कहते हैं कि तस्वीरें सब कुछ बयां कर देती है, जो बात शब्दों में नहीं कहीं जा सकती हैं वह तस्वीरें कह देती है, देश में प्रवासी मजदूरों के पलायन की जो तस्वीरें सामने आ रही हैं वह भी बहुत कुछ बयां कर रही है। तस्वीरें बता रहीं है कि ये सिर्फ बेबस मजदूरों का पलायन नहीं है बल्कि सिस्टम पर से विश्वास के ‘पलायन’ की शुरुआत है।
बंगलुरु से कोटा तक का सफर अपने बेटे की साइकिल पर बैठकर तय करने वाली 90 साल की बुजुर्ग के जिस तरह सरकारी मदद को ठुकराने का वीडियो सोशल मीडिया पर सामने आया है वह बताता हैं कि अब लोगों का अब शासन, सरकार, शहर और काम देने वाली व्यवस्था पर भरोसा नहीं बचा है, इसलिए वह अपने गांव घर की ओर भागे जा रहे है। आज गरीब मजदूरों को अपने गांव और समाज की व्यवस्था पर ज्यादा भरोसा है।
एक साथ अपने घरों की ओर पलायन करते मजदूर सिर्फ एक तस्वीर नहीं बल्कि एक सामूहिक आत्मा है जिसका आज मौजूदा शासन-व्यवस्था पर भरोसा नहीं बचा है। करोड़ों लोगों का पलायन संकट के समय सरकार की नासमझी का भी प्रमाण है।
अचानक हुई तालाबंदी के कारण जो मजदूर अपने घरों में कैद हो गए उनका धैर्य लॉकडाउन के हर चरण के बढ़ने के साथ टूटता गया और वह सरकार के हर भरोसे, आश्वासन और अपील को दरकिनार कर अपने घरों की ओर चल दिए। बात थोड़ी कड़वी जरूर लेकिन सच ये हैं कि आज गरीबों और मजदूरों ने सरकार के आदेश के ठेंगे पर रख दिया है।
केंद्र और राज्य सरकारों के लाख भरोसे के बाद भी मजदूरों का राजमार्गो पर लांग मार्च जारी है। मजदूरों ने सड़कों की लंबाई को अपने पैरों से नाप दिया है। सौ-दो सौ क्या?, पांच सौ- हजार किया? मजदूरों ने अपनी जीवटता और घर पहुंचने की जुनून में दो से चार हजार किलोमीटर लंबे राजमार्गो को अपने पैरों तले रौंद डाला है।
महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और बिहार जाने वाली सड़कों पर प्रवासी मजदूरों का जो सैलाब दिखाई दे रहा है वह रोंगटे खड़े कर देने वाला है। राज्यों की सीमाओं पर लाखों मजदूरों और गर्भवती महिलाओं के भूखे प्यासे फंसे होने की तस्वीरें कलेजे को कंपा देती है।
लॉकडाउन के एलान के तुरंत बाद प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्रियों तक ने मजदूरों को जहां है वहां रहने की अपील की लेकिन जिस तेजी से अपील हुई उतनी ही तेजी से मजदूरों का पलायन हुआ। इन मजदूरों को न तो हूकुमत का डर है न ही पुलिस की लाठियों का खौफ।
लाखों लोग बिना प्रतिकार किए कष्ट सहकर अपनी मंजिल की ओर लगातार बढ़ते जा रहे है। आप जब इन लाइनों को पढ़ रहे होंगे तब भी राजमार्गो पर लाखों मजदूरों का पलायन जारी है। बेबस मजूदरों का ये भी नहीं पता कि वह अपने घर की चौखट को छू भी पाएगा या नहीं लेकिन अपनी मिट्टी से मिलने की चाहत उनको खींचे ला रही है।
खुद सरकार अपने आंकड़ों में बता रही हैं कि प्रवासी मजदूरों का आंकड़ा 8 करोड़ है। जिस तरह कोरोना के कभी खत्म नहीं होने की बात कही जा रही है ठीक वैसे ही पलायन का ये दंश भी कभी खत्म नहीं होने वाला है।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं मजदूरों के पलायन को सिविल नाफरमानी बताते है। वह इसकी तुलना 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन से करते हुए हुए कहते हैं कि ये मजूदरों का पलायन नहीं बल्कि सरकार के बेतुके निर्णयों के खिलाफ मजदूरों का सामूहिक सविनय अवज्ञा मार्च है।
सर्वोदय और जेपी मूवमेंट में शामिल रहे रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि देश भर से जो खबरें और तस्वीरें आ रही है उनसे लगता है जैसे भारत में सरकार नाम की संस्था केवल बड़े उद्योग संगठनों की सुनती है। आम नागरिक की बात या भूखे प्यासे अपे घरों को लौट रहे श्रमिकों का करुण कंदन, चीख पुकार उसे सुनाई नहीं दे रही है।
राज्यों और जिलों की सीमा पर मजदूरों को रोके जाने पर रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि संविधान जब खुद हमें भारत में कही भी बसने जाने का मौलिक अधिकारी देता है तो सरकार एक राज्य से दूसरे राज्य या एक जिले से दूसरे जिले जाने की अनुमति क्यों नहीं दे रही है।
वहीं कहते हैं कि आज प्रवासी मजूदरों को एक दिशा देने की जरूरत है जरुरत इस बात की है कि इन मजदूरों की ऊर्जा का प्रयोग किया जाएगा और गांव कस्बों और नगरों को खड़ा किया जाए। इन मजदूरों ने जिस तरह साहस के साथ देश की सड़कों को अपने पैरों से नाप दिया है उस ऊर्जा का देश के नव निर्माण में इस्तेमाल होना चहिए न कि एक विप्लव के निमंत्रण देने में।