निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 30 सितंबर के 151वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 151 ) में कुरुक्षेत्र में गीता का ज्ञान दे रहे हैं। इस ज्ञान के दूसरे अध्याय सांख्य योग का ज्ञान देकर वे अर्जुन को आत्मा और मन के रहस्य को समझा रहे हैं साथ ही उन्होंने पिछले एपिसोड में रिश्ते नातों की व्यर्थता की बातें भी कही। इसी सांख्य योग के कर्म विष्य में वे कर्म योग की भूमिका रखेंगे।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वे
बदुनिया श्री कृष्णा
रामानंद सागरजी आकर बताते हैं कि गीता के बारे में वैषविक तंत्रसार ग्रंथ में बड़ा ही सुंदरसा श्लोक है जिसमें गीता को गाय और कृष्ण को दूध दोहने वाला और अर्जुन को पीने वाला बताया गया है। वास्तव में गीता ज्ञान, भक्ति और कर्म की एक गंगा है। यह ज्ञान केवल अर्जुन के लिए नहीं बल्की सभी मानव जाति के लिए है। हम सबको अपने-अपने कुरुक्षेत्र में अर्जुन की तरह अपने-अपने कर्तव्य का फैसला करना होता है।
फिर रामानंद सागर बाताते हैं कि भगवान शिव के मुखार्विंद से वह बातें भी कही गई है जो गीता के अलावा दूसरे उपनिषदों में भी मिलती है और गीता की फिलॉसफी की पुष्टी करती है। इसी प्रकार धृतराष्ट्र महाभारत युद्ध का मुख्य खलनायक है क्योंकि यह राजा था। वह चाहता तो यह युद्ध कभी नहीं होता। पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य केवल राज सिंघासन की आज्ञा मानते हैं दुर्योधन की आज्ञा कभी नहीं मानते। परंतु धृराष्ट्र की बुद्धि पर पुत्र मोह और राजलोभ का ऐसा पर्दा पड़ गया था कि वह अधर्म को धर्म और असत्य को सत्य मानने लगा था।....
फिर रामानंद सागरजी बताते हैं कि इस समय हम गीता के दूसरे अध्याय के मध्य में हैं। वास्तव में गीता का दूसरा अध्याय ही सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है जिसमें सारी फिलॉसफी, सारा दर्शन भर दिया गया है। ज्ञानी लोगों का कहना है कि गीता का दूसरा अध्याय सभी 18 अध्यायों का प्राण है और उसी दूसरे अध्याय के आखिरी 18 श्लोक उसकी आत्मा हैं। जहां स्थितप्रज्ञ के गुणों और सत्य का वर्णन किया गया है। उन 18 श्लोकों और उनमें वर्णित स्थितप्रज्ञ के बारे में हम आपको अगले भाग में बताएंगे।
अर्जुन कहता है- हे केशव एक तरफ तुम संन्यासी की भांति रहने को कह रहे हो और दूसरी ओर सब रिश्ते-नाते को तोड़कर कर्म करने को कह रहे हो। ये दोनों बातें विरोधी हैं। तुम जानते हो कि मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उस कर्म का कोई कारण होता है, कोई प्रेरक होता है जिसकी प्रेरणा से मनुष्य कर्म करता है। कोई भावना तो होती है जिस भावना की पूर्ति के लिए मनुष्य अच्छा या बुरा कोई भी कर्म करता है। अर्थात कर्म की जड़ में एक भावना होती है और भावना की जड़ में कोई ना कोई रिश्ता होता है। क्योंकि किसी ना किसी रिश्ते की जड़ से ही तो भावना पैदा ही हो सकती है।
श्रीकृष्ण कहते हैं अर्जुन तुम ठीक कह रहे हो। संबंधों और रिश्तों से ही भावना का स्रोत फूटता है परंतु भावनाओं की ये नदी जल्द ही सूख जाती है। बिल्कुल ऐसा जैसे आग में पानी की बूंद तुरंत ही लुप्त हो जाती है। मरने वाले की चिता के ठंडे होने के पहले ही रिश्तेदारों की आंखों के आंसू भी सूख जाते है। कोई दो घड़ी आंसू बहाता है तो कोई दो दिन, बहुत रोती है तो मां। वह भी चंद दिनों में फिर संसार की माया में फंसकर अपने दूसरे कर्म में लग जाती है।...
इस लोक का कोई भी पदार्थ संग ना तेरे परलोक ना जाए।
पिछले जनम का कोई भी नाता अगले जनम में याद ना आए।
स्मृतियों का बोझा ढोने से विस्मृति का वरदान बचाए।
हर जनम के नाते याद रखे तो प्राणी पागल ही हो जाए।
जिनकी चिंता में जो तू पड़ता वे ही चिता जलाते हैं।
जिन पर रक्त बहाए जल संग, जल में वही बहाते हैं।
फिर अर्जुन कहता है- हे केवश! एक ओर तो तुम मुझे ये सिखा रहे हो कि ये रिश्ते-नाते सब चंद दिनों का दिखावा है और दूसरी ओर अभी-अभी तुमने मुझे ये कहा कि संबंधों और रिश्तों से ही भावनानों का स्रोत फूटता है और मैंने ये कहा था कि कर्म करने के लिए किसी न किसी भावना का होना जरूरी है और भावना के लिए रिश्ते-नातों की आवश्यकता है क्योंकि किसी न किसी रिश्ते की जड़ से ही तो भावना पैदा होती है। इसलिए यदि मनुष्य सारे रिश्ते को तोड़ देगा और भावना को त्याग देगा तो फिर वह कर्म किसके लिए करेगा?
श्रीकृष्ण कहते हैं- अपने धर्म के लिए। यह सुनकर अर्जुन कहता है- धर्म के लिए? अर्थात अपने धर्म के लिए भावना की आवश्यकता नहीं होती? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं धर्म के लिए भावना की नहीं, अपने कर्तव्य के ज्ञान की आवश्यकता होती है। इस बात की आव्यशकता होती है कि मनुष्य यह समझ ले कि उस परिस्थिति में उनकी आवश्यकता क्या है। भावना तो कई बार कर्तव्य के रास्ते में आ जाती है। मनुष्य को कमजोर कर देती है जैसे इस समय तुम्हारी भावनाओं के कारण तुम्हारे मन में जो मोह उत्पन्न हो गया है। वह तुम्हें कर्तव्य के रास्ते से भटका रहा है। इसलिए शास्त्र कहता है कि कर्तव्य भावना से ऊंचा है। अभी तुमने बड़े ज्ञानियों जैसे तर्क दिए कि कर्म के लिए कोई प्रेरणा होनी चाहिए और प्रेरणा के लिए कोई भावना होनी चाहिए। ये सारे तर्क मोह जनित है। रिश्ते-नातों के मोह ने तुम्हारी बुद्धि को धूमिल कर दिया है। इसलिए सत्य तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा। इसलिए इस समय तुम्हें धर्म स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा।
यह सुनकर अर्जुन पूछता है- धर्म क्या है, धर्म की व्याख्या कौन करता है, इस बात का निर्णय कौन करेगा? हे मधुसुदन वो कौन है जो धर्म का विधान बनाते हैं? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन हर प्राणी अपने धर्म का विधान स्वयं बनाता है। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि मैं समझा नहीं केशव। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- देखो पार्थ! धर्म का जो विधान किसी दूसरे ने बनाया हो वह तुम्हारा धर्म नहीं हो सकता। तुम्हारा धर्म वही है जिसे तुमने स्वयं बनाया हो। जिसे तुम्हारी आत्मा ने स्वीकार किया हो। धर्म व्यक्तिगत चीज़ है जिसका फैसला व्यक्ति को स्वयं करना होता है।
यह सुनकर अर्जुन कहता है- मैं अब भी नहीं समझा केशव। यह सुनकर श्रीकृष्ण धर्म के बारे में उदाहरण देकर विस्तार से बताते हैं कि धर्म क्या है और धर्म संकट क्या है। इसलिए हे अर्जुन हर प्राणी का धर्म व्यक्तिगत होता है।... अपने-अपने कर्म का सबके लिए अलग विधान, जग है कर्म प्रधान।.. फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- हे पार्थ! मैंने यहां तक जीवन मृत्यु की वास्तविकता बताई है कि केवल शरीर ही नश्वर है। आत्मा अनंत और अनश्वर है जो शरीर के मारे जाने पर भी नहीं मरती है।
न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।
यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहने वाला, शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीरके मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।...इसलिए किसी के मरने या मारने का शोक किए बिना तू अपना कर्तव्य कर। तेरा धर्म युद्ध करना है। तू अपना धर्म समझकर युद्ध कर।
यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है- युद्ध युद्ध युद्ध। ये श्रीकृष्ण आखिर कब तक युद्ध करने की माला जपता रहेगा। यदि अर्जुन युद्ध करना नहीं चाहता तो उसे इस तरह युद्ध करने के लिए विवश करना उचित है? यह सुनकर संजय कहता है- उचित तो ये भी नहीं है महाराज की कोई योद्धा युद्ध करने जाए और युद्ध करने से ही इनकार कर दे। यह तो ऐसा ही हुआ कि कोई मांझी सबको नाव में बैठाकर बीच समुद्र में ले जाए और फिर कहे कि अब मैं ये पतवार रख देता हूं, अब नाव नहीं चलाऊंगा।
यह सुनकर धृतराष्ट्र हंसते हुए कहता है- तो इसमें कृष्ण को क्या नुकसान? आत्माओं को अमर बताकर भावनाओं की वर्षा में भीगे हुए अर्जुन के कोमल हृदय को पत्थर बना रहा है। आत्मा अमर है तो क्या यह आवश्यक है कि युद्ध करके भूमि को हजारों-लाखों लाशों से ढक दिया जाए। इससे किसी को क्या लाभ होगा? यह सुनकर संजय कहता है- युद्ध में तो लाभ और हानि दोनों को ही उठाना पड़ती है परंतु युद्ध का परिणाम ही तय करता है कि कौन जीतेगा। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है- और यदि अर्जुन युद्ध ही नहीं करेगा तो फिर जीत हमारी ही होगी। यह सुनकर संजय कहता है- हां फिर तो पांडवों को उनका राज्य नहीं लौटाना पड़ेगा महाराज।
उधर, अर्जुन कहता है कि हे मधुसुदन! तुम बार-बार ये कह रहे हो कि मन पर काबू पालो तो मुक्ति के द्वार खुल जाएंगे परंतु मन को काबू में करने का कोई सरल साधन भी तो होगा? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- अवश्य है, सरल भी है परंतु बड़ा दुष्कर भी। फिर श्रीकृष्ण मन को काबू में करने के उपाय बताते हैं और मन को काबू में करके धर्म के पथ पर चलकर युद्ध करने का कहते हैं।.. हे अर्जुन तुम शिष्य बनकर मेरी शरण में आए हो इसलिए ज्ञान योग अथवा सांख्य योग की शिक्षा दी है। अब मैं तुम्हें कर्म योग के विषय में वह गूढ़ विधि बताऊंगा जिसके द्वारा तू कर्म करता हुआ भी कर्म के बंधनों से मुक्त रहेगा।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
भावार्थ : जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥
अंत में भगवान श्रीकृष्ण कर्म योग का ज्ञान देते हैं। तीसरे अध्याय कर्मयोग को पढ़ने के लिए आगे क्लिक करें...
निष्काम कर्म योग
श्रीकृष्ण आगे निष्काम कर्म योग की शिक्षा देते हैं। माता पार्वती शिवजी से निष्काम कर्म को स्पष्ट करने का कहती हैं तब शिवजी इस संबंध में बताते हैं कि निष्काम कर्म करने का क्या अर्थ है।
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि उस वक्त जबकि तुम स्वर्ग में गए थे तो उर्वशी के कारण तुम विचलित नहीं हुए थे परंतु आज कैसे विचलित हो गए हो? उस समय तुम अपना धर्म नहीं भूले थे परंतु इस समय तुम अपना धर्म भूल रहे हो। इसका कारण जानना चाहोगे? यह सुनकर अर्जुन कहता है- हां केशव। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- तुम्हारा मन तुम्हारे काबू में नहीं है क्योंकि तुमने कर्म योग नहीं अपनाया है। यह सुनकर अर्जुन कहता है- क्या कहा, कर्मयोग से मन काबू में रहता है? फिर श्रीकृष्ण कई उदाहरण देककर कर्म योग और कर्म योगी के महत्व को प्रदर्शित करते हैं।