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Last Modified: गुरुवार, 18 जुलाई 2019 (11:10 IST)

विकलांगता का उपहास उड़ाने वालों को इरा सिंघल का जवाब

विकलांगता का उपहास उड़ाने वालों को इरा सिंघल का जवाब | ira singhal
आईएएस इरा सिंघल को सोशल मीडिया पर एक व्यक्ति ने “कुबड़ी” कहा था। इस पर जवाब देते हुए सिंघल ने उसे सबक सिखाने की बजाए देश में शिक्षा को बेहतर और मानवीय बनाए जाने की ओर ध्यान दिलाया।
 
अंधा, बहरा, लंगड़ा, कुबड़ा। ये कुछ शब्द हैं जो मनुष्य की शारीरिक विकलांगता के बारे में बताते हैं लेकिन उसकी सामर्थ्य के बारे में नहीं। अगर ऐसा होता तो इरा सिंघल, सामान्य श्रेणी से आईएएस परीक्षा टॉप करने वाली देश की एकमात्र उम्मीदवार न बनतीं। उनकी प्रतिभा और जीवटता के सामने उनकी कथित शारीरिक अक्षमता कभी आड़े नहीं आई लेकिन 2014 में इतिहास बनाने के बाद इन दिनों जब वो आईएएस के रूप में अपनी सेवाएं दे रही हैं तो इसी दौरान सोशल मीडिया इंटरैक्शन में उन्हें खासी निर्ममता से अपने "कुबड़ेपन” की याद दिला दी गई।
 
इरा विचलित नहीं हुई बल्कि उन्होंने उस कड़वे और बेहूदे कमेंट को प्रेरित करने वाले और दिशा दिखाने वाले एक संवेदनशील अवसर में तब्दील कर दिया- ये कहकर कि अगर स्कूली शिक्षा समावेशी बन जाए और हर तरह के बच्चे एक साथ एक जगह पढ़े लिखें तो अक्षमता का मजाक उड़ाने वाली या उन्हें लेकर पूर्वाग्रहों से भरी धारणाएं मिटाई जा सकती हैं। इरा के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए जब अन्य यूजर्स ने कमेंट करने वालो को सजा दिलाने की मांग की तो इरा ने इसका जवाब भी संतुलित और सुसंयत तरीके से देते हुए कहा कि ये सजा का नहीं सजगता का मामला है, विवेक के इम्तहान का भी मामला है।
 
मीडिया में आई खबरों के मुताबिक अपने फेसबुक अकाउंट में एक घटनाक्रम का जिक्र करते हुए इरा सिंघल ने कहा कि विकलांग व्यक्ति के बारे में ये सोचना कि उन्हें कुछ सहना नहीं पड़ता क्योंकि उनके लिए दुनिया भली और दयालु है तो शायद ऐसा नहीं है कि क्योंकि उन्हें भी सोशल मीडिया के दौर में एक तरह से साइबर बुलिंग का स्वाद चखना पड़ा है। एक व्यक्ति ने उनकी शारीरिक अक्षमता का हवाला देते हुए टिप्पणी की थी। पोस्ट के मुताबिक उस व्यक्ति ने उन्हें "कुबड़ी” कहा था। इसी पर अपनी टिप्पणी प्रकाशित करते हुए इरा ने शिक्षा को बेहतर और मानवीय बनाए जाने की ओर ध्यान दिलाया।  
 
इरा के कहने का आशय को कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं कि श्रेष्ठता ग्रंथि की परिचायक ऐसी शिक्षा भला किस काम की जो शरीर, रंग, जाति, नस्ल आदि के आधार पर होने वाले भेदभाव और पूर्वाग्रह को चिंहित और प्रतिरोध के लिए तैयार न कर पाती हो। कहा जा सकता है कि उपरोक्त तमाम कमजोरियों से मुक्त व्यवहार और मानसिकता की शिक्षा दरअसल घर और परिवार से शुरू होनी चाहिए। घरों में अगर बच्चों को शुरू से ही कथित शारीरिक अक्षमताओं, देह के रंग, जाति, अमीरी गरीबी के बारे में संवेदनशील बनाया जाए और उन्हें पारिवारिक और सामाजिक रुढ़ियों में न जकड़ कर रखा जाए तो वे खुले ढंग से विकास कर सकते हैं। व्यवहारिक ही नहीं मानसिक स्तर पर भी वे बेहतर बनेंगे और उनमें बराबरी, न्याय और करुणा जैसे मूल्यों को आत्मसात करने में उलझन न होगी।
 
अफसोस ये है कि ऐसा हो नहीं पाता। और इरा सिंघल की पोस्ट इस हालात को बदलने की पैरवी करती है। वैसे ऐसी विमुखता और बेरहमी झेलनी वाली वो न पहली व्यक्ति है न पहली महिला और न ही पहली शख्सियत। फिल्म उद्योग से जुड़ी महिला अदाकारों और मीडिया से लेकर अदालतों, अकादमिक जगत से लेकर सेना, इंजीनियरिंग, ड्राइविंग और अन्य पेशों में कार्यरत महिलाओं को भी कमोबेश ऐसी ही टिप्पणियों और जबानी हमलों का निशाना बनाया जाता है। विद्या बालन, नेहा धूपिया, करीना कपूर के उदाहरण हाल के ही हैं जिन्होंने अपने शरीर के आकार या उम्र के लिए छींटाकशी और बेहूदी टिप्पणियों का सामना किया। नंदिता दास और तनिष्ठा चटर्जी का उनकी देह के रंग को लेकर मजाक उड़ाया गया। बहुत पहले स्मिता पाटिल को भी ऐसी ही अभद्रताओं से गुजरना पड़ा था। ये नामचीन महिलाएं हैं। और ध्यान देने की बात है कि इस किस्म की छींटाकशी अक्सर महिलाओं के साथ ही की जाती है।
 
और उन महिलाओं के बारे में क्या क्या न बताया जाए जो जन्म से ही अनेक दुश्वारियों और दुत्कारों के बीच पलती बढ़ती हैं, और तमाम किस्म के अवरोधों के बीच अपना रास्ता बनाती हैं, हरायी जाती हैं और प्रताड़ित की जाती हैं और उन्हें रोकने की हर मुमकिन कोशिशें की जाती हैं। 21वीं सदी का दूसरा दशक पार कर रहा देश, कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो महिलाओं के मामले में अब भी ग्रंथियों से घिरा हुआ है- ये मानने में न हिचक होनी चाहिए न शर्म कि भारतीय समाज एक विशाल और कड़े पितृसत्तात्मक ढांचे के अधीन है, जैसे ही इस ढांचे पर हल्का सा भी प्रहार होता है तो वर्चस्व की वासनाएं अपने नाखून पैने करने लगती हैं।
 
इरा सिंघल ने सीधे शब्दों में बस इतना ही कहा है कि अंधा, बहरा, कुबड़ा अपने आप में कोई खराब शब्द नहीं हैं। खराब तब है जब इन शब्दों को बोलते हुए किसी कमी या नीचता का अहसास दिलाया जाए यानी गलत नीयत से इनका प्रयोग किया जाए। ये वास्तव में गलत है और इसके लिए उपचार की जरूरत है और वो उपचार शिक्षा में निहित है। स्कूल से पहले घर पर। अगर कुबड़ापन ही इरा की सफलता की गारंटी होती तो वो विकलांग कोटे से भी करियर बनाकर सफल हो सकती थी लेकिन सामान्य श्रेणी में टॉप कर उन्होंने न सिर्फ अपनी शारीरिक अक्षमता को दरकिनार किया बल्कि समाज को भी संदेश दिया कि संघर्षों के सामने कूबड़ नहीं सिर्फ लक्ष्य होते हैं। 
 
रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी
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