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दत्तात्रेय जयंती : जानिए भगवान दत्त महाराज के जन्म की कहानी

दत्तात्रेय जयंती : जानिए भगवान दत्त महाराज के जन्म की कहानी - Lord attatreya birth story
Dattatreya Birth Story: श्रीमद्भागवत में महर्षि अत्रि एवं माता अनुसूया के यहां त्रिदेवों के अंश से तीन पुत्रों के जन्म लेने का उल्लेख मिलता है। कहते हैं कि ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय और शिव के अंश से दुर्वासा ऋषि का जन्म हुआ। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष माह की पूर्णिमा को भगवान दत्तात्रेय की जयंती मनाई जाती है। इस बार 26 दिसंबर 2023 मंगलवार को यह जयंती मनाई जाएगी। आओ जानते हैं दत्तात्रेय के जन्म की कहानी।
 
जब हम भगवान दत्तात्रेय का चित्र देखते हैं तो उनके तीन मुख और 6 हाथ नजर आते हैं। तीन मुख ब्रह्मा विष्णु और महेष की तरह है। दाएं तीन हाथों में से एक में शंख, दूसरे में त्रिशूल और तीसरा हाथ वरदान मुद्रा में है। बाएं तीन हाथों में से पहले में चक्र, दूसरे में डमरू और तीसरे में कमंडल उनके हाथों में हैं।
 
दत्तात्रेय का जन्म ऋषि अत्रि और देवी अनसूया के घर हुआ था। उन्हें भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक माना जाता है। भगवान दत्तात्रेय के पीछे खड़ी गाय पृथ्वी एवं कामधेनु का प्रतीक हैं। कामधेनु हमें इच्छित वस्तु प्रदान करती हैं। भगवान दत्तात्रेय के साथ जुड़े चार श्वान- ये ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद इन चारों वेदों के प्रतीक हैं। भगवान दत्तात्रेय का पूजनीय स्वरूप औदुंबर वृक्ष है, इस वृक्ष में भगवान तत्व रूप में मौजूद रहते हैं।
 
ब्रह्मा जी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता तथा कर्दम ऋषि की कन्या और सांख्यशास्त्र के प्रवक्ता कपिलदेव की बहन सती अनुसूया इनकी माता थीं। महर्षि अत्रि सतयुग के ब्रह्मा के 10 पुत्रों में से थे तथा उनका आखिरी अस्तित्व चित्रकूट में सीता-अनुसूया संवाद के समय तक अस्तित्व में था। उन्हें सप्तऋषियों में से एक माना जाता है और ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
 
ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। 
हालांकि यह भी कहा जाता है कि नारद घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों ( सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती ) के पास बारी-बारी जाकर कहा- अत्रिपत्नी अनसूया के समक्ष आपको सतीत्व नगण्य है। तीनों देवियों ने अपने स्वामियों- विष्णु, महेश और ब्रह्मा से देवर्षि नारद की यह बात बताई और उनसे अनसूया के पातिव्रत्य की परीक्षा करने को कहा।
 
देवताओं ने बहुत समझाया परंतु उन देवियों के हठ के सामने उनकी एक न चली। अंततः साधुवेश बनाकर वे तीनों देव अत्रिमुनि के आश्रम में पहुंचे। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। अतिथियों को आया देख देवी अनसूया ने उन्हें प्रणाम कर अर्घ्य, कंदमूलादि अर्पित किए किंतु वे बोले- हम लोग तब तक आतिथ्य स्वीकार नहीं करेंगे, जब तक आप हमें अपने गोद में बिठाकर भोजन नहीं कराती।
 
यह बात सुनकर प्रथम तो देवी अनसूया अवाक्‌ रह गईं किंतु आतिथ्य धर्म की महिमा का लोप न जाए, इस दृष्टि से उन्होंने नारायण का ध्यान किया। अपने पतिदेव का स्मरण किया और इसे भगवान की लीला समझकर वे बोलीं- यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो यह तीनों साधु छह-छह मास के शिशु हो जाएं। इतना कहना ही था कि तीनों देव छह मास के शिशु हो रुदन करने लगे।
 
तब माता ने उन्हें गोद में लेकर दुग्ध पान कराया फिर पालने में झुलाने लगीं। ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गया। इधर देवलोक में जब तीनों देव वापस न आए तो तीनों देवियां अत्यंत व्याकुल हो गईं। फलतः नारद आए और उन्होंने संपूर्ण हाल कह सुनाया। तीनों देवियां अनसूया के पास आईं और उन्होंने उनसे क्षमा मांगी।
 
देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर दिया। इस प्रकार प्रसन्न होकर तीनों देवों ने अनसूया से वर मांगने को कहा तो देवी बोलीं- आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों। तथास्तु- कहकर तीनों देव और देवियां अपने-अपने लोक को चले गए। कालांतर में यही तीनों देव अनसूया के गर्भ से प्रकट हुए। 
 
कालांतर में यही तीनों देव अनसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय श्रीविष्णु भगवान के ही अवतार हैं और इन्हीं के आविर्भाव की तिथि दत्तात्रेय जयंती के नाम से प्रसिद्ध है।
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