- नील स्टेनबर्ग (बीबीसी फ़्यूचर)
केविन पोर्टिलो रोज़ाना मुस्कुराने की प्रैक्टिस करते हैं। आम तौर पर केविन दांतों को ब्रश करने के बाद मुस्कुराने का अभ्यास करते हैं। या फिर कभी-कभार बाथरूम के पास से गुज़रते हुए, या कभी सामने आईना दिख जाने पर। वो अपने मुंह के दोनों कोनों पर अंगुगलियां लगाकर ऊपर की तरफ़ हल्के हाथों से खींचते हैं। फिर वो होठों को इस तरह बाहर निकालते हैं, जैसे किस करने जा रहे हों। फिर केविन मुंह से ओ अक्षर जैसा आकार बनाते हैं। रोज़ाना मुस्कुराने के इस अभ्यास का मक़सद है अपने चेहरे की मांशपेशियों में लोच पैदा करना।
केविन रोज़ाना जो अभ्यास करते हैं उसमें कई बार मोनालिसा जैसी बंद मुंह वाली मुस्कुराहट भी होती है और खुल कर दांत दिखाते हुए हंसने वाली मुस्कान भी। केविन को मुस्कुराने की ये प्रैक्टिस रोज़ाना करने को कहा गया है। लेकिन अभी उनकी उम्र ही क्या है। बस 13 बरस। खेलने-कूदने में कई बार केविन भूल जाते हैं कि उन्हें मुस्कुराने की वर्ज़िश भी करनी है।
मुस्कुराने की वजह
केविन कहते हैं कि, "मुझे अपने गाल खींचने का अभ्यास करना होता है। मैं ये काम कुछ मिनट करता हूं। मुझे ये प्रैक्टिस रोज़ करनी होती है।" ऐसा नहीं है कि केविन को इस प्रैक्टिस की अहमियत नहीं पता। बस, उम्र का असर है कि वो ये ज़रूरी काम करना भूल जाते हैं। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि मुस्कुराने की प्रैक्टिस करने से केविन के जबड़े दुखने लगते हैं।
केविन, अमेरिका के न्यू जर्सी में पैदा हुए थे। उन्हें पैदाइश से ही बेहद दुर्लभ तरह का कैंसर था। इसका नाम है-कापोसिफॉर्म हीमैंगियोएंडोथेलियोमा। मांसपेशियों की ख़राबी से होने वाले इस कैंसर की वजह से केविन के चेहरे की बांयी तरफ़ बुरा असर पड़ था। उनकी बांयी आंख बंद थी और नाक दाहिनी तरफ़ खिंच गई थी।
केविन के पैदा होने के तुरंत बाद डॉक्टरों ने उन्हें फिलाडेल्फिया के चिल्ड्रेन अस्पताल भेज दिया था। उसके बाद केविन को दोबारा उनकी मां ने तब देखा, जब वो आठ साल के हो चुके थे। डॉक्टरों ने केविन के माता-पिता को बता दिया था कि उनके बचने की उम्मीद बहुत कम है। लेकिन केविन बच गए। लेकिन बड़े से ट्यूमर और लंबे वक़्त तक चले कैंसर के इलाज की वजह से वो एक ऐसा बुनियादी नेमत से महरूम थे, जो हर इंसान को मिलती हैः मुस्कुराहट।
मुस्कुराने का इतिहास और वर्तमान
शारीरिक तौर पर मुस्कुराने की प्रक्रिया एकदम आसान और साफ़ है। इंसान, जो भाव चेहरे से ज़ाहिर करता है, उसे 17 मांसपेशियां नियंत्रित करती हैं। इसके अलावा एक और मांसपेशी होती है-ऑर्बिक्यूलारिस ओरिस, ये मांसपेशी हमारे मुंह के चारों तरफ़ एक घेरा बनाती है। इंसान की जो बुनियादी मुस्कान है जिसमें चेहरा ऊपर की तरफ़ खिंचता है, वो मांसपेशियों की दो जोड़ियों से बनती है। इन्हें हम साइंस की ज़बान में ज़ाइगोमैटिकस मेजर और माइनर कहते हैं।
ये दोनों मांसपेशियां हमारे मुंह के कोनों को कनपटी से जोड़ती हैं। इन्हीं की वजह से हमारे होंठ ऊपर की तरफ़ खिंचते हैं। आप के जज़्बात अगर ज़्यादा गहरे हैं, तो आप खुल कर मुस्कुराते हैं। ऐसी सूरत में आपकी एक और मांसपेशी-लेवाटर लैबी सुपीरियॉरिस में हलचल होती है, जो होंठों और दूसरी पेशियों को ऊपर की तरफ़ खींचती है।
मुस्कान से जुड़ी इसके आगे की कहानी, बेहद राज़दार है। और, दिलचस्प भी। इंसान के चेहरे की इन मांसपेशियों के खिंचकर मुस्कान में तब्दील होने का बेहद घुमावदार इतिहास है, जो इंसानियत के विकास के पहिये की तरह घूमता आया है। इसकी मिसालें हम ढाई हज़ार साल पहले यूनान में बने युवाओं के हल्की मुस्कान वाले मशहूर बुतोंस 'कोऊरॉस' से लेकर आज डिजिटल युग में ऑनलाइन संवाद का अहम हिस्सा बन चुकी इमोजी तक में पाते हैं।
मुस्कुराहट सबसे बेहतरीन भाव
मर्दों और औरतों की मुस्कुराहट में फ़र्क़ से लेकर तमाम देशों की संस्कृतियों में मुस्कुराने का लंबा-चौड़ा फ़ासला है। मसलन, महिलाएं, मर्दों के मुक़ाबले ज़्यादा मुस्कुराती हैं। मुस्कुराहट अपने-आप में पूरा संवाद है। जज़्बात का बिन-बोला इज़हार है।
आप अकेले में बहुत कम ही मुस्कुराते हैं। लोगों के साथ होते हैं, तो मुस्कान ख़ुद-ब-ख़ुद आप के चेहरे पर बिखर जाती है। दूसरों से बात करते वक़्त, ज़रा सी बात पर लंबी-चौड़ी स्माइल लोगों के चेहरे पर प्रकट हो जाती है। वैज्ञानिकों ने साबित किया है कि किसी और भाव के मुक़ाबले मुस्कान को लोग सबसे जल्दी समझ लेते हैं।
अब इसका राज़ क्या है? ये पता नहीं।
अमेरिका की ओहायो यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले एलेक्सिस मार्टिनेज़ कहते हैं कि, 'हम मुस्कान को बहुत अच्छे से समझ लेते हैं। लेकिन, ऐसा क्यों होता है, इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं। मैं आप को कोई तस्वीर केवल 10 मिलीसेकेंड के लिए भी दिखाऊं तो आप उस की मुस्कान को फटाक से पकड़ लेंगे। इंसान के किसी और भाव के साथ ऐसा नहीं है'।
एलेक्सिस मार्टिनेज़ कहते हैं कि डर का भाव समझने में हमें मुस्कान के मुक़ाबले दस गुना ज़्यादा वक़्त लगता है। वो कहते हैं कि डर को समझना हमारी ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरत है। मगर हम मुस्कुराहट को जल्दी समझ लेते हैं।
दूसरे तजुर्बे बताते हैं कि इंसान के चेहरे पर आने वाले तमाम भावों में से मुस्कुराहट को सबसे जल्दी पकड़ लिया जाता है। मार्टिनेज़ जैसे वैज्ञानिक कहते हैं कि मुस्कुराना, या भंवें तानकर नाराज़गी ज़ाहिर करने का ये इंसानी तरीक़ा उस दौर का है, जब हमारे पूर्वजों ने बोलना नहीं सीखा था। वैसे इंसान की भाषा का इतिहास भी क़रीब एक लाख साल पुराना है। लेकिन हमारे चेहरे से भाव प्रकट करने का इतिहास तो और भी पहले का है। शायद आदि मानवो के दौर का।
मार्टिनेज़ कहते हैं कि, 'इंसान ने बोलना सीखने से पहले चेहरे से ही भाव प्रकट करना सीखा'। किसी भी मुस्कुराते चेहरे के जज़्बात समझना बहुत बड़ी चुनौती है। कला के इतिहास से लेकर, आज रोबोटिक मशीनों के दौर तक, मुस्कुराहट को सही-सही समझ पाना चैलेंज बना हुआ है।
भारतियों के मुस्कान पर भरोसा क्यों नहीं?
2016 में 44 अलग-अलग संस्कृतियों से ताल्लुक़ रखने वाले हज़ारों लोगो को आठ चेहरों की तस्वीरें दिखाईं। इन आठ तस्वीरों में से चार मुस्कुराहट वाली थीं। और चार बिना मुस्कान वाली। ज़्यादातर लोगों को मुस्कुराती तस्वीरें ज़्यादा ईमानदार लगीं, बनिस्बत उन तस्वीरों के, जो मुस्कान वाली नहीं थीं।
मुस्कान समझने का ये फ़ासला स्विटज़रलैंड, ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस के लोगों के बीच बहुत ज़्यादा था। वहीं पाकिस्तान, रूस और फ्रांस में बहुत कम था। वहीं ईरान, भारत और ज़िम्बाब्वे जैसे देशों में किसी ने मुस्कुराहट पर भरोसा नहीं दिखाया।
आख़िर क्यों?
इस सवाल का जवाब पेचीदा है। रिसर्चरों का मानना है कि जिन देशों में भ्रष्टाचार ज़्यादा है, वहां पर लोगों को मुस्कुराहट पर भी भरोसा नहीं। पश्चिमी समाज में जब धार्मिकता ज़्यादा थी, तो मुस्कुराने को बुरा माना जाता था। क्योंकि मुस्कुराने के बाद हंसने की बारी आती थी। पश्चिमी देशों में उस दौर में हंसना तो नफ़रत की नज़र से देखा जाता था।
हम फ्रांस की क्रांति के पहले की कलाकृतियों पर नज़र डालें, तो मुस्कुराहट लिए हुए जो भी तस्वीरें गढ़ी गईं, वो नीच, शराबी और घटिया दर्ज़े के लोगों की थीं। वहीं पूर्वी सभ्यता में मुस्कुराहट को ज्ञान का प्रतीक माना जाता था। जैसे बौद्ध धर्म के स्माइलिंग बुद्धा को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। हल्की सी मुस्कुराहट लिए देवताओं की मूर्तियां हमारे देश में बहुत देखने को मिलती हैं। इसके बरक्स ईसा मसीह रोते तो हैं, मगर मुस्कुराते नहीं।
यही हाल केविन पोर्टिलो का भी था। केविन भी मुस्कुरा नहीं पाते थे। सिर्फ़ पांच हफ़्ते की उम्र में केविन की कीमोथेरेपी शुरू हो गई थी। इसके अलावा विनक्रिस्टाइन नाम की कैंसर निरोधक दवा दी जाती थी। ये दवा इतनी तेज़ होती है कि इससे हड्डियों में दर्द होने लगता है। चमड़ी छिल जाती है। डॉक्टरों ने केविन की मां को आगाह किया था कि इन दवाओं के असर से केविन अंधे, बहरे भी हो सकते हैं और उन्हें चलने में भी दिक़्क़त हो सकती है।
अब ये ट्यूमर का असर था या फिर दवाओं का, केविन के सिर से होकर चेहरे की तरफ़ आने वाली तंत्रिका सूख गई। ऐसा कई बार मीबस सिंड्रोम की वजह से भी होता है। लेकिन केविन के मामले में इसके लिए ट्यूमर को ज़िम्मेदार माना गया। इस सातवीं तंत्रिका के सूख जाने का नतीजा ये होता है कि चेहरे को लकवा मार जाता है। जिसके साथ भी ऐसा हादसा होता है, वो न मुस्कुरा सकता है, न ग़ुस्से का इज़हार कर सकता है। और न ही वो आंखें मटका सकता है।
मीबस सिंड्रोम से पीड़ित टेक्सस के निवासी रोलैड बीएनवेन्यू कहते हैं कि आपका चेहरा बस एक भावहीन मुखौटा रह जाता है। रोलैंड कहते हैं कि अगर आप मुस्कुरा नहीं सकते, तो लोग आप को ग़लत समझ सकते हैं। लोग सोचते हैं कि जो मुस्कुरा नहीं पाता, क्या उसकी दिमाग़ी हालत ठीक नहीं है। वो आपकी अक़्लमंदी पर भी सवाल उठाने लगते हैं। क्योंकि सामने वाले के भावहीन चेहरे की वजह से उन्हें अजीब महसूस होता है।
बीमारी की वजह से जो लोग मुस्कुरा नहीं पाते, उन्हें और भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। केविन की मां सिल्विया कहती हैं, 'वो दूसरे बच्चों से अलग था। चार साल तक उसे ट्यूब से खाना दिया गया। वो सामान्य बच्चों की तरह नहीं था। क्योंकि हर कुछ घंटों के बाद उसे खाने के लिए मशीन से जोड़ा जाता था। दूसरे बच्चे उसे देखकर पूछते थे कि हुआ क्या है'।
लेकिन, जब केविन ख़ुद से खाने लगा। स्कूल जाने लगा और खेलने-कूदने लगा। तो उसे फुटबॉल खेलना और ड्रम बजाना बहुत पसंद आता था। लेकिन, मुस्कुरा न पाने की कमी उसे शिद्दत से खलती थी। ये दुनिया जिसे पिक्चर परफेक्ट मुस्कान की तलब है, वहां केविन का भावहीन चेहरा अलग-थलग पड़ जाता था।
केविन बताते हैं, 'मैं अपने चेहरे के बांयी तरफ़ नहीं मुस्कुरा पाता था। केवल दांयी तरफ़ मुस्कान होती थी। मेरी अजीब मुस्कान देखकर लोग पूछते रहते थे कि मुझे हुआ क्या है। मुझे हर किसी को बताना पड़ता था कि मै पैदा ही ऐसा हुआ था'।
अगर आप मुस्कुरा नहीं सकते, तो आप नुक़सान में रहेंगे
चेहरे पर लकवा मारने की बीमारी बहुत दुर्लभ है। लोगों को न इसके असर का पता होता है, न नतीजे का। तो ये जन्मजात हो या बाद में हो, समाज में इसके प्रति जागरूकता बेहद कम है। बाद के दिनों में चेहरे को लकवा मारने को बेल्स पैल्सी कहते हैं। इसमें चेहरे की तंत्रिकाएं झुलस जाती हैं। नतीजा ये होता है कि चेहरे के एक तरफ़ की चमड़ी लटक जाती है। ऐसी बीमारी लोगों को पंद्रह से 60 साल की उम्र के बीच में होती है।
ज़्यादातर मामलों में ये बीमारी ठीक वैसे ही ख़ुद-ब-ख़ुद ग़ायब हो जाती है, जैसे आती है। डॉक्टरों का मानना है कि ये वायलर इन्फेक्शन से होता है। इसके अलावा कई बार हादसों की वजह से भी बेल्स पैल्सी हो जाती है। दिल के दौरे से भी बहुत से लोगों की मुस्कान पर बुरा असर पड़ता है। इसमें किसी के होंठ या चेहरे का एक हिस्सा अचानक लटक जाता है। दौरा पड़ने का ये अहम लक्षण है। किसी को भी ऐसी हालत मे देखें, तो उसे फ़ौरन मेडिकल मदद मुहैया करानी चाहिए।
किसी भी उम्र में मुस्कुराहट को खोना बहुत बड़ा झटका है। लेकिन कम उम्र में किसी के साथ ऐसा हो जाए, तो और भी बुरा होता है। क्योंकि लड़कपन में ही लोग नए-नए रिश्ते बनाते हैं।
फिलाडेल्फ़िया के चिल्ड्रेन अस्पताल के सुपरवाइज़र टामी कोनिएक्नी कहते हैं कि, 'मुस्कुराने की क्षमता गंवाना बहुत बड़ी मुसीबत है। आप किसी को देखते हैं तो सबसे पहले ये देखते हैं कि वो मुस्कुरा रहा है या नहीं। अगर आप के चेहरे के भाव किसी को समझ में नहीं आ रहे, तो ये बहुत बड़ा सदमा है। बच्चों के लिए तो ये और बड़ी मुसीबत है'।
फोटोशॉपिंग के इस दौर में बहुत से बच्चे और बड़े भी सोशल मीडिया पर बनावटी मुस्कान वाली तस्वीरें डालते हैं। मगर, असल ज़िंदगी में तो ये बहुत बड़ी चुनौती है।
कनाडा के प्लास्टिक सर्जन रोनाल्ड ज़ुकर कहते हैं कि, 'इंसानों के लिए चेहरा देखकर भाव से संवाद करना बहुत अहम है। अगर आप मुस्कुरा नहीं सकते, तो आप नुक़सान में रहेंगे। लोग आप के जज़्बात ही नहीं समझ पाएंगे। लोगों को लगेगा कि आप की बातचीत में दिलचस्पी ही नहीं है'। मुस्कुराहट की इतनी अहमियत होने के बावजूद, जो बच्चे मुस्कुरा नहीं पाते, उनके मां-बाप प्लास्टिक सर्जरी कराने से पहले बच्चे के बड़े होने का इंतज़ार करते हैं। ताकि बच्चे ख़ुद ही मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार हो जाएं।
केविन ने कराई प्लास्टिक सर्जरी
केविन के साथ भी ऐसा ही हुआ। वो ख़ुशदिल बच्चे हैं। खेलने-कूदने और पढ़ने वाले। मस्तमौला। मगर, स्कूल में बच्चे उन्हें चिढ़ाते थे। 10 साल की उम्र में केविन ने ख़ुद अपने मां-बाप से कहा कि वो प्लास्टिक सर्जरी कराना चाहते हैं। केविन को अच्छे से पता था कि ये लंबी, थकाऊ और दर्द भरी प्रक्रिया है। मगर वो इसके लिए तैयार थे।
अक्टूबर 2015 में फिलाडेल्फिया के चिल्ड्रेन हॉस्पिटल में केविन के चेहरे की सर्जरी शुरू हुई। फुओंग न्गूएन नाम के प्लास्टिक सर्जन ने केविन की दाहिनी कुहनी से एक तंत्रिका निकाल कर उनके चेहरे पर लगाई। क़रीब एक साल तक इस तंत्रिका को बढ़ने दिया गया। इसकी रफ़्तार किसी घोंघे की गति से भी 24 हज़ार गुनी धीमी थी। इस दौरान डॉक्टर केविन का चेहरा छूकर अंदाज़ा लगाते थे कि ये तंत्रिका विकसित हो रही है या नहीं।
जहां से ये तंत्रिका निकाली गई थी, केविन के उस हाथ का छोटा सा हिस्सा सुन्न हो गया था। मगर अभी तो उसके बढ़ने की उम्र है। सो, डॉक्टरों को उम्मीद थी कि वो जल्द ही ठीक हो जाएगा। जब, डॉक्टर फुओंग को पक्का हो गया कि केविन के चेहरे की तंत्रिका विकसित हो रही है। तो, उन्होंने अगस्त 2016 में दूसरी सर्जरी की। इस बार केविन की जांघ से मांसपेशी का एक टुकड़ा निकालकर उनके मुंह पर इस तरह लगाया गया कि वो उनके मुंह के इर्द-गिर्द घेरा सा बना ले।
अगले एक साल में केविन के चेहरे पर जुम्बिश होने लगी। शुरुआत में लगा कि केविन के चेहरे के ऊपर कोई चीज़ चिपका दी गई है। लेकिन, धीरे-धीरे वो मांसपेशियां चलने लगीं और केविन मुस्कुराने लगे। इसके बाद केविन को नियमित रूप से मुस्कुराने की प्रैक्टिस कराई जाने लगी, ताकि मांसपेशियां ठीक से काम करने लगें।
प्लास्टिक सर्जरी के बाद ये थेरेपी ज़रूरी होती हैं। ताकि सर्जरी कामयाब रहे। अब केविन चुटकुले सुनकर मुस्कुराने लगे हैं। केविन कहते हैं कि मुस्कुराहट आने की वजह से उनका शर्मीलापन कम हुआ है।
पहले जब वो हंसते थे, तो उनका हंसना अजीब लगता था। मगर अब वो आम इंसानों की तरह हंसते-मुस्कुराते हैं। केविन कहते हैं कि, 'अब गोल होने पर मैं मुस्कुरा देता हू। मानो लोगों को बता रहा हूं कि गोल कर के मैं ख़ुश हुआ'।
साहिर लुधियानवी ने यूं ही नहीं लिखा।।।
धड़कने लगे दिल के तारों की दुनिया, जो तुम मुस्कुरा दो।