- संदीप राय
सत्रहवीं लोकसभा के नतीज़े आ चुके हैं और मोदी के नेतृत्व में बीजेपी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को भारी बहुमत मिला है। विपक्षी पार्टियों के लिए ये नतीजे भले चौंकाने वाले रहे हों लेकिन विश्लेषक इसे एक्ज़िट पोल्स के मुताबिक ही मान रहे हैं।
पिछले लोकसभा चुनावों में जिस उत्तर प्रदेश ने बीजेपी को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाया, सपा-बसपा-रालोद के महागठबंधन की चुनौती के बावजूद 62 सीटें जीतने में कामयाब रही। यहां तक कि अमेठी की परम्परागत सीट से कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को भी हार का मुंह देखना पड़ा और केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ने के उनके फैसले पर तब बीजेपी ने जो तंज कसा था, वो हकीक़त बन गया।
उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 62 सीटें, उसकी सहयोगी अपना दल को दो, बसपा को 10, समाजवादी पार्टी को 5 और कांग्रेस को एक सीट मिली है। लेकिन यूपी में कुछ दिन पहले ही लोकसभा उपचुनाव में अजेय बनकर उभरा महागठबंधन इस बार क्यों उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाया?
महागठबंधन पर दबाव था?
वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, "बीजेपी के बरक्स यूपी में विपक्षी खेमा शुरू से ही बंटा हुआ था, सपा-बसपा की मुख्य प्रतिद्वंद्विता कांग्रेस से थी, वो दोनों नहीं चाहते थे कि यहां से कांग्रेस मजबूत हो। गठबंधन में कांग्रेस को शामिल न करने में ये भी एक कारण रहा है।"
उनके अनुसार, गठबंधन के लिए कांग्रेस यूपी में छह सीटों तक के लिए तैयार हो गई थी लेकिन सपा-बसपा ने मना कर दिया और बहुत हड़बड़ी में गठबंधन की घोषणा कर दी गई।
कांग्रेस को महागठबंधन में शामिल न करना अखिलेश और मायावती की बड़ी भूल थी या मज़बूरी शायद इसका साफ़-साफ़ जवाब नहीं मिल पाए लेकिन रामदत्त त्रिपाठी का कहना है, "ये तो ज़ाहिर है कि लोगों को डराने के लिए सीबीआई और ईडी का भरपूर उपयोग किया गया और छापे भी डाले गए, न केवल यूपी में बल्कि बाहर भी।"
उनके अनुसार, "लालू यादव को जेल भेज दिया गया और उन्हें ज़मानत तक नहीं मिली। इससे बाकी नेताओं में एक संदेश गया। यही वजह थी कि जिन नेताओं को पिछले चार-पांच सालों में आक्रामक तरीके से सक्रिय होना चाहिए था, वो ऐन चुनाव के दौरान सक्रिय हुए और वो भी बेमन से।"
वो कहते हैं कि पिछली बार सर्व-समाज को इकट्ठा करने के लिए बसपा ने स्थानीय स्तर पर भाईचारा कमेटियां बनाई थीं, लेकिन इस बार इसका मौका ही नहीं मिला। दूसरी तरफ़ अखिलेश यादव खुद अपने पारिवारिक झगड़े को हल नहीं कर पाए।
वो कहते हैं, "बीजेपी ने एक बहुत सीमित जनाधार वाली पार्टी अपना दल को दो सीटें दीं जबकि सपा-बसपा ने कांग्रेस के लिए यहां दो सीटें ही देना चाहती थी, इसे कहीं से भी समझदारी नहीं कहा जा सकता।"
कांग्रेस के सामने बड़ी चुनौती
वो कहते हैं, "अगर कांग्रेस के साथ महागठबंधन होता तो शायद सूरत कुछ और होती। लेकिन इससे बड़ी बात ये है कि पिछला लोकसभा चुनाव और ये चुनाव भी क्षेत्रीय की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा गया। अगर ऐसा नहीं होता तो राजस्थान, मध्यप्रदेश में जहां कांग्रेस की सरकारें हैं या ओडिशा में जहां नवीन पटनायक की सरकार है, वहां भी संसदीय चुनावों में बीजेपी आगे है।"
यूपी से महागठबंधन के अलावा कांग्रेस को भी उम्मीदें थीं, लेकिन यहां अमेठी की अपनी परम्मपरागत सीट से खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हार गए। ये चौंकाने वाला है। यूपी में महागठबंधन का बुरा प्रदर्शन और कांग्रेस का 'बहुत बुरा प्रदर्शन' देश की भावी राजनीति के लिए कई संकेत छोड़ गया है।
चुनावी विश्लेषक भावेश झा के अनुसार, "वायनाड से राहुल गांधी के चुनाव लड़ने के फैसले का असर केरल और तमिलनाडु में देखा जा सकता है, जहां कांग्रेस का प्रदर्शन सबसे बेहतर रहा। बीजेपी ने आरोप लगाया कि राहुल हार के डर से दक्षिण चले गए और उसने इसे मुद्दा भी बना दिया। दूसरी ओर स्मृति ईरानी हारने के बाद भी पांच साल तक बनी रहीं, जबकि राहुल आत्मविश्वास की वजह से अमेठी बहुत नहीं जा पाए। ज़ाहिर है इन सब चीजों ने असर डाला।"
मोदी लहर
वो कहते हैं, "ये चुनाव मोदी को लेकर जनतमत संग्रह जैसा था और इसका असर कमोबेश उन जगहों पर दिखा है, जहां बीजेपी का स्थानीय ढांचा मौजूद था। अगर ये कहें कि मोदी की लहर थी, जिसे बहुत से विश्लेषक देख नहीं पाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।"
वो कहते हैं, "आने वाले पांच साल कांग्रेस के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण होंगे। उसके बहुत से नेता पहले ही हार चुके हैं या पार्टी बदल चुके हैं। क्षेत्रीय क्षत्रप वैसे भी खाली हो गए थे।"
उत्तर प्रदेश पर विपक्ष की बहुत सारी उम्मीदें टिकी थीं वहां महागठबंधन की गणित बिखर गई। पहले कहा जा रहा था कि कांग्रेस बीजेपी के वोटबैंक को ही नुकसान पहुंचा रही है, लेकिन नतीजों में कुछ और ही दिखा। रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि यूपी के संसदीय उप चुनावों में बीजेपी की हार इसलिए हुई क्योंकि स्थानीय नेताओं से बीजेपी के वोटर नाराज़ थे और वो वोट देने निकले ही नहीं। इसके अलावा स्थानीय मुद्दों पर ये चुनाव लड़ा गया।
बीजेपी आरएसस की रणनीति
लेकिन इस चुनाव में बीजेपी अपने वोटरों को बाहर निकालने में सफल रही और चुनावी मुद्दा भी राष्ट्रीय स्तर पर था। रामदत्त त्रिपाठी के अनुसार, यूपी में महागठबंधन की हार की एक बड़ी वजह है गैर यादव ओबीसी जातियों और गैर जाटव दलित जातियों में इनका प्रभाव न होना।
पिछले कुछ सालों में बीजेपी को इस बात का एहसास हो गया था कि व्यापक हिंदू लामबंदी में सपा बसपा जैसे कुछ बाधाएं हैं इसलिए उन्होंने गैर यादव गैर जाटव जातियों को संगठित किया उन्हें नेतृत्व में हिस्सेदारी दी।
राजनीतिक विश्लेषक बद्री नारायण का कहना है कि आरएसएस ने पिछले 25-30 सालों से गैर जाटव दलित समुदायों के बीच काफ़ी काम किया है। उत्तर प्रदेश में क़रीब 66 दलित जातियां हैं। इनमें क़रीब चार पांच जातियों को तो बहुजन राजनीति और सरकारों में प्रतिनिधित्व मिला लेकिन शेष जातियां छूटी रहीं।
उनके अनुसार, इन शेष जातियों में बीजेपी और आरएसएस ने बहुत व्यस्थित तरीके से काम किया, जैसे इन जातियों का सम्मेलन आयोजित करना, इनके हीरो तलाशना, उनकी पहचान को उभारना। ये सब करते हुए बीजेपी ने इन्हें हिंदुत्व के फ़्रेम में रखा।
सपा बसपा के जातीय समीकरण की काट
इस तरह बीजेपी ने एक ऐसा सामाजिक समीकरण तैयार किया जिसमें गैर जाटव दलित जातियों का एक बड़ा हिस्सा पासी जाति के नेतृत्व में बीजेपी के पास गया है।
इसी तरह बीजेपी-आरएसएस ने गैर यादव पिछड़ी जातियों के बीच काम किया। इनमें भी 40-45 जातियां हैं। इनमें भी यादव के सामने जो जाति खड़ी हो सकती है जैसे कुर्मी, मौर्या, कुश्वाहा के नेतृत्व में बीजेपी ने अति पिछड़ी जातियों को लामबंद किया।
इस तरह बीजेपी ने सपा-बसपा विरोधी एक बड़ा सामाजिक गठबंधन बनाया है और जाति राजनीति को जाति राजनीति ने ही ऐसा धाराशायी किया कि इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है।
बद्री नारायण के अनुसार, सपा बसपा के वोट शेयर में कमी नहीं आई लेकिन बीजेपी का वोट शेयर बढ़ा है और ये इन्हीं जातियों के कारण संभव हुआ है। ठीक यही मानना है रामदत्त त्रिपाठी का, "बीजेपी, आरएसएस और उनके अनुषांगिक संगठनों ने जनता के बीच जिस तरह का समानांतर जुड़ाव कायम कर रखा है, वैसा किसी भी विपक्षी दल के पास नहीं है।"
वो कहते हैं, "बीजेपी-आरएसएस ने अन्य जातियों में ऐसी भावना भरी कि उनका रिज़र्वेशन भी यादव और जाटव जातियां ख़त्म कर रही हैं। बेशक इन बातों का चुनावों पर भी असर पड़ा है।"