उपनिषद अनुसार जन्म और मृत्यु के बीच तीन अवस्थाएं होती हैं:- 1.जागृत, 2.स्वप्न और 3.सुषुप्ति। उक्त तीन अवस्थाओं से बाहर निकलने का मार्ग है हिन्दू धर्म।
1.जागृत अवस्था
आंखें खुली होने का अर्थ जागा हुआ व्यक्ति लेकिन खुली आंखों से स्वप्न देखना, कल्पना करना, विचार करना या खयालों में खो जाने का अर्थ है सपनों में ही जीना। सिर्फ 1 प्रतिशत लोग ही वर्तमान में ठीक-ठीक जागृत रहते हैं।
2.स्वप्न अवस्था
जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं। स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागा और थोड़ा सोया रहता है। इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घालमेल रहता है इसलिए व्यक्ति कब कैसे स्वप्न देख ले कोई भरोसा नहीं।
3.सुषुप्ति अवस्था
गहरी और स्वप्न रहित नींद को सुषुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित आत्मा विश्राम करते हैं। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और गहरी अवस्था में चले जाते हैं।
4.तुरीय अवस्था
चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय कहते हैं। यह अवस्था व्यक्ति के प्रयासों से प्राप्त होती है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न सुषुप्ति। यह निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे है।
5.तुरीयातीत अवस्था
तुरीय अवस्था के पार पहला कदम तुरीयातीत अनुभव का। यह अवस्था तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति को शरीर की आवश्यकता नहीं रहती।
6.भगवत चेतना
तुरीयातीत की अवस्था में रहते-रहते भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और नि:प्रयास हो जाता है। यह एक महान सिद्ध महायोगी की अवस्था है।
7.ब्राह्मी चेतना
भगवत चेतना के बाद व्यक्ति में ब्राह्मी चेतना का उदय होता है अर्थात कमल का पूर्ण रूप से खिल जाना। अहम् ब्रह्मास्मि और तत्वमसि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं और यह संपूर्ण जगत ही मुझे ब्रह्म नजर आता है।