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Last Modified: शुक्रवार, 6 जुलाई 2018 (16:36 IST)

पाताल के घुप्प अंधेरे में कैसे बदल जाता है ज़िंदगी का गणित

पाताल के घुप्प अंधेरे में कैसे बदल जाता है ज़िंदगी का गणित | thailand cave
- लिंडा गेडेज़
 
अंदर घुप्प अंधेरा है. सीलन है. वहां से निकलना बेहद ख़तरनाक है। लेकिन, उत्तरी थाईलैंड में एक गहरी गुफा में फंसे 12 लड़कों और उनके फ़ुटबॉल कोच की ख़ुशक़िस्मती ये है कि दुनिया को पता है कि वो वहां फंसे हैं। सोमवार को जब उनके ज़िंदा होने और गुफा में फंसे होने का पता चला, तो, उसके बाद से उन लड़कों ने खाना भी खाया है। और, उनकी सेहत की पड़ताल भी की गई है। मेडिकल जांच से पता चला है कि किसी भी बच्चे की हालत गंभीर नहीं है।
 
 
लेकिन, मौसम विभाग ने उस इलाक़े में अभी और बारिश की आशंका जताई है। ऐसे में सैन्य अधिकारियों ने चेतावनी दी है कि इन बच्चों को गुफा से निकालने में चार महीने तक का वक़्त लग सकता है। क्योंकि उन्हें निकालने के लिए गुफ़ा में भरे पानी का स्तर कम होने का इंतज़ार करना पड़ेगा।
 
 
सैकड़ों मीटर गहरी गुफा में फंसे होने की मनोवैज्ञानिक तकलीफ़ के अलावा, सूरज की रोशनी की कमी से इन बच्चों के साथ और अजीबो-ग़रीब परेशानियां खड़ी हो सकती हैं। इनके शरीर की अंदरूनी घड़ी का हिसाब-किताब गड़बड़ हो सकता है। उनके दिन और महीने का अंदाज़ा ग़लत हो सकता है। इन बदलावों की वजह से गुफा में फंसे बच्चे डिप्रेशन और अनिद्रा के शिकार हो सकते हैं। उन बच्चों के बीच आपसी झगड़े भी खड़े हो सकते हैं।
 
 
लगातार अंधेरे में रहने का असर
लंबे वक़्त तक अंधेरे में रहने से इन लड़कों के शरीर और दिमाग़ पर क्या असर होगा? वो इन हालात का कैसे सामना करेंगे? वैज्ञानिक इस बारे में क्या जानते-समझते हैं? और किन क़दमों के ज़रिए इन बच्चों को हालात से लड़ने में मदद की जा सकती है?
 
 
ये पहली बार नहीं है कि लोग महीनों तक के लिए किसी गुफा में फंस गए हों। 1962 में एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक मिशेल सिफ़्र ने ख़ुद ही नीस शहर के नीचे एक ग्लेशियर में ख़ुद को क़ैद कर के रहने का फ़ैसला किया था। मिशेल ने उस ग्लेशियर में क़ैद रहकर क़रीब दो महीने बिताए थे।
 
 
इस दौरान मिशेल के पास न तो घड़ी थी, न कैलेंडर, न सूरज की रोशनी। उनसे कोई मिलने भी नहीं जाता था। तनहाई में पाताल में क़ैद रहने के दौरान मिशेल ने अपने शरीर के हिसाब से ख़ुद को चलाया।
 
 
वो अपनी दिनचर्या को नोट करते रहते थे। जब भी वो सोकर जागते, खाना खाते या सोने जाने से पहले अपने साथियों को फ़ोन करते थे। बातचीत में कभी भी मिशेल के साथी उन्हें दिन या रात या फिर तारीख़ के बारे में नहीं बताते थे।
 
 
लेकिन, दो महीने पूरे होने पर जब मिशेल के साथियों ने बताया कि अब दो महीने पूरे हो गए हैं, तो मिशेल को उनकी बातों पर यक़ीन ही नहीं हुआ। उन्हें लग रहा था कि अभी एक महीना ही पूरे हुआ है। लगातार अंधेरे में रहने की वजह से दिन-रात और वक़्त की उनकी समझ गड़बड़ा गई थी।
 
 
गड़बड़ा गया समय का हिसाब
इसी तरह जब गोताखोर, सोमवार को थाईलैंड में गुफा में फंसे बच्चों के पास पहुंचे, तो उनका पहला सवाल था कि वो कितने वक़्त से वहां फंसे हैं। मिशेल सिफ़्र ने ग्लेशियर के भीतर क़ैद के दौरान जो नोट लिखे थे, उनसे एक दिलचस्प बात और मालूम हुई।
 
 
वो धरती पर, खुले में रहने के दौरान भी दिन का एक तिहाई वक़्त सोने में बिताते थे। और, जब वो पाताल में ग्लेशियर के भीतर रह रहे थे, तब भी कमोबेश इतने ही समय सोते थे। लेकिन उनके सोने का चक्र 24 घंटे का नहीं, बल्कि 24 घंटे और 30 मिनट का हो गया था।
 
 
यानी, वो अपने शरीर के अंदरूनी समय के हिसाब से जी रहे थे, न कि, आज के दौर की घड़ियों के हिसाब से। घड़ियां ही आज हमारी ज़िंदगी का पहिया चलाती हैं। हमारा रोज़मर्रा का जीवन घड़ियों के हिसाब से चलता है। और घड़ियां, सूरज के उगने और अस्त होने के हिसाब से चलती हैं।
 
 
जो लोग सूरज की रोशनी नहीं देख पाते, उनके शरीर की अंदरूनी बॉडी क्लॉक गड़बड़ा जाता है। नेत्रहीन लोगों में भी ऐसा देखने को मिलता है। हर इंसान की बॉडी क्लॉक अलग होती है। किसी की 24 घंटे से ज़्यादा के चक्र वाली होती है, तो, किसी की कम। किसी का शरीर 25 घंटे की क्लॉक के हिसाब से चलता है।
 
 
नेत्रहीन लोग बाहरी दुनिया की घड़ी के हिसाब से नहीं चलते, बल्कि उससे आज़ाद अपनी अंदरूनी बायोलॉजिकल क्लॉक से चलने लगते हैं। इसका असर ये होता है कि हर गुज़रते दिन के साथ उनका सोने का वक़्त थोड़ा आगे खिसकता जाता है।
 
 
अब अगर किसी के शरीर की घड़ी 24.5 घंटे के चक्र से चलती है, तो, वो सोमवार को सुबह 8 बजे उठेगा. मंगलवार को 8.30 बजे और बुधवार को सुबह 9 बजे-ऐसा अगले दो हफ़्ते तक होता रहता है, तो एक दिन ऐसा आता है जब वो सोचता है कि सुबह के आठ बज रहे हैं, जबकि असल में पिछले दिन की रात के आठ बजे होते हैं।
 
कैसे काम करती है शरीर के भीतर की घड़ी?
इसे वैज्ञानिक 'नॉन स्लीप डिसॉर्डर' कहते हैं। जब किसी इंसान के शरीर की अंदरूनी घड़ी बाहरी दुनिया से क़दम ताल मिलाकर चल रही होती है, तो उसे अच्छी नींद आती है। लेकिन, धीरे-धीरे जब दोनों घड़ियों में फ़ासला बढ़ जाता है, तो, उस शख़्स को रात में कम और दिन में नींद ज़्यादा आने लगती है। इस बीमारी की तुलना लंबे वक़्त तक विमान में उड़ने से होने वाले 'जेटलैग' से की जाती है।
 
 
हमारे शरीर की अंदरूनी घड़ी, हमारे दिमाग़ में लगी एक छोटी-सी चिप से चलती है। वैज्ञानिक भाषा में इसे सुप्राकियास्मैटिक न्यूक्लियस या SCN कहते हैं। ये हमारी दोनों भौहों के ठीक बीच में स्थित जगह में क़रीब दो सेंटीमीटर की गहराई पर स्थित होती है। बाहरी दुनिया से इसका वास्ता, हमारी आंखों की रेटिना के पीछे स्थित गैंग्लियॉन सेल्स के ज़रिए पड़ता है।
 
 
ये कोशिकाएं रोशनी को लेकर बेहद संवेदनशील होती हैं। ये दिन और रात की रोशनी का फ़र्क़ करके हमारे दिमाग़ में लगी घड़ी वाली चिप यानी SCN तक जानकारी पहुंचाती हैं। यूं तो हम सब के शरीर की अंदरूनी घड़ी 24 घंटे के चक्र से थोड़ी ज़्यादा तेज़ चलती है। लेकिन, जब भी हमारी आंखों पर सूरज की रोशनी पड़ती है, तो इससे हमारे शरीर की अंदरूनी घड़ी भी उसके हिसाब से फिर से सेट हो जाती है।
 
 
हर रोज़ सूरज की रोशनी पड़ने पर दिमाग़ की ये चिप यानी SCN फिर से बाहरी दुनिया के समय के हिसाब से ख़ुद को अभ्यस्त कर लेती है। अगर आप ज़मीन के भीतर कहीं फंस जाते हैं। या, किसी की आंखें इतनी चोटिल हो जाती हैं कि वो रोशनी को महसूस नहीं कर पातीं, तो SCN और बाहरी दुनिया का ये तालमेल ख़त्म हो जाता है। फिर हमारे दिमाग़ की घड़ी अपनी मर्ज़ी से चलने लगती है।
 
 
इस वक़्त थाईलैंड की गुफा में फंसे लड़कों के साथ यही हो रहा होगा।
 
बच्चों के लिए क्या समस्या हो सकती है?
इस बात की ज़रा भी संभावना नहीं है कि उन सभी 12 लड़कों की अंदरूनी घड़ी एक जैसी चल रही होगी, तो, उनके सोने-जागने का समय भी धीरे-धीरे अलग-अलग हो जाएगा। छोटी सी जगह में सोने-जागने का ये फ़र्क दिक़्क़तें पैदा कर सकता है। क्योंकि जब कुछ लोग सोना चाहेंगे, तो, कुछ जाग रहे होंगे।
 
 
SCN हमारे शरीर की मुख्य घड़ी है। लेकिन, दूसरी मांसपेशियों की भी अपनी छोटी-छोटी घड़ियां होती है। आम तौर पर ये घड़ियां SCN से क़दमताल मिलाती चलती हैं। लेकिन, लंबे वक़्त तक अंधेरे में रहने से शरीर की इन घड़ियों का आपसी तालमेल भी बिगड़ सकता है। पुराने रिसर्च बताते हैं कि शरीर की इन सिर्केडियन क्लॉक का तालमेल बिगड़ने से डिप्रेशन, अनिद्रा, खान-पान की दिक़्क़त, हॉरमोन संबंधी परेशानियां और किसी भी चीज़ पर फ़ोकस करने में दिक़्क़त जैसी बीमारियां हो जाती हैं।
 
 
लेकिन, इससे निपटने के नुस्खे भी हैं।
 
जब साल 2010 में चिली में 33 खदान मज़दूर 69 दिनों तक अंधेरे में फंसे रहे थे, तो, अंदर ख़ास तरह की सिर्केडियन रोशनी खदान के भीतर भेजी गई थी, ताकि खदान के अंदर सूरज की रोशनी और क़ुदरती अंधेरी रात जैसा माहौल बनाए रखा जाए।
 
 
थाईलैंड में भी इस रणनीति पर अमल किया जा सकता है। अगर अंधेर में हम इतनी चमकीली रोशनी में रहें कि वो सूरज की रौशनी जैसी हो, तो हमारे दिमाग़ की घड़ी वाली चिप यानी SCN ख़ुद को इस रोशनी के हिसाब से रोज़ाना रिसेट कर लेगी। इससे उन लड़कों के शरीर की घड़ी बाहरी दुनिया की घड़ी के हिसाब से चलती रहेगी। अंधेरे का ज़्यादा बुरा असर उनके शरीर और दिमाग़ पर नहीं पड़ेगा।
 
(ये लिंडा गेडेज़ की मूल स्टोरी का अक्षरश: अनुवाद नहीं है)
 
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