प्राचीन संस्कृति, सौहार्द और सामंजस्य की मिसाल है इंदौर
-संतोष पोरवाल
इंदौर का नाम आते ही एक साफ-सुथरा सुंदर शहर आंखों के सामने आ जाता है। चारों ओर पेड़ों से घिरा हुआ पूरी तरह प्रदूषणमुक्त एक बहुत ही सुंदर शहर की छवि आंखों के सामने आ जाती है। सुबह 5 बजे इंदौर की सड़कें पानी से धुला करती थीं। हम मल्हारगंज थाने के पास रहते थे। यहीं पर पले-बढ़े, बचपन की बहुत-सी यादें आज भी इंदौर से जुड़ी हुई हैं। तब शारदा कन्या विद्यालय में पढ़ते थे।
जब उज्जैन में सिंहस्थ का मेला लगता था, तब बड़ा गणपति से लेकर सीतारामजी की बगीची तक साधु-संत अपना डेरा जमाते थे। मानो छोटा-मोटा सिंहस्थ इंदौर में ही हो जाता था। भूतेश्वर मंदिर से आगे पंचकुइया स्थान सिर्फ पशु-पक्षियों के रहने का स्थान था। चारों ओर पेड़ों से घिरा हुआ तथा बीच में नदी बहती थी। कोलाहल से दूर शांत व सुरम्य वातावरण संतों की तपस्या स्थली थी।
महू नाका, जो आज महाराणा प्रताप चौराहा कहलाता है, के आगे घने पेड़ थे। अन्नपूर्णा मंदिर से फूटी कोठी दिखाई देती थी। वहां पर नाम पुकारने पर आवाज लौटकर आती थी। उस आवाज को सुनने की उत्सुकता में सारे बच्चे एक-दूसरे का नाम जोर-जोर से पुकारने लगे और जब आवाजें पलटकर आने लगीं, तब डर के मारे भागे।सुखनिवास बहुत सुंदर स्थान था। केशरबाग रोड पर बहुत ही सुन्दर फलबाग था जिसके स्वादिष्ट फलों का स्वाद आज भी नहीं भूल पाते हैं।
होली से 1 दिन पहले कवि सम्मेलन होता था जिसको सुनने के लिए हम बड़े लालायित रहते थे। थोड़ी-सी मिन्नत के बाद हमें भी इजाजत मिल जाती थी। बड़े-बड़े नामी विद्वान कवियों की कविता सुनते-सुनते हंस-हंसकर लोटपोट हो जाते थे। अब सब कुछ स्वप्न-सा लगता है।
रामबाग संस्कृत कॉलेज में पढ़ने गए। वहां एक अद्भुत वातावरण था। सुंदर हरियाली के बीच वह स्थान मानो गुरुकुल-सा आभास दिलाता था। हम अपने आपको सौभाग्यशाली समझते थे। बड़े-बड़े विद्वानों की संगत में बैठकर विद्या प्राप्त करना अलौकिक अनुभूति थी। अंतरराष्ट्रीय शतरंज स्पर्धा हमारे कॉलेज में होती थी जिसको देखने की उत्सुकता हम दबा नहीं पाते थे।
आज परिवर्तन का युग है और समय की मांग है। इंदौर एक महानगर के रूप में तब्दील हो गया है। बड़े-बड़े मॉल्स व बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं सब कुछ परिवर्तित हो गया। विकास का युग है, होना भी चाहिए। फिर भी इन सबके बीच वो पेड़-पौधे, वो जंगल जहां पर चिड़ियों का चहचहाना, असंख्य मोरों का नृत्य करना, हजारों तोतों का दाना चुगना सब कुछ लुप्त-सा हो गया।
काश! लौटा दे कोई मेरे बीते हुए दिन...!
Edited by: Ravindra Gupta