कविता : दुख नगरी
- कविता नागर
दुख नगरी से मन है, भागे
जाना चाहे है सुख नगरी
ईश्वर की इच्छा पर निर्भर,
जैसे भर दे जीवन गगरी।
दुख और सुख जीवन के अंग।
रहना है दोनों के संग,
दुख करता परिमार्जित मन को।
जीवन का जब बदले रंग।
दुख की बदली जब छंट जाए,
निकले सुख की धूप सुनहरी,
कोमल मन की वाष्प है उड़ती
सुख की धूप मिले फिर गहरी।
अपनों की पहचान बताएं,
दुख है जब जीवन में आए।
सच्चा साथी मिलता तब है,
बनावटी तो भागे जाए।
मन को अपनी ढाल बना लो।
बड़ा सजग है, ये मन प्रहरी।
जैसे भी फिर पलछिन आएं,
रुके नहीं बहे मन लहरी।