मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024
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मानवता को सराबोर करती कविता : गूंज...

मानवता को सराबोर करती कविता : गूंज... - hindi poetry
एक गूंज उठती है दिल में
और फैल जाती है अनंत तक
उस गूंज में दर्द है सिहरन है
अपनों का धोखा है
गैरों का अपनापन है।
 
वह गूंज अनुगूंजित होकर
कविता में उतरती है
स्वर देती है समाज के सरोकारों को
उठाती है ज्वलंत प्रश्न
पर्यावरण की लाशों के।
 
वह गूंज पहुंच जाती है
गांव के उस चौराहे पर
जहां दलितों पर प्रश्नचिन्ह है।
 
शहर की उन झोपड़ियों में
जहां दर्द और दवा निगल रही हैं जवानियां
जहां की बच्चियां कम उम्र में ही
औरत होने का दर्द झेलती हैं
जहां औरतें मशीन की तरह
धूरी पर घूमती बिखर जाती हैं।
 
यह गूंज नहीं रुकती नाद की तरह
बजती है मन के आकाश में
यह संसद से सड़क तक के
चरित्र को आवाज देती है
मानवता की सरहदों से लेकर
मनुष्य के विघटन को गाती है।
 
ये गूंज नहीं पहुंच पाती
जंगल के उन बाशिंदों तक
जिनके सपनों का कोई
सवेरा नहीं होता है
जिस उम्र में पैदा होते हैं
कई साल बाद उसी उम्र
में मर जाते हैं जानवर से।
 
महानगरों के कहकहों की गूंज
विकास के पुल से गुजरती है
गांव के कुम्हार की झोपड़ी तक
जहां एक दीया टिमटिमाता है
तरसता है दिवाली के लिए।
 
गूंज में शब्द नहीं होते
अर्थ भी नहीं होते
होते हैं सिर्फ अहसास
जिंदगी को समझने के।
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