हिन्दी कहानी : मैं बूढ़ा हूं...
दिलीप गोविलकर
आईने के सामने कुछ बचे-कुचे शेष बालों पर कंघी फेरते हुए भौंहों के मध्य से झांकते हुए दो सफेद बालों को देखकर एक दम चौंक गया और चुपके से उन्हें हटाने की जुगत करने लगा। अभी एक भौंह का सफेद बाल अलग किया ही था कि कान के ऊपर और सीने पर और सफेद बाल मुझे देख कर मुस्कुरा रहे थे, मानों वे ताना मार रहे थे कि अब तुम्हें बूढ़ा कहने से कोई नहीं रोक सकता। देख रहा हूं गालों पर और गले पर भी झुर्रियां अपना स्थान बनाने लगी हैं। मैं 58 का हो चला हूं और सठियाने वाला भी हूं।
क्या मैं बूढ़ा हो चला हूं? आईने से प्रश्न करते हुए मुझे कोई झिझक नहीं है, क्योंकि उसी ने मेरे बदलते स्वरुप को क्रमश: देखा है। पहले मेरी मां की गोद में बैठकर आईने में शक्ल निहारता था, फिर प्रेयसी को रिझाने के लिए संवरता था, पर अब तो निरुद्देश्य संवरना है। भले ही संवरने के लिए कोई उद्देश्य नहीं हो पर बुढ़ापा छुप जाए इसकी जुगत जरूर है। मैंने फिर से वही यक्ष प्रश्न आईने से किया ‘क्या मैं सचमुच बूढ़ा हो गया हूं’? वह मुस्कुराया और बोला - उत्तर तो तुम्हारे पास ही है। जब तुम्हारी बातों से लोगों की दिलचस्पी कम होने लगे, लोग तुमसे सहानुभूति दिखाने का नाटक करने लगें, बात-बात पर पत्नी झगड़ने लगे और तुम्हारे पुत्र-पुत्रियां ही तुम्हारी कमियां गिनाने लगे, क्या यह बहुत नहीं है तुम्हें बूढ़ा साबित करने के लिए!
वैसे एक न एक दिन यह तो महसूस हो ही जाता है कि मैं बूढ़ा हो चला हूं, पर दिल यह मानने को तैयार नहीं होता। किसी मंदिर के चबूतरे पर झूंड में बैठे बूढ़ों को देखता हूं तो पता नहीं क्यों खीज-सी होने लगती है। क्या हम जैसे बूढ़ों की, बूढ़ों के झूंड में बैठना ही नियति है? क्या हम युवा वर्ग के बीच बैठ कर उनकी गतिविधियों में शामिल होकर जीवन का आनंद नहीं ले सकते? क्या हम खुली जीप या मोटर सायकल पर आऊटिंग के लिए नहीं जा सकते? क्यों नहीं हम सब कर सकते हैं? नई उमंग के साथ यदि खुशी से हम जीने का संकल्प करें तो बुढ़ापा नजदीक भी नहीं आएगा।
‘कितनी देर यूं ही कंघी लिए अपने को निहारते रहोगे’ पीछे से मेरी पत्नी ने पूछा। मैंने तुरंत सकुचाते हुए कहा ‘नहीं वो कुछ नहीं मैं तो बस ऐसे ही’। मैंने तुरंत वहां से हट जाना ही उचित समझा। मैंने पत्नी को कहा, लो तुमको कंघी करना हो तो कर लो। मैंने उसके नहाए हुए चेहरे पर नजर डाली और गुनगुना उठा ‘ये जुल्फ अगर खुल के बिखर ....... तो अच्छा। पर मैं जानता हूं मैं उसका यूं ही मन रखने के लिए गुनगुना रहा हूं, क्योंकि कंडे की बुझी राख में आग को तलाशना मृगतृष्णा ही होगी। माथे के आसपास सफेद हो रहे बालों और आंखों के नीचे बने काले धब्बों से मेरी पत्नी की खुबसुरती अब खत्म होती साफ दिखाई दे रही है। सास-ससुर, बच्चों और गृहस्थी की जिम्मेदारियों ने उसे भी असमय ही वृद्ध बना दिया है। बेहद चिढ़चिड़ी भी हो गई है और बात-बात पर मुझसे झगड़ती है, कोसती है। पर क्या करुं मैं और वो दोनों ही बूढ़े हो चले हैं, एकाकी जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। शायद प्रकृति की यही नियम भी है ‘जो आज है वह कल नहीं रहेगा’।