सीमा कोटेका (मिडलैंड संवाददाता)
मैं उस वक़्त बस एक 12 साल की बच्ची थी. उस दिन मैं घर पर थी। टीवी पर संगीत से जुड़ा कोई कार्यक्रम चल रहा था कि तभी किचन से किसी के चीखने की आवाज़ आई। आवाज़ सुनते ही मैं दौड़ते हुए किचन में पहुंची तो वहां पर अपनी मां को हाथों में फ़ोन पकड़े हुए ज़मीन पर गिरे हुए देखा।
उन्होंने मुझे देखकर मुझसे कहा कि, "तुम्हारी मौसी नहीं रहीं।" इसके बाद वह एशियाई लोगों के चिरपरिचित अंदाज़ में सुबक-सुबककर रोने लगीं। मेरे दिमाग़ में क्यों और कैसे सवाल घूम रहे थे।
आख़िर उन्होंने ऐसा क्यों किया?
बाद में जो बात पता चली वो इससे भी ज़्यादा असहज करने वाली थी। हमें पता चला कि उन्होंने आत्महत्या की है। मैं अगले कुछ महीने और सालों तक ये सोचती रही कि उन्होंने ऐसा क्यों किया?
क्या कहते हैं आधिकारिक आंकड़े
वो ज़रूर ही अपनी ज़िंदगी की दुश्वारियों से निजात पाना चाहती होंगी। ब्रिटेन में साल 2016 में 1,457 महिलाओं ने आत्महत्या की। हालांकि, ये साफ़ नहीं है कि इनमें से कितनी महिलाएं दक्षिण एशियाई मूल की थीं।
लेकिन आंकड़े ये बताते हैं कि एशियाई मूल के लोग अपनी मानसिक सेहत को लेकर खुलकर बात करने में सहज नहीं होते हैं। ब्रिटेन के राष्ट्रीय स्वास्थ्य स्कीम यानी एनएचएस के आंकड़े इस मामले में अहम जानकारी देते हैं।
ये आंकड़े बताते हैं कि एशियाई या काले लोगों की तुलना में गोरों की मदद मांगने की संभावना दो गुना ज़्यादा होती है। ऐसे में एक तर्क ये हो सकता है कि अगर आप मदद नहीं मांगते हैं तो आप ऐसे नकारात्मक विचारों का सामना कैसे करते हैं।
किंग्स कॉलेज लंदन में मानसिक सेहत से जुड़े मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर दिनेश भुगरा कहते हैं कि इसमें कोई शक नहीं है कि इस क्षेत्र के लोगों के साथ आत्महत्या एक समस्या बनी हुई है।
वो कहते हैं, "दक्षिण एशियाई महिलाओं में आत्महत्याओं की कोशिश गोरी महिलाओं की तुलना में ढाई गुना ज़्यादा हैं और 18 से 24 साल की उम्र वाली महिलाओं का समूह ज़्यादा जोखिम भरी स्थिति में है। ये काफ़ी कुछ सांस्कृतिक संघर्ष की वजह से भी है। एक पेशेवर के रूप में नौकरी करने के बाद घर आकर खाना बनाना, पश्चिम और पूरब की दुनिया के बीच तालमेल बिठाने का संघर्ष काफ़ी मुश्किल भरा हो सकता है।"
मैंने अक्सर सुना है कि ब्रितानी ढंग से ज़िंदगी जीने के आदी लोगों को अपने समुदाय के बुज़ुर्गों की बनाई रीतियों का पालन करने में कितनी मुश्किल होती है।
'ख़ानदान की इज़्ज़त' की भूमिका
अपने परिवार और ख़ानदान को शर्मिंदा न करने की विवशता ऐसे युवाओं पर और ज़्यादा दबाव बनाती है। ब्रिटेन में इस समुदाय के बुज़ुर्ग लोगों में रुढ़िवादी विचारों की प्रमुखता है।
ये पीढ़ी ब्रिटेन में पैदा हुए और शिक्षित हुए युवाओं, जो शायद दूसरी संस्कृतियों को लेकर ज़्यादा खुले हुए हैं, को अपने से दूर जाता हुआ महसूस कर रही है। मेंटल हेल्थ चैरिटी संस्था 'माइंड' की समरूपता और सुधार शाखा के प्रमुख मार्सल वीग कहते हैं कि सबूत यही तस्वीर बयां करते हैं।
वह कहते हैं, "दक्षिण एशियाई समुदायों से आने वाले लोग अपने समुदाय और परिवार की अहमियत को बयां करते हुए कहते हैं कि उनकी मानसिक सेहत के लिए परिवार एक बहुत ही सकारात्मक चीज़ हो सकता है। लेकिन कई लोगों के लिए परिवार की इज्ज़त और रुतबा बनाए रखने की ज़रूरत उन्हें अपनी भावनाओं के प्रति उदासीन बना सकता है।"
"इससे पहले हुए शोध बताते हैं कि ऐसी भावनाओं को दबाने से चिंता का स्तर बढ़ सकता है और दक्षिण एशियाई महिलाओं के ख़ुद को नुक़सान पहुंचाने की दर में बढ़ोतरी हो सकती है।"
दक्षिण एशिया में आत्महत्या
ऐसे में दक्षिण एशियाई लोगों में आत्महत्या और शर्म जैसी समस्याओं का निदान क्या हो सकता है। ब्रेडफॉर्ड पश्चिम में लेबर पार्टी की सांसद नाज़ शाह मानती हैं दक्षिण एशियाई संस्कृतियां अभी भी मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याओं से बेख़बर हैं।
वो बताती हैं कि "ये समस्या अब और बिगड़ती जा रही है। कुछ दक्षिण एशियाई भाषाओं में डिप्रेशन के लिए शब्द भी नहीं है। लोगों को इस बारे में अवगत कराने के लिए काफ़ी काम किए जाने की ज़रूरत है जिससे कि लोग मदद के लिए आगे आ सकें।"
ईस्ट मिडलैंड में रहने वाली 21 साल की रहेमा इस बात से सहमत दिखाई देती हैं। उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी गंभीर डिप्रेशन के झटकों से जूझने के बाद आत्महत्या के इरादे से जंग लड़ी और आत्महत्या वाले विचारों का सामना किया।
वो बताती हैं, "इसमें ज़रूरत इस बात की है कि कोई प्रसिद्ध एशियाई व्यक्ति दुनिया के सामने आकर खुलकर कहे, 'अरे, दुखी होना और अवसाद में आना आम बात है क्योंकि ये मुझे हुआ है और आप इस बारे में लोगों को भी बता सकते हैं और बिना डरे कि कोई आपको क्या समझेगा।
"इससे मुझे सच में बहुत मदद मिलेगी। शायद मेरे मम्मी-पापा और उनकी पीढ़ी के लोग इस बारे में बेहतर सुन सकें।"
कुछ महीने पहले मेरी मां ने बताया कि जिस ब्रिटिश इंडियन लड़की के साथ मैं खेला करती थी, उसने ख़ुदकुशी कर ली है। ये सुनते ही मुझे वही सब याद आ गया जो मैंने अपनी आंटी की आत्महत्या के वक़्त महसूस किया था।
इसे निश्चित रूप से बचाया जा सकता था। ये कहना ग़लत होगा कि इसमें किसी की ग़लती है, क्योंकि दोष ही वो चीज़ होती है जो कई ज़िंदगियों लील चुका है। अपनी भावनाओं के बारे में विचार करना और मेडिकल हेल्प लेना एक सही समाधान जैसा लगता है जिससे कई दूसरे परिवार इस दर्द से परे रह सकें।