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Written By अनिरुद्ध जोशी

Shri Krishna 27 July Episode 86 : इंद्रप्रस्थ के माया जाल में उलझा दुर्योधन, बलराम बनते हैं उसके गुरु

Shri Krishna 27 July Episode 86 : इंद्रप्रस्थ के माया जाल में उलझा दुर्योधन, बलराम बनते हैं उसके गुरु - Shri Krishna on DD National Episode 86
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 27 जुलाई के 86वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 86 ) में पांडवों के राजसूय यज्ञ के पूर्व श्रीकृष्ण की अग्रपूजा में शिशुपाल श्रीकृष्ण का अपमान करता है तो श्रीकृष्ण उसे उसके 100 अपराध क्षमा करने के बाद जब वह अपमान जारी रखता है तब भरी सभा में श्रीकृष्ण शिशुपाल का वध कर देते हैं। शिशुपाल तीन जन्म के पूर्व भगवान विष्णु का जय नाम का पार्षद रहता है। नारदजी उसे बताते हैं कि किस तरह तुमने सनतकुमारों को श्रीहरि से मिलने के लिए रोक दिया था जिसके चलते तुम्हें मृत्युलोक में तीन जन्म लेना पड़े। 
 
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इसके बाद नारदजी शिशुपाल को उसके तीन जन्मों के बारे में बताते हैं। नारदजी बताते हैं कि सनक और सनंदन के श्राप के चलते जय और विजय आकाश से धरती की ओर गिरने लगे और फिर वे ऋषि कश्यप की पत्नी दिति के गर्भ से जुड़वा भाइयों के रूप में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में जन्में। दोनों ही महाशक्तिशाली दैत्य थे और उनके कारण धरती पर अत्याचार और अन्याय का शासन स्थापित हो चला था। हिरण्याक्ष का वध श्रीहरि ने वराह रूप धारण करके किया तो हिरण्यकश्यप का वध नृसिंह अवतार धारण करके किया।
 
इसके बाद नारदजी बताते हैं कि पुन: तुम दोनों का जन्म दूसरे जन्म में रावण और कुंभकर्ण के रूप में हुआ। तब श्रीहरि विष्णु ने राम बनकर पहले कुंभकर्ण और बाद में रावण का वध किया। रावण के रूप में तुम थे तो विजय कुंभकर्ण था। फिर नारदजी कहते हैं- अब यह तुम्हारा अंतिम जन्म था जिसमें तुम श्रीकृष्ण की बुआ के पुत्र शिशुपाल के रूप में जन्में और प्रभु ने अपने हाथों तुम्हें मानव शरीर से मुक्त करके तुम्हारा उद्धार किया। यह सुनकर जय अर्थात शिशुपाल पूछता है कि मुनिराज कृपया ये तो बताइये की इस जन्म में मेरा साथी विजय कहां है? इस पर नारदजी कहते हैं कि वह श्रीकृष्ण की बड़ी बुआ के पुत्र के रूप में दंतवक्र के रूप में तुम्हारे साथ ही इस धरती पर जन्मा था। शीघ्र ही वह भी भगवान श्रीकृष्ण के हाथों मुक्ति पाएगा। यह सुनकर जय पूछता है- परंतु कब तक? तब नारदजी कहते हैं- जब पांडवों का राजसूय यज्ञ होने के पश्चात भगवान द्वारिका लौटेंगे जब वह द्वारिका पर आक्रमण करेगा तब परंतु अभी तो इंद्रप्रस्थ में ही भगवान उत्सव का आनंद ले रहे हैं। उनके साथ इंद्रप्रस्थ में पधारे हुए सभी अतिथिगण भी पांडवों का वैभव देखकर चकित हो रहे हैं।
 
फिर उधर बलराम, दुर्योधन, द्रुपद आदि सहित सभी लोग इंद्रप्रस्थ के वैभव का अवलोकन करते हैं। उनके चमत्कारिक और जगमगाते महल को देखकर सभी अचंभित हो रहे होते हैं। शकुनि और दुर्योधन को समझ में नहीं आता है कि ये कैसा मायाजाल है। दुर्योधन संकेतों से शकुनि को आगे बढ़ने का कहता है।
शकुनि एक महल के अंदर के एक कक्ष के द्वार 
पर खड़ा होकर कहता है- आओ चलो, चलो अंदर। तब जैसी ही दुर्योधन द्वार के अंदर जाने लगता है तो उससे टकरा जाता है। उसकी नाक पर लग जाती है। शकुनि भी कहता है- अरे भांजे। तब दुर्योधन हाथ लगाकर देखता है तो पता चलता है कि द्वार की जगह तो दीवार है जो द्वार जैसी दिखाई दे रही है। शकुनि भी भीतर जाने का प्रयास करता है तो टकरा जाता है। दोनों अचरज में पड़ जाते हैं तब शकुनि कहता है- चलो भांजे चलो, ये कैसी माया है।
 
फिर वह दूसरे खुले दरवाजे के पास जाते हैं तो उन्हें लगता है कि यह भी भ्रम होगा जब वह उसमें जाने का प्रयास करते हैं तो गिरते गिरते बचते हैं क्योंकि असल में वह दरवाजा ही होता है दीवार नहीं। शकुनि कहता है- भांजे चलो। दोनों उसमें प्रवेश कर जाते हैं। वहां अदंर उन्हें भव्य महल नजर आता है जिसके ऊपर चारों ओर बालकनी रहती है और ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां भी होती है। उन्हें महल के बीचोबीच विशालकाय चमचमाता कालीन बिछा हुआ नजर आता है। 
 
वह कालीन के पास जाते हैं तो शकुनि कहता है इतना सोना। फिर आगे बढ़ने लगते हैं तो उन्हें अजीबसा नजर आता है। शकुनि कहता है- भांजे ये क्या अचंभा है ये पानी कहां से आ गया? उस जगह को तरणताल समझकर तब दोनों अपने वस्त्र ऊपर करके आगे बढ़ते हैं लेकिन जैसे ही पैर रखते हैं तो उन्हें महसूस होता है कि पानी जैसा दिखाई दे रहा हैं किंतु पानी नहीं है। इस पर शकुनि कहता है भांजे ये पानी है या पानी नहीं है? फिर वो दोनों पैरों से भूमि को ठोककर देखते हैं तो पानी महसूस नहीं होता है। तभी उन्हें बालकनी से महिलाओं के हंसी-ठिठोली की आवाज सुनाई देती है। फिर वे दोनों अपने वस्त्र (धौती) को नीचे करके निश्चिंत होकर चलने लगते हैं तभी आगे थोड़ी दूर चलकर वे एक पट्टेदार जगह पर खड़े होकर पीछे देखते हैं तो पानी गायब हो जाता है और उन्हें भूमि ही नजर आती है लेकिन ज्योंहि वह आगे देखते हैं तो उन्हें पुन: पानी नजर आता है। 
 
तब दुर्योधन असमंजस में पड़कर सकुचाकर कहता है- चुपचाप आगे चलिये मामाश्री। शकुनि कहता है- हां चलो भांजे चलो। दोनों आगे चलकर पुन: दूसरी पट्टेदार भूमि पर खड़े होकर पीछे देखते हैं तो उन्हें पानी नजर नहीं आता है और आगे देखते हैं तो पुन: तरणताल जैसा नजर आता है। फिर वह दोनों एक दूसरे की ओर देखकर हंसने लगते हैं और शकुनि कहता है- चलो भांजे चलो। तब जैसे ही दुर्योधन आगे कदम बढ़ाता है वैसे ही वह तरणताल में गिर जाता है और गिला हो जाता है। यह देखकर बालकनी में स्थित द्रौपदी अपनी सखियों के साथ यह दृश्य देखकर हंसने लगती है। शकुनि उसे हाथ पकड़कर बाहर निकालता है।
 
बाहर निकलकर वह ऊपर देखता है कि द्रौपदी जोर-जोर से हंस रही है। भिगा हुआ खड़ा दुर्योधन कहता है- मामाश्री चलो यहां से। तभी द्रौपदी कहती है- देवरजी! ओ देवरजी ये हस्तिनापुर नहीं है जहां देखे बिना भी चल सकते हैं। ये तो इंद्रप्रस्थ के महल है जहां आंखें खोल कर चलना पड़ता है। ऐसा कहकर वह व्यंगात्मक हंसी हंसने लगती है। यह सुनकर दुर्योधन क्रोधित होकर कहता है- आज की हंसी तुझे महंगी पड़ेगी रानी, बहुत महंगी पड़ेगी। चलो मामाश्री। ऐसा कहकर दुर्योधन वहां से चला जाता है।
 
उधर, श्रीकृष्ण और बलराम के साथ पांचों पांडवों को हंसते हुए बताया जाता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अच्छा तो महाराज आज्ञा दें। मराजा युधिष्ठिर कहते हैं- अरे इतनी शीघ्रता भी क्या है? हम आपको अभी जाने नहीं देंगे कन्हैया। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- महाराज जाना तो होगा ही। कितने दिन हो गए हम दोनों द्वारिका से बाहर हैं, वहां की व्यवस्था भी तो संभालनी पड़ेगी। इस पर युधिष्ठिर कहते हैं कि परंतु मुझे आप दोनों को छोड़ने का जी नहीं करता। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसीलिए तो मैं दाऊ भैया को यहीं छोड़े जा रहा हूं और उनका भी मन है कि वे कुछ दिन यहीं ठहरें और उनके बदले में मैं अपने प्रिय सखा अर्जुन को ले जा रहा हूं।
 
इस पर बलरामजी कहते हैं जाने दीजिये महाराज युधिष्ठिर कन्हैया को। वहां रुक्मिणी भी तो अधीर हो रही होगी। यह सुनकर सभी हंसने लगते हैं। फिर अर्जुन और श्रीकृष्ण को ‍वहां से द्वारिका के लिए विदा किया जाता है।
 
इधर, शकुनि कहता है दुर्योधन से कि लो भांजे तुम्हारा काम तो बन गया। कृष्ण और अर्जुन दोनों द्वारिका चले गए हैं। अब तुम्हें बलराम मिल गए हैं और वह भी अकेले। वो यहीं पर रुके हुए हैं। तो बस अब पूरी तरह से बलराम की सेवा करो और उनकी खूब चापलूसी करो हां। चाहे जैसे भी हो तुम्हें उन्हें अपना गुरु बनाना ही होगा। भांजे यदि तुमने ऐसा कर लिया तो विजयश्री तुम्हारे भी भाल पर होगी हां। यह सुनकर दुर्योधन कहता है- ठीक है मामाश्री ठीक है।
 
फिर जब बलरामजी यमुना किनारे ध्यान और संध्यावंदन कर रहे होते हैं तब शकुनि और दुर्योधन वहां पहुंच जाते हैं। ध्यान करने के बाद वे सूर्य को अर्ध्य देते हैं और फिर जब वे पलटकर पुन: लौटने लगते हैं तो देखते हैं कि उनके मार्ग में फूल बिछे हुए हैं। वो ये देखकर आश्चर्य से प्रसन्न हो जाते हैं। फिर वह फूलों पर कुछ दूर चलने के बाद कहते हैं- कोई है, कोई है? मेरी राहों में फूल बिछाकर मेरा सम्मान किया है, उस पर मैं प्रसन्न हूं। जिस व्यक्ति ने मेरा स्वागत किया है उसे मैं देखना चाहता हूं। 
 
कुछ देर बार दुर्योधन हाथ जोड़े उनके समक्ष उपस्थित होता है। यह देखकर बलरामजी कहते हैं- दुर्योधन तुम? तब दुर्योधन कहता है- हां बलराम भैया। तभी शकुनि भी पीछे से आकर कहता है- प्रणाम द्वारिकाधीश। स्वागत है आपका द्वारिकाधीश। तब बलराम कहते हैं कि परंतु ऐसा स्वागत करने की क्या जरूरत थी? तब शकुनि कहता है कि ऐसा स्वागत कुछ महान हस्तियों का ही किया जाता है द्वारिकाधीश। आप शायद जानते नहीं कि हस्तिनापुर का युवराज दुर्योधन आप ही की पूजा करता है। यह सुनकर दुर्योधन उनके चरणों में फूल अर्पित करके घुटने के बल बैठ जाता है। तब बलराम कहते हैं- अरे ये क्या कर रहे हो दुर्योधन? इस पर शकुनि कहता है ये तो अपने देवता की पूजा कर रहा है पूजा द्वारिकाधीश।
 
फिर शकुनि भीम और श्रीकृष्ण के संबंध में बलरामजी से उल्टी-सीधी बातें करके उनके मन में शंका उत्पन्न करता है। वह कहता है कि भीम कह रहा था कि गदा युद्ध में मैं बलराम भैया से भी ज्यादा निपुण हो गया हूं और श्रीकृष्ण कह रहे थे कि बलराम भैया तो मुझे नाहक ही हर बात पर डांटते रहते हैं। फिर शकुनि कहता है कि सच तो ये है बलराम भैया द्वारिका की रक्षा तो आपन ही करते हैं आप ही द्वारिकाधीश है।...इस तरह शकुनि श्रीकृष्ण और बलरामजी के बीच दरार पैदा करने का प्रयास करता है।
 
इस तरह दुर्योधन और शकुनि चापलूसी करके बलराम को गद्गद कर देते हैं और बलरामजी के मन में भीम के प्रति शंका भर देते हैं। तब अंत में बलरामजी दुर्योधन को गदा चलाना सिखाने के लिए तैयार हो जाते हैं। फिर दुर्योधन विधिवत रूप से बलरामजी को अपना गुरु बनाता है और फिर बलरामजी उसे गदा देकर कहते हैं कि तुम्हारा अध्ययन शीघ्र ही शुरु हो जाएगा शिष्य दुर्योधन।...जय श्रीकृष्णा।
 
 
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