मदिन अच्छे से नहीं मना पाए थे। इस साल भी कुछ यूं ही हुआ। पर अंतर सिर्फ इतना आ गया कि मेरे दोस्त के घर मैंने एक डब्बे में केक को पैक किया और उसके घर में सिक्योरिटी गार्ड के हाथों आम जरूरत के सामान के साथ केक भी भिजवा दिया, जो पिछले साल नहीं भेज पाई थी। मेरी दोस्त का परिवार क्वारंटाइन में है, साथ ही उसका ब्लॉक सील कर दिया गया है। कोई बाहर आ-जा नहीं सकता। लेकिन बेटी के जन्मदिन पर मैंने अपनी सहेली के बेटे को बहुत मिस किया और अपने आपको केक देने से रोक नहीं पाई।' यह कहना है मनिता बंसल का, जो मुंबई के डीबी वुड्स नाम की एक बड़ी हाउसिंग सोसाइटी में रहती हैं। मनिता अपनी 14 वर्षीय बेटी के जन्मदिन पर इस साल भी कोई बड़ा जलसा नहीं रख पाई।
 
मनिता आगे बताती है कि 'मैं जिस सोसाइटी में रहती हूं, वहां अलग-अलग ब्लॉक हैं। पिछले साल लगभग इसी समय पर मेरी एक बहुत ही खास दोस्त के घर उसकी सास को कोरोना था और उसे घर में ही रहने के लिए बोल दिया गया था। ना तो वह परिवार बाहर जा सकता था और ना ही हम उसके घर में जा सकते थे। तब मैंने उससे फोन पर बात की और कह दिया कि उसकी जो खाना बनाने वाली कुक है, वह मेरे घर आकर खाना बना सकती है और जैसे ज़रूरी सामान, दवाइयां या सब्जियां तुम्हारे पास आती हैं, वैसे ही प्लास्टिक के कंटेनर्स में मैं उन्हें खाना पहुंचा दिया करूंगी। ये सिलसिला 15 दिन तक चला।
 
लंच और डिनर हम सिक्योरिटी गार्ड को देते, वही खाना घर के बाहर रख देते। इसके फिर बाद मैं फोन लगा दिया करती। कोरोना का समय है, हम अगर आपस में ही एक-दूसरे पर ध्यान नहीं देंगे तो कैसे चलेगा? मुझे चिंता इस बात की और भी थी कि उसका एक छोटा बच्चा है, घर में कोरोना का पेशेंट भी है। सास का भी ध्यान रखना है, बच्चे को भी बचाना है। अपने आपको भी बचाना है तो कम से कम में उसे खाना बनाने जैसे काम से छुट्टी तो दिलवा ही सकती थी। ऐसे में उसे घर का बना अच्छा खाना भी मिल गया। परिवार भी जल्दी ठीक हो जाता और सामान ना होने की परेशानी या तंगी से नहीं गुजरना पड़ता।'
 
मुंबई में सोसाइटी में जाने कितनी ऐसे ही मनिता होंगी, जो इस समय में भी इंसानियत नहीं भूली हैं और एक-दूसरे को छोटी-मोटी मदद करके इस महाबीमारी से लोगों को बचाने के अपने छोटे-छोटे प्रयास में लगी हुई हैं ताकि ये संदेश मिले कि लोग, उस मरीज और उसके परिवार के साथ हैं और मरीज की जिंदगी में एक सकारात्मक पहलू बना रहे।
 
ऐसे ही वक्त में हमें एक जुंबा इंस्ट्रक्टर ने हमें अपनी आपबीती सुनाई। उनका कहना है, 'मैं जिस घर में रहता था वहां पर मेरा सालाना एग्रीमेंट खत्म हो गया था। अप्रैल में नियत तारीख के बाद मुझे नई जगह पर शिफ्ट होना था, जहां पर मेरा ब्रोकरेज दिया जा चुका था, एडवांस दिया जा चुका था और इस महीने का किराया भी दिया जा चुका था। अचानक से नए घर के मालिक का फोन आया कि बीएमसी ने उस बिल्डिंग को कंटेनमेंट ज़ोन में डाल दिया है और मेरे पास बमुश्किल 2 दिन थे जिसमें मुझे नया घर ढूंढना था और 1 महीने का अपना बंदोबस्त करना है।एक महीने बाद मुझे मेरा नया घर मिल जाएगा, मैं जाकर रह भी लूंगा।'
 
ये जानने के बाद फिर मेरी दौड़ शुरू हुई। मैंने पीजी ढूंढने की कोशिश की, घर ढूंढने की कोशिश की। कहीं से जाकर मेरी पुरानी कंपनी में मेरी सहकर्मी को यह बात मालूम पड़ी तो उसने अपनी ही बिल्डिंग में एक घर दिलवाने की कोशिश की। ऐसे में उसके ब्रोकर ने भी साथ दिया और मुझे कुछ ही घंटों में 1 महीने के लिए एक घर मिल गया। लेकिन 2 दिन के अंदर में कैसे मुंबई जैसे बड़े शहर में, जहां पर कोरोना की वजह से घरों की शिफ्टिंग नहीं हो रही, लोग अनजाने लोगों के बीच में रहना पसंद नहीं करते और उन्हें अपने घर में बुला भी नहीं रहे। ऐसे में किराए पर 1 महीने के लिए घर मिलना बहुत मुश्किल है। लेकिन आज सब ठीक हो गया है।'
 
मुंबई में करीब 50,000 से भी ज्यादा रजिस्टर्ड हाउसिंग सोसाइटीज हैं। मुंबई कॉस्मोपॉलिटन शहर है। यहां हर तरह के लोग रहते हैं। ऐसे में हाउसिंग सोसाइटीज को सरकार ने कुछ शक्तियां दे रखी हैं ताकि मुंबई की सोसाइटी में रहने वाले हर बाशिंदे को कम से कम तकलीफों का सामना करना पड़े। कोरोना काल में चाहे वह पिछले साल हो या इस साल हो, सरकार ने समय-समय पर गाइडलाइंस जारी किए जिन्हें हाउसिंग सोसाइटीज ने माना है।
 
पिछले साल जहां बिल्डिंग में किसी का प्रवेश से मनाही थी, सिर्फ अत्यावश्यक सेवा के लिए आवागमन खोला गया था। साथ ही इमारतों के मुख्य दरवाज़ा बंद ही रखने को कहा गया था। वहीं इस बार मज़दूर और घरों में काम करने वाली बाइयों पर से पाबंदी हटा दी गई है। साथ ही इस बार हाउसिंग सोसाइटीज को कहा गया है कि कोरोना के 5 से अधिक मरीज होने पर सील कर दिया जाएगा। सोसाइटीज को दरवाजे पर ये बैनर भी लगाना होगा कि अंदर कोरोना पीड़ित लोग हैं। आने-जाने वाले एहतियात बरतें।
 
ऐसे ही एक हाउसिंग सोसायटी सैटेलाइट रॉयल, जो कि मुंबई के गोरेगांव इलाके में बसी है, उनके कमेटी मेंबर आशीष भूतड़ा से हमने बातचीत की। आशीष का कहना है कि 'पिछले साल और इस साल की गाइडलाइंस में कुछ अंतर जरूर आया है। पिछले साल लोगों के बीच में कोरोना नाम से ही डर पैदा हो जाता था जबकि इस साल लोगों को कम से कम यह तो मालूम है कि क्या नहीं करना है या क्या करना है? हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी कि लोगों को एक ऐसा माहौल दें, जहां लोग सुरक्षित महसूस करें।
 
इस हालात को देखने के लिए कोई भी तैयार नहीं था। ऐसे में हमने अपनी सोसाइटी में ही एक्टिविटी सेंटर में ऑक्सीजन और एक बिस्तर का इंतजाम किया ताकि आपातकाल में मरीज को तुरंत राहत मिले और आगे की नीति तय करने के लिए समय मिले। दूसरा हमने यह किया कि दूध और जरूरत के सामान और ऑनलाइन डिलीवरी को सोसाइटी ऑफिस तक आने दिया। लोग अपने समय के हिसाब से अपनी चीजें उठाकर ले जाते।
 
अब चूंकि सोसाइटी में बहुत सारे बच्चे हैं इसलिए हमने आइसक्रीम बनाने वाली कंपनी से बातचीत की और वहां से 2 या 3 बार आइसक्रीम और अन्य पदार्थों की डिलीवरी भी कराई। जिसकी वजह से कम से कम बच्चे तो खुश हो गए थे, क्योंकि उनके खेलने, बाहर निकलने और गेम ज़ोन में जाने तक पर हम बड़े लोगों ने पाबंदी का फैसला ले लिया था और स्कूल तो बंद ही थे।
 
हमें सिक्योरिटी गार्ड और हाउसिंग स्टाफ की भी उतनी ही चिंता थी। हमने स्टाफ को बता दिया था कि आप चाहे तो अपने घर वालों के साथ रहें या हमारे साथ रहें। जो स्टाफ हमारे साथ रह गए, हमने उन्हें रहने के लिए जिम में एक जगह दे दी। उन्हें राशन, दूध और चाय, खाना बनाने की जगह और स्टोव-बर्तन यानी ज़रूरत की सारी चीज़ें मुहैया करा दीं और साथ ही में पास के किराने वाले को भी बता दिया कि स्टाफ को किसी भी सामान को लेने से ना रोके, बिल सोसाइटी के नाम पर भेजें।'
 
आशीष आगे बताते हैं कि 'देखिए कोरोना कैसा दिखता है, हम में से कोई नहीं जानता है। पर ऐसे में अगर इंसानियत को आधार बना लें तो अच्छा है। हमारी शारीरिक सुरक्षा के लिए गाइडलाइंस का पालन किया गया है तो मानसिक शांति हमने साथ में कोरोना से लड़कर पाई है। इस बार के लॉकडाउन में भी हमारी सोसाइटी में केस आए हैं बल्कि इस बार तो प्लंबर और मेड का आना भी जारी है। आज नहीं तो कल ही बीमारी पर शायद हम विजय पा लेंगे। लेकिन साथ ही साथ हमारे सोसाइटी में बच्चों का जो हमें प्यार मिला और रहवासियों का जो साथ मिला, उन सभी ने हमें मजबूत बनाया है।'
 
पिछले 11 साल से सामाजिक सेवा में लगे परेश प्रकाश मोरे ने 'वेबदुनिया' को बताया कि 'पिछले साल और इस साल में जितने भी लोगों को हमने मदद की है, उस हिसाब से कहूं तो 80% कोरोना केस बढ़ने का कारण है, मरीज़ और मरीज़ के घर वालों का ये छिपा लेना कि उन्हें कोरोना हुआ है। वैसे ही इस बीमारी के बारे में सही तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। ऊपर से सोशल मीडिया और वॉट्सऐप तो है ही गलत जानकारी फैलाने के लिए। हम अभी तक कितने ही मरीज़ों को नज़दीकी अस्पताल में पहुंचा चुके हैं। उनकी देखभाल व दवाई हर बात पर ध्यान देते हैं और जब वो घर पहुंचते हैं तो आसपास वालों को उनसे समानता रखने की गुहार करते हैं। पिछले साल से इस साल में लोगों में और उनके आचरण में भी बहुत बदलाव देख रहे हैं।'
 
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