हिन्दू धर्म में कम से कम 48 तरह के संस्कारों का वर्णन मिलता है। गौतम स्मृति शास्त्र में 40 संस्कारों का उल्लेख है। कुछ जगह 48 संस्कार भी बताए गए हैं। महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कारों का उल्लेख किया है। वर्तमान में महर्षि वेदव्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार, 16 संस्कार प्रचलित हैं। इन संस्कारों से जहां मानव समाज सभ्य और संस्कारी बनता है वहीं इन संस्कारों का मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक महत्व भी है। आधुनिक युग में जहां नास्तिकों एवं नई सोच के लोगों ने इन संस्कारों को रूढ़िवादी कहकर खारिज कर दिया था वहीं अब इनका वैज्ञानिक महत्व भी सिद्ध होने लगा है।
गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रिया:।।
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधि:। केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रह:।।
त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:। (व्यासस्मृति 1/13-15)
जन्मना जायते शुद्रऽसंस्काराद्द्विज उच्यते।
अर्थात: जन्म से सभी शुद्र होते हैं और संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है।
16 संस्कारों के नाम:- 1.गर्भाधान संस्कार, 2.पुंसवन संस्कार, 3.सीमन्तोन्नयन संस्कार, 4.जातकर्म संस्कार, 5.नामकरण संस्कार, 6.निष्क्रमण संस्कार, 7.अन्नप्राशन संस्कार, 8.मुंडन संस्कार, 9.कर्णवेधन संस्कार, 10.विद्यारंभ संस्कार, 11.उपनयन संस्कार, 12.वेदारंभ संस्कार, 13.केशांत संस्कार, 14.सम्वर्तन संस्कार, 15.विवाह संस्कार और 16.अन्त्येष्टि संस्कार।
गर्भधान संस्कार : आजकल कामवासना से ग्रस्त मनुष्य गर्भाधान संस्कार पर ध्यान नहीं देता है जिसके चलते उसकी संतान का भविष्य अनिश्चित या अंधकार में ही रहता है। विवाह के बाद पति और पत्नीं को मिलकर अपने भावी संतती के बारे में सोच विचार करना चाहिए। बच्चे के जन्म के पहले स्त्री और पुरुष को अपनी सेहत को और भी चंगा करना चाहिए। इसके बाद बताए गए नियमों, तिथि, नक्षत्र आदि के अनुसार ही बालक के जन्म हेतु समागम करना चाहिए। यह बहुत ही पवित्र कर्म होता है लेकिन यदि आप इसे कामवासना के अंतर्गत लेते हैं तो यह अच्छा नहीं है।
उत्तम अन्न ग्रहण करने, पवित्र भावना, प्यार और आनंद की स्थिति निर्मित करने से हमारे शरीर का गुण धर्म बदल जाता है। उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए इसीलिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है जिससे पवित्र भावना का विकास होता है। तब माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है।
गर्भाधान के संबध में स्मृतिसंग्रह में लिखा है:-
निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते।
क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्।।
अर्थात : अर्थात् विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्यसंबधी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान-संस्कार का फल है।
।।गर्भस्याSSधानं वीर्यस्थापनं स्थिरीकरणं
यस्मिन्येन वा कर्मणा तद् गर्भाधानम्।।
गर्भ बीज और आधान = स्थापना। सतेज और दीर्घायु संतान के लिए यथाविधि और यथा समय बीज की स्थापना करनी चाहिए। इसके लिए स्त्री की उम्र कम से कम प्रथम रजोदर्शन से तीन वर्ष बाद की होना चाहिए। इस प्रकार से भली प्रकार से पुष्ट पुरुष की उम्र कम से कम 19 से अधिक होना चाहिए। गर्भधान विवाह के चौथे दिन करना चाहिए, परंतु उस दिन यथा योग्य समय होना चाहिए। स्त्रियों का यथोक्त ऋतुकाल अर्थात गर्भधान करने का समय रजोदर्शन से 16 दिन तक की अवधि का होता है। उक्त संबंध में पहले विस्तार से इसका ज्ञान अर्जित कर लें।
गर्भधारण के बाद क्या करें?
गर्भ में शिशु किसी चैतन्य जीव की तरह व्यवहार करता है- वह सुनता और ग्रहण भी करता है। माता के गर्भ में आने के बाद से गर्भस्थ शिशु को संस्कारित किया जा सकता है। हमारे पूर्वज इन सब बातों से परिचित थे इसलिए उन्होंने गर्भाधान संस्कार के महत्व को बताया। महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न और पुष्ट रहना गर्भधारण के लिए आश्यक है इसलिए स्त्री एवं पुरुष को हमेशा उत्तम भोजन करना चाहिए और सदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन उत्साह, प्रसन्नता और स्वस्थ्यता से भरा होना चाहिए।
पवित्र भावना : जब तक स्त्री गर्भ को धारण करके रखती है तब तक उसे धार्मिक किताबें पढ़ना चाहिए। आध्यात्मिक माहौल में रहना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा रचनात्मक कार्य करना चाहिए। ऐसा काई कार्य न करें जिसमें तनाव और चिंता का जन्म होता हो। गर्भ में पल रहा बच्चा मां की आवाज और मां के मन को संवेदना के माध्यम से सुनता और समझता है। आपके सामने अभिमन्यु का उदाहरण है जिसने गर्भ में रहकर ही संपूर्ण व्यू रचना को तोड़ना सिख लिया था। अत: माता जितना खुद को शांत रखते हुए रचनात्मक कार्यों में अपना समय लगाएगी बच्चा उतना ही समझदार और शांत चित्त का होगा।
यदि आपने बच्चे की परवरिश गर्भ में अच्छे से कर ली तो समझों की उसका आधा जीवन तो आपने सुधार ही दिया। अत: यह याद रखना चाहिए की गर्भ से लेकर 7 वर्ष की उम्र तक बच्चा जो भी सिखता है वहीं उसकी जिंदगी की नींव होती है। नींव को मजबूत बनाएंगे तो आपके बच्चे का भविष्य उज्जवल होगा।
आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ।
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः।।
अर्थात : स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे ही स्वभाव का होता है।
क्या है पुंसवन संस्कार?
हिन्दू धर्म संस्कारों में पुंसवन संस्कार द्वितीय संस्कार है। पुंसवन संस्कार जन्म के तीन माह के पश्चात किया जाता है। पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि गर्भ में तीन महीने के पश्चात गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होने लगता है। पुंसवन संस्कार एक हष्ट पुष्ट संतान के लिए किया जाने वाला संस्कार है। कहते हैं कि जिस कर्म से वह गर्भस्थ जीव पुरुष बनता है, वही पुंसवन-संस्कार है। शास्त्रों अनुसार तीन से चार महीने के बीच तक गर्भ का लिंग-भेद नहीं होता है। इसलिए लड़का या लड़की के चिह्न की उत्पत्ति से पूर्व ही इस संस्कार को किया जाता है।
हिंदू धार्मिक ग्रंथों में सुश्रुतसंहिता, यजुर्वेद आदि में तो पुंसवन संस्कार को पुत्र प्राप्ति से भी जोड़ा गया है। स्मृतिसंग्रह में यह लिखा है - गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम् अर्थात गर्भस्थ शिशु पुत्र रूप में जन्म ले इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता है।
क्यों करते हैं पुंसवन संस्कार?
धर्मग्रथों में पुंसवन-संस्कार करने के दो प्रमुख उद्देश्य मिलते हैं। पहला उद्देश्य संतान प्राप्ति और दूसरा स्वस्थ, सुंदर तथा गुणवान संतान पाने का है। पुंसवन-संस्कार का उद्देश्य बलवान, शक्तिशाली एवं स्वस्थ संतान को जन्म देना है। इस संस्कार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा होती है तथा उसे उत्तम संस्कारों से पूर्ण बनाया जाता है।
कैसे करते हैं पुंसवन संस्कार?
इस संस्कार में एक विशेष औषधि को गर्भवती स्त्री की नासिका के छिद्र से भीतर पहुंचाया जाता है। हालांकि औषधि विशेष ग्रहण करना जरूरी नहीं। विशेष पूजा और मंत्र के माध्यम से भी यह संस्कार किया जाता है। जब तीन माह का गर्भ हो, तो लगातार 9 दिन तक सुबह या रात्रि में सोते समय स्त्री को एक विशेष मंत्र अर्थसहित पढ़कर सुनाया जाता है तथा मन में पुत्र ही होगा ऐसा बार-बार दृढ़ निश्चय एवं पूर्ण श्रद्धा के साथ संकल्प कराया जाता है, तो पुत्र ही उत्पन्न होता है।
सीमन्तोन्नयन संस्कार क्या होता है?
जब महिला का गर्भ 6 माह का हो जाता है तब आने वाले शिशु के लिए सीमन्तोन्नयन संस्कार करते हैं। इस संस्कार के जरिए गर्भवती महिला और शिशु को मानसिक बल प्रदान करना होता है। साथ ही सकारात्मक विचारों का विकास करना भी होता है। इसी दौरान शिशु को गर्भ में ही सभी कुछ सिखाया जा सकता है, क्योंकि वह सब सुनता और समझता है। अतः छठे या आठवें महीने में इस संस्कार करना चाहिए। सीमन्तोन्नयन संस्कार में विशेष मंत्रों का उच्चारण करके विशेष पूजा विधि से इस संस्कार को संपन्न किया जाता है।
पुंसवन संस्कार के समय गर्भस्थ शिशु एक पिंड के समान होता है। चौथे माह में उसके शरीर का विकास तेजी से होने लगा है। धीरे धीरे उसके अंग बनने लगते हैं। 6 माह तक उसकी सभी इंद्रियां बन जाती है और तब माता के शरीर एवं मन में अचानक से हलचल और परिवर्तन होने लगता है। तब गर्भवती महिला की सभी इच्छाएं पूरी करना गर्भस्थ शिशु के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए आवश्यक होता है।
कई बार यदि गर्भवती महिला को कुछ विशेष वस्तु खाने की इच्छा होती है तो यह इच्छा उस गर्भस्थ शिशु के हृदय व चेतना के कारण ही होती है। अत: गर्भवती महिला की सभी जरूरतों को पूर्ण करना और उसे उचित वातावण देने की जिम्मेदारी सभी की होती है। शिशु की शिक्षा और दीक्षा के लिए इस दौरान यदि कोई सिद्ध गुरु हो तो यह सीमन्तोन्नयन संस्कार और भी ज्यादा महत्व का हो जाता है। आजकल जो बेबी शॉवर किया जाता है वो पुंसवन और सीमन्तोन्नयन संस्कारों का ही आधुनिक रूप है।
अभिमन्यु को श्रीकृष्ण ने इसी दौरान चक्रव्यूह भेदन की शिक्षा दी थी। ऋषि अष्ट्रावक्र ने भी गर्भ में ही चारों वेदों को सुन लिया था। इस संस्कार से अगर कोई प्रारब्धवश दुर्योग होता है तो वह भी टल जाता है।