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बाल एकांकी : पेड़ न काटो, पेड़ लगाओ

बाल एकांकी : पेड़ न काटो, पेड़ लगाओ - Drama on environmental protection
save tree 
 

 
पात्र- नट-नटी   
चार पुरुष पात्र- मुखियाजी, धन्नाजी और धुम्मीजी- आयु 35-40 वर्ष लगभग 
कल्लाजी- 65-66 वर्ष के वृद्ध      
दो महिला पात्र- रमियां और छमियां- आयु 35-36 वर्ष के आसपास  
दो विद्यार्थी- एक लड़का- अमित- आयु 14 साल 
एक लड़की- वंशिका- आयु 16 साल 
 
पर्दा खुलता है और नट और नटी मंच पर दिखाई पड़ते हैं।
दोनों राजस्थानी पोशाक में आमने-सामने उपस्थित हैं।
 
नटी- गांव की चौपाल सजी है, गांव की चौपाल,  
इसमें शामिल सभी वर्ग के युवा वृद्ध और बाल।
सजी है गांव की चौपाल।
 
नट- क्या...?     क्या...?
 
     गांव की चौपाल सजी क्यों, गांव की चौपाल। 
        सूख गईं क्या नदियां सारी, रीत गए सब ताल ?
        सजी क्यों गांव की चौपाल?
 
नटी- आज गांव में किसी विषय में, होना है जी बात।
         पर्यावरण प्रदूषण पर हैं, चर्चाएं कुछ ख़ास।
         लम्बे कदम बढ़ाता आता, पर्यावरण प्रदूषण।
         जैसे सिर पर चढ़े आ रहे, रावण और खर दूषण।
         धुंआं गंदगी बदबू से है, गांव हुआ बेहाल।
         सुरसा जैसा बढ़ता जाता, रोज काल का गाल।
         अल्पायु में मर जाते हैं, हो जाते बीमार।
         जीव, जंतुओं, इंसानों पर रोज पड़ रही मार।
         कल गोलोक गई थी कमली, आज गए गोपाल।
         सजी है गांव की चौपाल।
 
नट-  चलो तुम्हारे साथ-साथ ही, हम चलते तत्काल।
         खुली जहां पर धुंआं धूल की, बदबू की टकसाल।
         देखने उस गांव के हाल, जहां पर सजी हुई चौपाल।
 
          [मंच पर अंधकार हो जाता है,  
           पुनः प्रकाश होता है]
 
                      गांव की चौपाल का दृश्य
 
[एक बड़े पेड़ के नीचे चबूतरे पर तीन पुरुष और दो महिलाएं, जमीन पर एक दरी पर बैठे हैं।] मुखियाजी थोड़ी सी ऊंचाई पर गाव तकिया से टिककर बैठे हैं।
मुखियाजी- उफ़! पूरे गांव में बदबू, यहां चबूतरे तक भी कैसा झोंकाआ रहा है... [खांसते हैं]
धन्नाजी- मुखियाजी कुछ उपाय करें अब तो शीघ्र ही, सबकी हालत खराब है। कल से मेरी बेटी बीमार पड़ी है, श्वास मुश्किल से ले पा रही है। {छींकता है}
कल्लाजी- अब तो नदी का पानी भी निस्तार के लायक नहीं रहा। पता नहीं कैसी दुर्गंध आती है। देखते ही जी मचलाने लगता है।
धुम्मीजी- और आसमान का यह जहरीला धुंआं तो प्राण लेकर ही छोड़ेगा। 
रमियां- यह जो कारखाना बना दिया है गांव के सर पर ही, कैसी बदबूदार हवा छोड़ता है। कैसे सांस लें। {गहरी सांस लेती और छोड़ती है}
कल्लाजी- और यह सामने की सड़क- इस पर दिन भर वाहनों का रेला लगा रहता है। दिन भर, भर्र-भर्र चिल्ल पों-पों मची रहती है। जीना मुश्किल हो गया अब तो।
 
मुखियाजी- यही तो रोना है साथियों, विकास के नाम पर कारखाना बन गया, फोर लाइन सड़कें बन गईं, नालियां पक्की हो गईं, लेकिन अब ये कारखाने का धुंआं, वाहनों की प्रदूषित बदबूदार हवा, नदी का सड़ा पानी, सड़कों पर धूल और ये पॉलिथन के ढेर, हे भगवान्, क्या होगा देश का तू ही मालिक है। {जोर से खांसता है}
          
 
{तभी एक तरफ से अमित और वंशिका का प्रवेश}
 
अमित- मुखिया काका जी, भगवान् का नाम लेने से कुछ नहीं होगा। कुछ उपाय करना तो पड़ेगा। 
मुखिया जी- क्या उपाय कर सकते हैं बेटा अमित तू ही बता दे, बिटिया वंशिका तुम ही कुछ सलाह दो।  
अमित- मुखिया काका पेड़ लगाएं पेड़। और खूब सारे लगाएं, रोज लगाएं और लगवाएं, अधिक से अधिक। 
वंशिका- हां- हां-  पेड़...। और ये पेड़ बिल्कुल ना काटें छांटें। पौधे भी नहीं काटें। 
धुम्मीजी- लेकिन-लेकिन पेड़ लगाने से क्या होगा अमित बेटा?
अमित- चाचाजी पेड़ लगाने से ही सब कुछ होगा।  
वंशिका- हां- हां- हमने स्कूल में पढ़ा है। पेड़ बचेंगे तो ही हम बचेंगे। पेड़ मर जाएंगे तो हम भी मर जाएंगे। 
धुम्मीजी- कैसी बात करती है बिटिया, पेड़ बचने से हम कैसे बचेंगे और पेड़ मरने से.. हम...।
मुखिया जी- {बीच में ही बात काटकर} हम मर जाएंगे, बिटिया शायद सच कह रही है। 
कल्लाजी- आप भी मुखिया जी, बच्चों की बातों में आ गए। 
मुखिया जी- बच्चे बिलकुल सही बात बोल रहे हैं कल्लाजी। अच्छा आपको तो मालूम ही होगा श्वास लेने के लिए ऑक्सीजन वायु लगती है। 
कल्लाजी- हां हां सुना तो है, मेरी नातिन भी कल पुस्तक में ऐसा ही कुछ पढ़ रही थी। 
मुखिया जी- सुना नहीं, सच है ये बात। सभी जीव जंतुओं को जिसमें इंसान भी शामिल हैं, जीने के लिए ऑक्सीजन लगती है।
रमियां- हां हां पता है, क्यों बहन {अपने बाजू में बैठी छमियां की ओर देखती हुई} तुम्हें भी तो पता है। 
छमियां- मेरा बेटा भी तो यही बताता रहता है। हम मूर्ख क्या जानें ऑक्सीजन वॉक्सीजन। 
धुम्मीजी- हां- हां- स्मरण हो रहा है, हम मुंह से ऑक्सीजन लेते हैं और कॉर्बन डाई ऑक्साइड छोड़ते हैं। {सांस लेकर फिर छोड़कर बताता है} 
अमित- हां-हां अब समझ में आ रहा है काकाजी को थोड़ा-थोड़ा, क्यों काकाजी?
कल्लाजी- लेकिन इसमें ये पेड़, पेड़-वेड़ कहां से टपक पड़े। इससे ऑक्सीजन का क्या संबंध है। 
वंशिका- कल्ला दादू, हम सभी जीव ऑक्सीजन लेते हैं और कॉर्बन डाई ऑक्साइड छोड़ते हैं- ठीक है न? हम सबने मुंह से ऑक्सीजन ली और कॉर्बन डाई ऑक्साइड छोड़ी। 
अमित- मतलब वायुमंडल में ऑक्सीजन ख़त्म होती गई और कॉर्बन डाई ऑक्साइड बढ़ती गई। 
वंशिका- रोज करोड़ों जीव, जंतु और इंसान ऑक्सीजन लेते हैं, तो वह तो अब तक समाप्त हो जाना चाहिए थी। 
कल्लाजी- बात तो ठीक है बेटी तुम्हारी। 
अमित- लेकिन ऑक्सीजन तो अभी भी मिल रही है। भले कम मिल रही हो।
यह कहां से आती है? बताओ कहां से मिलती हैं कल्ला दादू?
कल्लाजी- कहां से मिलती है? मुझे क्या पता {हाथ मटकाता है}
वंशिका- पेड़ों से, ये ऑक्सीजन हमें पेड़ों से मिलती है दादू। 
अमित- हां- हां- ऑक्सीजन हमें पेड़ों, पौधों और वनस्पति से मिलती है। जीव-जंतु तो ऑक्सीजन लेकर कॉर्बन डाई ऑक्साइड छोड़ते रहते हैं लेकिन पेड़ कॉर्बन डाई ऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन हवा में, वायुमंडल में छोड़ते हैं। 
वंशिका- इसीलिए ऑक्सीजन कभी ख़त्म नहीं होती। संतुलन बना रहता है। 
कल्लाजी- तो हमें इतनी सारी ऑक्सीजन पेड़ पौधे देते हैं! लेकिन ये कब देते हैं?
अमित- हां दादू, यह प्रश्न पूछा आपने, बिलकुल ठीक-ठाक और काम का। यह सब होता है दिन के उजाले में सूरज की रौशनी में कल्ला दादू। 
रमियां- कैसे होता बेटा यह सब?
अमित- सूरज की रौशनी में पेड़ अपना भोजन बनाते हैं। जमीन से पानी और दूसरे खनिज लेते हैं और वायुमंडल से जीव-जंतुओं द्वारा छोड़ी गई कॉर्बन डाई ऑक्साइड लेकर पेड़ रासायनिक क्रिया के द्वारा भोजन बना लेते हैं और इस क्रिया में बहुत सी ऑक्सीजन निकलती है उसे वायुमंडल में छोड़ देते हैं। 
वंशिका- भोजन बनाने की इस क्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहते है काकी जी। यह केवल सूरज के प्रकाश में ही होती है और पेड़-पौधों के हरे पत्तों के द्वारा होती है। 
अमित- इस प्रकार पेड़ कार्बन डाइऑक्सइड वायु मंडल से सोखकर ऑक्सीजन वायु मंडल में छोड़ते रहते हैं। और ऑक्सीजन कभी समाप्त नहीं होती। 
वंशिका- यही ऑक्सीजन हम प्राणी सांस के रूप में भीतर लेते हैं और हम जीवित रहते हैं। 
कल्लाजी- इसका मतलब तो यह हुआ की पेड़ों से प्राप्त ऑक्सीजन से हम सब जीवित हैं। 
अमित- बिलकुल सही कहा दादू। पेड़ हमें ऑक्सीजन देते हैं, हमारे मालिक हैं, हमारे भगवान हैं, हमारे पालनहार हैं...। 
वंशिका- अब बताइए पेड़ काटना चाहिए क्या? कल्ला दादू, धुम्मी काका, बताइये न?
अमित- क्या हमें नए पेड़ नहीं लगाना चाहिए मुखियाजी?
धुम्मीजी- हे भगवान् पेड़ों की इतनी जरूरत है और हम कुल्हाड़ी लेकर जब चाहे जिस चाहे पेड़ को काट डालते हैं। 
धन्नाजी- यही तो हमारी मूर्खता है। कमअक्ली है। पढ़े-लिखे होते तो कुछ ज्ञान होता। 
वंशिका- तभी तो ऑक्सीजन कम मिलती है और हम बीमार बने रहते हैं। 
अमित- धन्ना काका, ऑक्सीजन मिलने के अलावा पेड़ पानी बरसाने के भी काम आते हैं। 
कल्लाजी- अब बीच में पानी कहां से आ गया। एक नई बात !
अमित- आप सबने देखा होगा जहां घने पेड़ होते हैं और जंगल होते हैं वहां पानी खूब बरसता है और जहां पेड़ नहीं होते वहां गिरता ही नहीं अथवा बहुत कम गिरता है। 
कल्लाजी- बेटा, ऐसा क्यों होता है, हमें भी तो समझाओ। 
वंशिका- घने पेड़ आसमान में उड़ने वाले बादलों को खींचने की क्षमता रखते हैं। पानी वाले बादल नीचे आकर बरस पड़ते हैं। 
अमित- पेड़ पहाडों से गिरते हुए पानी को भी नियंत्रित करते हैं। पेड़ों के कारण पर्वतों का पानी रुक-रुक कर नीचे आता है और, और पानी का बहाव नियंत्रण में रहता है। 
 
आपने सुना होगा की बादल फटा और एकदम से बाढ़ आ गई और कई मकान धराशाही हो गए।
वंशिका- यह इसलिए हुआ की पहाड़ों के पेड़ भी काट डाले गए। और ऊपर से लुढ़कते हुए पानी पर कोई नियंत्रण नहीं बचा और एकदम से पहाड़ों का पानी लुढ़ककर नीचे आ गया और उसने प्रलय मचा दी। 
कल्लाजी- लेकिन बेटा पिछली साल जो बड़ी सड़क बनी, उसमें तो हज़ारों पेड़ काट डाले गए। 
मुखियाजी- यह उस संस्था की गलती है जिसने सड़क बनाई। उसकी जबाबदारी थी कि जितने पेड़ काटे, उससे चार गुना पेड़ लगाती। 
अमित- लेकिन उसने जिम्मेवारी से काम नहीं किया। अगर किया होता तो सड़क के किनारे सैकड़ों पेड़ दिखाई पड़ते। 
मुखिया जी- यह तो ठीक बात है बेटे लेकिन सड़कों के भी हाल ठीक नहीं हैं। हज़ारों वाहन दौड़ रहे हैं, जहरीली गैसें छोड़ रहे हैं।
वंशिका- मुखिया काका, हमें दोहरी मार पड़ रही है। पेड़ काटने से ऑक्सीजन कम मिल रही है और कार्बन डाइऑक्सइड बढ़ती जा रही है ऊपर से वाहनों, कारखानों का जहरीला धुंआं। जीना दूभर हो गया है। और...
मुखिया जी- वायु प्रदूषण होने से पर्यावरण बिगड़ रहा है। इससे ऋतु चक्र भी गड़बड़ा रहा है। पेड़ नहीं होने से बादल बिना बरसे आगे बढ़ जाते हैं। यही कहना चाहते हो न?
अमित- हां-हां मुखिया काका बिलकुल सही पकडे हैं। एक बात और है, कार्बन डाइऑक्सइड और अन्य गैसों के मेल से बनी जहरीली गैसें जिन्हेँ हम 'ग्रीन हाउस गैसें' कहते हैं सूरज की गर्मी को सोख लेतीं हैं जिससे धरती पर भारी गरमी का प्रकोप होने लगता है। पेड़-पौधे सूखने लगते हैं और पशु पक्षी तड़प-तड़प कर जान देने लगते हैं।
वंशिका- नदियों तालाबों का पानी सूखने लगता है। पानी की त्राहि-त्राहि होने लगती है। 
अमित- ऋतु चक्र बिगड़ने से बेमौसम बरसात होने लगती है।
वंशिका- कहीं सूखा, तो कहीं अतिवृष्टि होने लगती है। जनजीवन तहस-नहस हो जाता है। 
अमित- नदियों में भयंकर बाढ़ आ जाती है। मकान पानी में डूब जाते हैं। सड़कों पर पानी भर जाता है। बस्ती में नाव चलना पड़ती है। 
वंशिका- जानवर बाढ़ में बह जाते हैं। फसलें तबाह हो जातीं हैं। करोड़ों रुपयों की संपत्ति का विनाश हो जाता है। 
अमित- मुखिया काका, सारी दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, जिसे हम ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। इस भयंकर गर्मी से ग्लेशियर पिघल जाते हैं। गर्मियों में भी बाढ़ आ जाती है। पहाड़ धसक जाते हैं। 
वंशिका- पहाड़ धसकने से घर दब जाते हैं। मलबा वाहनों पर गिरने से वाहन टूट जाते हैं और इंसानी जिंदगियां ख़त्म हो जाती हैं। 
छमियां- हमारी अम्मा तो पीपल की पूजा करतीं थीं। कहतीं थीं पीपल में देवता रहते हैं इसे नहीं काटना चाहिए। 
रमियां- मेरे बापू भी तो पीपल और बरगद का पेड़ नहीं काटने देते थे। कहते थे इनमें भगवान बाबा रहते हैं। 
अमित- हमारे पूर्वज जानते थे कि पेड़ जीवन वायु देते हैं इसलिए उन्होंने पेड़ों में ईश्वर का वास स्थापित किया ताकि लोग पेड़ न काटें। 
वंशिका- हमारे पुराणों में वेदों में वृक्षों की महिमा गाई है। हमारे ऋषि मुनियों को ज्ञान था कि पेड़-पौधे प्राण वायु के गोदाम हैं। 
छमियां- पता नहीं हम अपने पुराने संस्कार क्यों भूल जाते हैं। 
वंशिका- छमियां काकी समय बड़ा बलवान होता है। अपने सनातन धर्म और पुराणों में सब लिखा है और हमारे पुरखे यह सब जानते थे लेकिन बीच में हमारा देश कई सालों तक गुलाम रहा और हमें अपनी संस्कृति से वंचित कर दिया गया। हमारी कई पीढ़ियां पढ़ाई-लिखाई से दूर कर दी गईं। 
अमित- अब हमें सावधान रहना है। पेड़ बिलकुल नहीं काटना है और अगर बहुत जरूरी हो तो एक पेड़ के बदले दो-तीन-चार पेड़ तक लगाएं।  
मुखियाजी- एक बात तो हम लोग भूल ही रहे हैं बेटे। 
अमित- क्या भूल रहे हैं मुखिया काका हम लोग?
वंशिका- क्या छूट रहा है हमसे काका?
मुखियाजी- पेड़ नहीं होंगे तो परिंदे कहां बैठेंगे, हां बच्चों {मुखिया काका हो-हो- करके हंसते हैं}। उनके चहकने की आवाज़ चें-चें चों-चों चूं-चूं कहां सुनाई पड़ेगी। कोयल की कुहू-कुहू कैसे सुनेंगे?
अमित और वंशिका- {एक साथ}- अरे हम तो यह भूल ही गए मुखिया काका। 
अमित- पेड़, फूल और फल भी तो देते हैं। मोंगरा गेंदा, गुलाब, पारिजात, रातरानी, कितने सारे सुगंधित फूल मिलते हैं हमें पेड़ों से। 
वंशिका- और केले, संतरे, अनार, मौसंबी, अमरुद, जामुन और खटमिट्ठी इमली, कितने सारे फल मिलते हैं कल्ला दादू। 
अमित- एक बात और है, पेड़ छाया भी तो देते हैं। गर्मी में कितने जानवर पेड़ के नीचे विश्राम करते हैं। 
वंशिका- आदमी भी भी तो कभी-कभी पेड़ के नीचे आराम करते हैं। खासकर खेतों में खटिया बिछाकर, क्यों धुम्मी काका?
हां- हां बिलकुल आराम करते हैं हम सब {सभी लोग एक साथ बोलते हैं}-
           
फिर सब लोग जोर-जोर से हंसते हैं और खड़े हो जाते हैं। 
             सब गाते हैं-
         पेड़ हमें देते मीठे फल, पेड़ हमें देते हैं फूल। 
         जब भी चलती हवा सुहानी, डालें करतीं झूलम झूल। 
         तितली भंवरे घूम-घूम कर, फूलों पर मंडराते हैं। 
         कथा कहानी दुनियां भर की, उनको रोज सुनाते हैं। 
         और फूल भी झूल-झूल कर अपना सर मटकाते हैं। 
         दूर देश से आई पवन से, हंसकर हाथ मिलाते हैं।  
         यही फूल हमसे कहते हैं, पेड़ काटकर करें न भूल। 
         एक कटे तो चार लगाएं, जीवन का हो यही उसूल। 
 
        {धीरे-धीरे परदा गिरता है}
 
(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

 
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