(रेहान फ़ज़ल, बीबीसी संवाददाता)
बहुत पहले पाकिस्तान के क्रांतिकारी और व्यवस्था विरोधी कवि हबीब जालिब ने लिखा था...
मुझे जंगे-आज़ादी का मज़ा मालूम है,
बलोचों पर ज़ुल्म की इंतेहा मालूम है,
मुझे ज़िंदगीभर पाकिस्तान में जीने की दुआ मत दो,
मुझे पाकिस्तान में इन साठ साल जीने की सज़ा मालूम है।
पाकिस्तान के उदय के 72 साल बाद भी वहां के सबसे बड़े प्रांत बलूचिस्तान को पाकिस्तान का सबसे तनावग्रस्त इलाक़ा माना जाता है।
बलूचिस्तान बग़ावत, हिंसा और मानवाधिकार हनन
बलूचिस्तान की कहानी बग़ावत, हिंसा और मानवाधिकार हनन की कहानी है। मशहूर पत्रकार नवीद हुसैन कहते हैं, 'बलूचिस्तान जातीय और पृथकतावादी हिंसा की उस कड़ाही की तरह है जो कभी भी उबल सकती है।'
आख़िर बलोच अलगाववाद के कारण क्या हैं और इसकी शुरुआत कहां से हुई? 'द बलोचिस्तान कोननड्रम' के लेखक और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य और कैबिनेट सचिवालय में विशेष सचिव रहे तिलक देवेशर बताते हैं, 'इसकी शुरुआत 1948 में ही हो गई थी। ज़्यादातर बलोच समझते हैं कि जिस तरह से उन्हें ज़बरदस्ती पाकिस्तान में मिलाया गयाम वो ग़ैरकानूनी था।'
'जब ब्रिटिश गए तो बलोचों ने अपनी आज़ादी घोषित कर दी थी और पाकिस्तान ने ये बात क़बूल भी कर ली थी। लेकिन बाद में वो इस बात से मुकर गए। बलूचिस्तान के संविधान में संसद के दो सदनों का प्रावधान था। कलात के ख़ान ने उन दोनों सदनों पर ये फ़ैसला छोड़ दिया कि उन्हें क्या करना चाहिए।'
'दोनों सदनों ने इस बात को नामंज़ूर किया कि वो पाकिस्तान के साथ अपने देश का विलय करेंगे। मार्च 1948 में वहां पाकिस्तान की सेना आई और ख़ान का अपहरण कर कराची ले गई। वहां उन पर दबाव डाल कर पाकिस्तान के साथ विलय पर उनके दस्तख़त कराए गए।'
नेपाल की तरह आज़ाद था कलात
बलूचिस्तान को पहले कलात के नाम से जाना जाता था। ऐतिहासिक तौर पर कलात की क़ानूनी स्थिति भारत के दूसरे रजवाड़ों से भिन्न थी। भारत सरकार और कलात के बीच संबंध 1876 में हुई संधि पर आधारित थे जिसके अनुसार ब्रिटिश कलात को एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा देते थे।
साल 1877 में खुदादाद ख़ां (कलात के ख़ां) एक संप्रभु राजकुमार थे जिनके राज्य पर ब्रिटेन का कोई अधिकार नहीं था। जहां 560 रजवाड़ों को 'ए' सूची में रखा गया था, कलात को नेपाल, भूटान और सिक्किम के साथ 'बी' सूची में रखा गया था।
दिलचस्प बात ये है कि 1946 में कलात के ख़ां ने समद ख़ां को अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए दिल्ली भेजा था लेकिन नेहरू ने कलात के उस दावे को अस्वीकार कर दिया था कि वो एक आज़ाद देश हैं।' इसके बाद कलात स्टेट नेशनल पार्टी के अध्यक्ष ग़ौस बक्श बिज़ेनजो मौलाना आज़ाद से मिलने दिल्ली आए थे।
आज़ाद बिजेनजो की इस दलील से सहमत थे कि बलूचिस्तान कभी भी भारत का हिस्सा नहीं रहा लेकिन उनका ये भी मानना था कि बलूचिस्तान 1947 के बाद एक स्वतंत्र और स्वायत्त राष्ट्र के रूप में बरकरार नहीं रह पाएगा और उसे ब्रिटेन की सुरक्षा की ज़रूरत पड़ेगी। अगर अंग्रेज़ बलूचिस्तान में रह जाते हैं तो भारतीय उपमहाद्वीप का आज़ादी का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
तिलक देवेशर बताते हैं, '27 मार्च, 1948 को ऑल इंडिया रेडियो ने अपने प्रसारण में वीपी मेनन की एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस के बारे में रिपोर्ट दी जिसमें कहा गया था कि कलात के ख़ां ज़ोर दे रहे हैं कि कलात का पाकिस्तान के बजाए भारत में विलय कर दिया जाए।'
'मेनन ने कहा कि भारत ने इस प्रस्ताव पर कोई ध्यान नहीं दिया है और उसका इससे कोई लेना-देना नहीं है। ख़ां ने ऑल इंडिया रेडियो का 9 बजे का बुलेटिन सुना और उनको भारत के इस व्यवहार से बहुत बड़ा झटका लगा। कहा जाता है कि उन्होंने जिन्ना से संपर्क किया और पाकिस्तान के साथ संधि करने के लिए बातचीत की पेशकश कर दी।'
'बाद में नेहरू ने संविधान सभा में एक सवाल का जवाब देते हुए इस बात का खंडन किया कि वीपी मेनन ने इस तरह की कोई बात कभी कही थी और ऑल इंडिया रेडियो ने इस बारे में ग़लत ख़बर प्रसारित की थी। लेकिन नेहरू के इस तरह के 'डैमेज कंट्रोल' के प्रयास के बावजूद नुक़सान तो हो चुका था।'
बलोचिस्तान का आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन
आर्थिक और सामाजिक पैमानों पर बलूचिस्तान पाकिस्तान के सबसे पिछड़े हुए राज्यों में से एक है। सत्तर के दशक में पाकिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद में बलूचिस्तान की भागीदारी 4.9 फ़ीसदी थी, जो सन् 2000 में गिरकर सिर्फ़ 3 फ़ीसदी रह गई।
अफ़ग़ानिस्तान में भारत के राजदूत और विदेश मंत्रालय में सचिव रहे विवेक काटजू बताते हैं, 'अगर आप सामाजिक-आर्थिक मानकों की बात करें तो बलोच बहुत पिछड़े हुए हैं। उनका इलाका पाकिस्तान का सबसे बड़ा इलाका है लेकिन वहां की आबादी बहुत कम है। बलूचिस्तान में तो अब उनकी अकसरियत भी सवालों के घेरे में आ गई है।'
'वहां बहुत बड़ी संख्या में पश्तून रहने आ गए हैं। बलोच क़ौम शिक्षा की दृष्टि से बहुत पिछड़ी हुई है। पाकिस्तान के सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी बहुत कम है।'
'वहां संसाधन तो बहुत हैं लेकिन साथ ही सूखे की बहुत बड़ी समस्या है। उनको सबसे ज़्यादा जो बात चुभी है कि सुई इलाके से जो गैस वहां निकली है वो पाकिस्तान के घरों को तो उजागर कर रही है लेकिन बलोचिस्तान के लोगों की उस तक पहुंच नहीं है।'
लेकिन पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकारों में से एक रहीमउल्ला यूसुफ़ ज़ई मानते हैं कि पाकिस्तान की सरकार ने जान-बूझकर बलूचिस्तान को पिछड़ा नहीं रखा है।
यूसुफ़ज़ई कहते हैं, 'बलूचिस्तान शुरू से ही पसमांदा रहा है। यहां का बुनियादी ढांचा पहले से ही कमज़ोर था। ये भी सही है कि शासन ने उनकी तरफ़ भरपूर तवज्जो भी नहीं दी। लेकिन मेरा ख्याल है कि उन्हें जान-बूझकर पीछे नहीं रखा गया। ये समझ लें कि ये शासन और संस्थाओं की एक तरह की असफलता थी।'
'इस तरह की सूरतेहाल फ़ाटा में भी थी, जो कि क़बायली इलाका है। दक्षिणी पंजाब में भी यही मसले हैं। पाकिस्तान में जो तरक्की हुई है वो एक समान नहीं हुई है। कुछ इलाकों को ज़्यादा तवज्जो दी गई तो कुछ को बहुत कम।'
बलूचिस्तान का ज़बरदस्त सामरिक महत्व
बलूचिस्तान का 760 किलोमीटर लंबा समुद्र तट पाकिस्तान के समुद्र तट का दो-तिहाई है। इसके 1 लाख 80 हज़ार किलोमीटर के विशाल विशेष आर्थिक क्षेत्र का अभी तक पर्याप्त दोहन नहीं हो पाया है।
तिलक देवेशर बताते हैं, 'मुझे लगता है कि पाकिस्तान के जितने सूबे हैं, उसमें सबसे ज़्यादा सामरिक महत्व इसका है। बलूचिस्तान के तट पर ही पाकिस्तान के 3 नौसैनिक ठिकाने ओरमारा, पसनी और ग्वादर हैं। ग्वादर का ठिकाना पाकिस्तान को एक सामरिक गहराई प्रदान करता है, जो शायद कराची में नहीं है।'
'वहां तांबा, सोना और यूरेनियम सभी बहुतायत में पाए जाते हैं। वहां चग़ाई में पाकिस्तान का परमाणु परीक्षण स्थल भी है। जब अमेरिका ने अफ़गानिस्तान पर 'वॉर ऑन टेरर' मुहिम के तहत हमला किया तो उनके सारे अड्डे यहीं थे।'
पाकिस्तानी सेना ने हमेशा किया ताकत का इस्तेमाल
बलोच आंदोलन को पाकिस्तानी सेना ने हमेशा ताकत से कुचलने की कोशिश की है। साल 1959 में बलोच नेता नौरोज़ ख़ां ने इस शर्त पर हथियार डाले थे कि पाकिस्तान की सरकार अपनी वन यूनिट योजना को वापस ले लेगी। लेकिन पाकिस्तान की सरकार ने उनके हथियार डालने के बाद उनके बेटों सहित कई समर्थकों को फ़ांसी पर चढ़ा दिया।
शरबाज़ ख़ां मज़ारी अपनी किताब 'अ जर्नी टू डिसइलूज़नमेंट' में लिखते हैं, 'उनके सभी समर्थकों को फ़ांसी पर चढ़ाने के बाद प्रशासन ने 80 साल के नौरोज़ ख़ां से उन शवों की शिनाख़्त करने के लिए कहा। एक सैनिक अधिकारी ने उस बुज़ुर्ग से पूछा, क्या ये तुम्हारा बेटा है?'
'नौरोज़ ख़ां ने अधिकारी को कुछ क्षणों के लिए घूरा और कहा ये सब बहादुर जवान मेरे बेटे हैं। फिर उन्होंने देखा कि फ़ांसी देने के दौरान उनके एक बेटे की मूंछ नीचे की तरफ़ झुक गई थी। वो अपने मृत बेटे के पास गए और बहुत धीमे से उसकी मूंछ को ऊपर उठाकर उस पर ताव दिया और कहा मौत में भी दुश्मन को ये नहीं सोचने देना चाहिए कि तुम्हारे अंदर कोई मायूसी है।'
अपने ही लोगों पर बमबारी
1974 में जनरल टिक्का ख़ां के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना ने मिराज और एफ़-86 युद्धक विमानों के ज़रिए बलूचिस्तान के इलाकों पर बम गिराए। यहां तक कि ईरान के शाह ने अपने कोबरा हेलिकॉप्टर भेजकर बलोच विद्रोहियों के इलाकों पर बमबारी कराई।
तिलक देवेशर बताते हैं, 'शाह ने बलोचों के ख़िलाफ़ न सिर्फ़ अपने कोबरा हेलिकॉप्टर भेजे बल्कि उन्होंने अपने पायलट भी दिए। उन्होंने विद्रोह को कुचलने के लिए भुट्टो को पैसे भी दिए। उन्होंने अंधाधुंध हवाई ताकत का इस्तेमाल करके बलूचिस्तान के बच्चों, बूढ़ों और लड़ाकों को मारा।'
'आज भी जब वहां कुछ होता है तो पाकिस्तान हवाई शक्ति का पहले इस्तेमाल करता है। भारत में भी कई हिस्सों में बग़ावत हुई है लेकिन हमने कभी भी 'सिविलियंस' या चरमपंथियों के ख़िलाफ़ हवाई शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया है।'
अकबर बुग़्ती की हत्या
26 अगस्त, 2006 को जनरल परवेज़ मुशर्ऱफ़ के शासनकाल में बलोच आंदोलन के नेता नवाब अकबर बुग्ती को सेना ने उनकी गुफ़ा में घेरकर मार डाला। बुग़ती बलोच आंदोलन के बड़े नाम थे। वो गवर्नर और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके थे। इस घटना ने आंदोलन को कुचलने के बजाए उन्हें इसका हीरो बना दिया।
पाकिस्तान की मशहूर राजनयिक और मंत्री रहीं सैयदा आबिदा हुसैन अपनी किताब 'पॉवर फ़ेल्योर' में लिखती हैं कि अपनी मौत से कुछ समय पहले बुग्ती ने अपने गुप्त ठिकाने से सैटेलाइट फ़ोन पर उनसे बात करते हुए कहा था, 'मैंने अपनी ज़िदगी के 80 बसंत देख लिए हैं और अब मेरे जाने का वक्त आ गया है।'
'आपकी पंजाबी फ़ौज मुझे मारने पर तुली हुई है, लेकिन इससे आज़ाद बलूचिस्तान की मुहिम को मदद ही मिलेगी। मेरे लिए शायद इससे अच्छा अंत नहीं होगा और अगर ऐसा होता है तो मुझे इसका रत्तीभर भी दुख नहीं होगा।'
पाकिस्तान पर लोगों को ग़ायब करने और गुपचुप हत्या के आरोप
तब से लेकर अब तक पाकिस्तानी सेना पर बलोच अभियान के लिए लड़ रहे लोगों को ग़ायब करने और उनकी गुपचुप हत्या के कई आरोप लगे हैं। मार्च 2007 में पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने वहां के सुप्रीम कोर्ट के सामने उन 148 लोगों की सूची पेश की थी, जो अचानक गायब हो गए थे और उनके बारे में उनके रिश्तेदारों को कुछ भी पता नहीं था।
वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्ला युसुफ़ज़ई बताते हैं, 'बलूचिस्तान में गुमशुदा अफ़राद और 'एक्सट्रा-ज्यूडीशियल किलिंग' का बहुत बड़ा मसला है। लोगों को उठा लेना और फिर उनकी लाशें मिलना यहां मसला रहा है। ऐसा नहीं है कि एक ही वर्ग ही ऐसा यहां कर रहा है।'
'यहां फ़ौज पर भी हमले होते हैं और 'मिलिशिया' पर भी और फिर ये उसका जवाब देते हैं। चूंकि यहां पर लड़ाई चल रही है, इसलिए जिसके ऊपर शक होता है, उसे उठा लिया जाता है। हालांकि ये सही तरीका नहीं है लेकिन जंग में तो इस तरह के वाकयात होना आम बात है।'
'हुकूमत की हामी कुछ तंज़ीमें भी बनी हैं। उनके ऊपर भी इल्ज़ाम लगता है कि वो अलगाववादियों या उनके समर्थकों को उठा लेती हैं। साल 2006 के बाद इस तरह की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है, जब नवाब अकबर बुग्ती को मार दिया गया था। इससे काफ़ी ग़मो-गुस्सा पैदा हुआ था।'
चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर
कुछ साल पहले चीन ने इस इलाके में चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर बनाकर करीब 60 अरब डॉलर निवेश करने का फ़ैसला किया था। पाकिस्तान में तो इसे 'गेम चेंजर' माना गया लेकिन बलोच लोगों ने इसे पसंद नहीं किया था।
तिलक देवेशर बताते हैं, 'चीन के लिए ग्वादर अरब सागर में पहुंचने का उनका रास्ता है। उनके लिए दक्षिणी चीन समुद्र से निकलना एक तरह का 'चौक पॉइंट' है। अगर उन्हें भविष्य में किसी तरफ़ से कोई ख़तरा हो तो उनके तेल और दूसरे सामान निकालने का ग्वादर एक वैकल्पिक रास्ता बन सकता है।'
'एक दूसरा रास्ता म्यांमार होकर भी जाता है। उनकी योजना है कि वो यहां एक कॉरिडोर बनाएंगे, जहां से उनका सामान कराकोरम हाईवे से और गिलगित बल्तिस्तान होते हुए ग्वादर पहुंच जाएगा। यहां पर उन्होंने काफ़ी निवेश का वादा किया था, लेकिन अभी तक ज़मीन पर उतना निवेश हो नहीं पाया है।'
तिलक देवेशर आगे बताते हैं, 'मसला ये है कि उन्होंने ग्वादर में रहने वाले मछुआरों को पकड़कर बाहर कर दिया। इसका वहां बहुत विरोध हुआ। वहां सबसे बड़ा मसला पानी का है। वहां पीने का पानी नहीं है। वहां लोग बताते हैं कि जब किसी घर में चोरी होती है तो लोग सबसे पहले पानी रखने वाले बर्तन चुराते हैं।'
'इन सबका कोई समाधान नहीं ढूंढा गया और बलूचिस्तान को विश्वास में नहीं लिया गया। बलूचिस्तान के जो मुख्यमंत्री हैं उनका कहना है कि ये हमारा इलाका ज़रूर है, लेकिन हमें पता नहीं कि यहां क्या हो रहा है।' 'बलोचों को डर है कि अगर यहां 50 लाख चीनी आकर रहने लगेंगे तो उनकी आबादी बलोचों से अधिक हो जाएगी, तब बलोच कहां जाएंगे? वो अपने ही इलाके में अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे।'
नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में किया बलूचिस्तान का ज़िक्र
कुछ समय पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले से दिए गए अपने भाषण में बलूचिस्तान का ज़िक्र किया तो पूरी दुनिया का ध्यान उस तरफ़ गया। ये पहला मौका था, जब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने इस तरह खुलेआम बलूचिस्तान का ज़िक्र किया था।
इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए स्विटज़रलैंड में रह रहे बलोच विद्रोही नेता ब्रह्मदाग़ बुग़्ती ने कहा था, 'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारे बारे में बात कर हमारी मुहिम को बहुत मदद पहुंचाई है। बलूचिस्तान में युद्ध जैसे हालात हैं। वहां जंग हो रही है।'
'क्वेटा जैसे शहर में बहुत बड़ी तादात में सेना मौजूद है। वहां अगर हम कोई छोटी सी भी राजनीतिक गतिविधि करें तो सेना लोगों को उठा ले जाती है। हमारे लिए वहां ऐलानिया कुछ भी करना बिल्कुल संभव नहीं है। वहां हमारे लोग पाकिस्तान के साथ रहना नहीं चाहते।'
भारत कर रहा है आंतरिक मामलों में दख़ल
लेकिन पाकिस्तान में मोदी के इस वक्तव्य को उनके आंतरिक मामलों में दख़ल की तरह लिया गया। उन्होंने आरोप लगाया कि इस आंदोलन को भारत का समर्थन मिल रहा है।
रहीमउल्ला यूसुफ़ज़ई कहते हैं, 'पाकिस्तानी हुक्मरान तो ये इल्ज़ाम लगाते हैं कि इन्हें बाहर से समर्थन मिल रहा है। सीआईए का नाम तो वो खुलेतौर पर नहीं लेते लेकिन भारत और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ का नाम वो ज़रूर लेते हैं।'
'वो आजकल उनका नाम इसलिए भी ले रहे हैं, क्योंकि कुलभूषण जाधन को, जो कि उनके अनुसार भारतीय नौसेना का सर्विंग अफ़सर है, रंगेहाथों बलोचिस्तान में गिरफ़्तार किया गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी पिछले साल लाल क़िले से की गई तक़रीर में भी बलूचिस्तान का ज़िक्र किया था।'
'हम देखते हैं कि बलूचिस्तान में भारत की रुचि पहले से बढ़ी है। हालांकि जब प्रधानमत्री मनमोहन सिंह की शर्म-अल-शेख़ में प्रधानमंत्री गिलानी के साथ मुलाकात हुई थी तो पाकिस्तान से प्रस्ताव आया था कि बलूचिस्तान के ऊपर भी भारत से बातचीत होनी चाहिए और भारत इस बात को मान गया था।'
'हम तो ये समझते हैं कि अगर भारत को मौका मिलेगा तो वो क्यों इससे फ़ायदा नहीं उठाएगा। जहां तक अमेरिका की बात है, वो इस बात का दावा करता रहा है कि वो पाकिस्तान की एकजुटता चाहता है लेकिन अमेरिकी कांग्रेस के कुछ लीडर बलोच अलहदगीपसंदों से मिलते रहे हैं।'
बलोच आंदोलन की कमज़ोरियां
सवाल उठता है कि क्या इस आंदोलन में एक आज़ाद बलूचिस्तान बनवा पाने का सामर्थ्य है या नहीं?
स्टीवेन कोहेन अपनी किताब 'द आइडिया ऑफ़ पाकिस्तान' में लिखते हैं, 'बलोच आंदोलन की सबसे बड़ी कमी है एक मज़बूत मध्यम वर्ग और आधुनिक नेतृत्व का अभाव।'
'बलोच लोग वैसे ही पाकिस्तानी आबादी का बहुत छोटा हिस्सा हैं, उन्हें अपने इलाके में पश्तूनों की लगातार बढ़ती आबादी का भी मुकाबला करना पड़ रहा है।' 'दूसरा उन्हें न तो ईरान से और न ही अफ़गानिस्तान से मदद मिल रही है, क्योंकि इससे उनके अपने देश में बलोच असंतोष को बढ़ावा मिलेगा।'
शासन का वैकल्पिक ब्लू-प्रिंट नहीं
बलोच आंदोलन की एक और कमी है कि ये लोग अभी तक शासन का कोई वैकल्पिक ब्लू प्रिंट लेकर सामने नहीं आ पाए हैं। लेकिन भारत के पूर्व राजनयिक विवेक काटजू इस आकलन से सहमत नहीं हैं।
काटजू कहते हैं, 'मुझे लगता है कि जब आंदोलन सफल होते हैं, दुनिया के किसी भी कोने में, वहां पर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया तुरंत शुरू हो जाती है और सफल भी होती है। मुश्किलें ज़रूर आती हैं इसलिए पहले से ये सोचना कि उनके पास कोई वैकल्पिक ब्लू प्रिंट नहीं, ग़लत होगा।'
नेतृत्व में विभाजन
दूसरे बलोच आंदोलन की एक और कमज़ोरी है इसके नेतृत्व का बुरी तरह से बंटा होना। रहीमउल्ला यूसुफ़ज़ई कहते हैं, 'यह इत्तेफ़ाक नहीं है। इनमें कुछ कबीलों की बुनियाद के ऊपर तंज़ीमें बनी हैं। इनके बहुत से रहनुमा न तो यहां रह रहे हैं और न ही पाकिस्तान में।'
'उनको दूसरे मुल्कों में सियासी पनाह मिल गई है। कुछ स्विट्ज़रलैंड में हैं, कुछ संयुक्त अरब अमीरात में हैं, कुछ अमेरिका में हैं और कुछ कहते हैं कि भारत में भी हैं। ये लोग किसी भी विषय पर एकमत नहीं हैं और न ही इनके पास कोई राजनीतिक या आर्थिक प्रोगाम ही नज़र आता है।'
पाकिस्तान की कमज़ोरी से मिलेगी बलोचों को मज़बूती
पाकिस्तान पर नज़र रखने वाले टीकाकार अभी भी बलोच आंदोलन को 'लो लेवेल इंसर्जेंसी' की संज्ञा देते हैं। मैंने तिलक देवेशर से पूछा कि आप इस आंदोलन के सफल होने की कितनी संभावना देखते हैं?
देवेशर का जवाब था, 'इस आंदोलन के सफल होने के बीज तो हैं लेकिन ये दो-तीन चीज़ों पर निर्भर करते हैं। एक तो पाकिस्तान जिस रास्ते पर चल रहा है, अगर वहां कोई आंतरिक उथल-पुथल होती है तो इसका असर बलोच आंदोलन पर पड़ेगा। वहां की अर्थव्यवस्था ख़स्ताहाल है और वो कभी भी बैठ सकती है।'
'वहां पानी की सख़्त कमी है। अगर पाकिस्तान अंदर से कमज़ोर होता है तो बलोचों को भी मज़बूती मिलेगी या फिर अगर वहां कोई ऐसी अप्रत्याशित घटना हो जिसे अंग्रेज़ी में 'ब्लैक स्वान इवेंट' कहते हैं जिसके दूरगामी परिणाम हों, तो वो इस आंदोलन को ऊपर ले जाएगी।'
'बलोच अलगाववाद इस हद तक फैल चुका है कि पाकिस्तान को इस पर काबू करने के लिए अपनी नीतियों में आमूल बदलाव करने होंगे लेकिन मुझे नहीं लगता कि पाकिस्तान की सेना इन बदलावों के लिए अभी तैयार है।'