हिन्दी कविता : दहेजी दानव
दहेजी दानव ने बगराया
भारी भष्टाचार जी
इस दानव को मार भगाओ
है जन-जन का भार जी
पुत्र जन्म लेते ही घर में
लहर खुशी की छा जाती
बेटी बिन भई जग है सूना
फिर कहर क्यों बन जाती
बेटी है गुणों की खान
कोई कमी नहीं व्यवहार का
फिर भी बीतता कष्ट में जीवन
ताने सहते ससुराल का
शिक्षा को तुम ढाल बनाकर
खात्मा करो रूढ़ि संस्कार का
कड़वा घुट कल पड़े न पीना
हीन दासता अत्याचार का
पैसे को भगवान समझ कर
करते अत्याचार जी
इस दानव को मार भगाओ
है जन-जन का भार जी