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Written By Author शरद सिंगी

साहसी आर्थिक निर्णयों पर सकारात्मक सोच की दरकार

साहसी आर्थिक निर्णयों पर सकारात्मक सोच की दरकार - Positive thought necessary for economic decision
दीपावली उत्सव के समीप हम पहुंच रहे हैं। समय है भारतीय और वैश्विक आर्थिक व्यवस्था  की समीक्षा/ आकलन का। इस लेख में हम भारतीय अर्थव्यवस्था का आकलन करेंगे। हाल  ही में विपक्षी दलों और सत्ता दल के कुछ वरिष्ठ सदस्यों ने जीडीपी और बेरोजगारी के  आंकड़े देकर सत्तादल की नीतियों की तीखी आलोचना की। जेटली और फिर स्वयं मोदीजी  को अपनी नीतियों के बचाव में आंकड़ों के साथ आना पड़ा।
 
 
इसी दौरान उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ सदस्य और पूर्व वित्तमंत्री की तुलना महाभारत के  एक विशिष्ट किरदार महाराज शल्य से कर डाली। पांडवों के मामा महाराज शल्य अपनी दो  अक्षोहणी सेना लेकर कौरवों के विरुद्ध युद्ध के लिए निकले तब मार्गभर में दुर्योधन के  कर्मचारी उनकी आवभगत करते रहे, उनका भोजन प्रबंध करते रहे। 
 
आवभगत को युधिष्ठिर द्वारा आयोजित समझकर शल्य बड़े प्रसन्न हुए। हस्तिनापुर  पहुंचकर जब उन्हें सच्चाई का पता चला तो दुर्योधन की धूर्तता उन्हें समझ में आई किंतु  पांडवों के विरुद्ध युद्ध करने के दुर्योधन के विनय को वे अस्वीकार नहीं कर सके। 
 
शल्य सारथी कला और कौशल में भगवान कृष्ण के समकक्ष माने जाते थे अत: उन्हें युद्ध  के 16वें और 17वें दिन महारथी कर्ण के सारथी बनने की जिम्मेदारी दी गई। न चाहते हुए  भी शल्य को सारथी बनना पड़ा और अपने कौशल से बिना समझौता किए पांडवों के प्रति  अपने स्नेह और उन्हीं के आग्रह पर सारथी के रूप में वे निरंतर कर्ण के मनोविज्ञान से  खेलते रहे। अर्जुन के समक्ष कर्ण को कमजोर बताते रहे और अंत में कर्ण की हार का  कारण शल्य बने। 
 
मोदीजी इसी शल्य का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कुछ लोग जो अपने को अर्थशास्त्री  मानते हैं उन्हें इस समय देश में नकारात्मक भूमिका नहीं निभानी चाहिए। इस तरह उन्होंने  शल्य का सटीक दृष्टांत देकर कई धुरंधरों की 'शल्य चिकित्सा' कर दी। 
 
आलोचक नोटबंदी का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि इस नोटबंदी से कोई लाभ तो नहीं  हुआ अलबत्ता व्यापारियों ने बैंक में पैसे डालकर कालेधन को सफेद कर लिया। मुझे कोई  समझाए कि बैंक में पैसा डालने से सफेद हो जाता तो आज भारत में कालेधन की  समानांतर अर्थव्यवस्था चलाने की आवश्यकता ही नहीं होती। नोटबंदी के पहले बैंक में  रुपया जमा करने की कौन-सी पाबंदी थी? धुरंधर अर्थशास्त्रियों के बचकाना तर्क उनकी  बेतर्क सोच का ही परिणाम है। 
 
जीएसटी को लेकर सरकार पर दूसरा प्रहार है कि यह एक अदूरदर्शी बिना सोचे-समझे लिया  हुआ कदम था और व्यापारियों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। यदि  टैक्सेशन के छात्र इसे पढ़ रहे हों तो वे अवश्य बता देंगे कि टैक्स बचाने में अधिक दिमाग  लगता है या टैक्स चुकाने में? विडंबना है कि व्यापारी को टैक्स बचाना आता है, जहां  अनेक प्रकार फर्जी बिल बनाने होते हैं और जटिल प्रक्रिया से गुजरना होता है किंतु टैक्स  देने की सरल प्रक्रिया को समझने को वे तैयार नहीं? 
 
दुर्भाग्य से हमारे कर सलाहकारों ने अपनी विशेषज्ञता का उपयोग व्यवसायियों को कर  चुकाने की अपेक्षा कर बचाने की युक्तियां बताने में अधिक किया। देश में विकास की नींव  व्यवसाई और व्यापारी ही रख सकता है, गरीब आदमी नहीं। सरकार के पास धन के अनंत  स्रोत नहीं हैं। अत: हमारे आकलन में सरकार के ये ठोस कदम लंबे समय में अपना  परिणाम देंगे जिन्हें राजनीतिक लाभ के लिए अनिर्णीत रखना देश के हित में नहीं होता। 
 
खाड़ी के देशों में जीएसटी की तरह वैट अगली जनवरी से लागू हो रहा है। पहली बार यहां  किसी भी प्रकार का टैक्स लागू हो रहा है। यहां लोकल लोगों में अशिक्षा भारत से अधिक  नहीं है किंतु कोई विरोध नहीं है। राष्ट्र के निर्माण में सबको आहुति तो देनी ही पड़ती है। 
 
इस तरह यदि आप चाहते हैं कि विकास हो किंतु हमारे पैसों से नहीं तो विकास असंभव है।  जीडीपी चिंता का विषय अवश्य है किंतु उसके उतार-चढ़ाव वैश्विक अर्थव्यवस्था से भी जुड़े  हैं जिस पर हम अगले लेख में प्रकाश डालेंगे। 
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