अधिक मास में प्रेरणा देते हैं श्रीमद्भगवत गीता के विचार
गीता के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अनासक्त कर्म यानी 'फल की इच्छा किए बिना कर्म' करने की प्रेरणा दी। इसका प्रमाण उन्होंने अपने निजी जीवन में भी प्रस्तुत किया। मथुरा विजय के बाद भी उन्होंने वहां शासन नहीं किया।
कला से प्रेम करो : संगीत व कलाओं का हमारे जीवन में विशिष्ट स्थान है। भगवान ने मोरपंख व बांसुरी धारण करके कला, संस्कृति व पर्यावरण के प्रति अपने लगाव को दर्शाया।
इनके जरिए उन्होंने संदेश दिया कि जीवन को सुंदर बनाने में संगीत व कला का भी महत्वपूर्ण योगदान है।
निर्बल का साथ दो : कमजोर व निर्बल का सहारा बनो। निर्धन बाल सखा सुदामा हो या षड्यंत्र का शिकार पांडव, श्रीकृष्ण ने सदा निर्बलों का साथ दिया और उन्हें मुसीबत से उबारा।
अन्याय का प्रतिकार करो : अन्याय का सदा विरोध होना चाहिए। श्रीकृष्ण की शांतिप्रियता कायर की नहीं बल्कि एक वीर की थी। उन्होंने अन्याय कभी स्वीकार नहीं किया। शांतिप्रिय होने के बावजूद शत्रु अगर गलत है तो उसके शमन में पीछे नहीं हटें।
मातृशक्ति के प्रति आदर भाव रखें : महिलाओं के प्रति सम्मान व उन्हें साथ लेकर चलने का भाव हो। भगवान कृष्ण की रासलीला दरअसल मातृशक्ति को अन्याय के प्रति जागृत करने का प्रयास था और इसमें राधा उनकी संदेशवाहक बनीं।
अपने अहंकार को छोड़ो : व्यक्तिगत जीवन में हमेशा सहज व सरल बने रहो।
जिस तरह शक्ति संपन्न होने पर भी श्रीकृष्ण को न तो युधिष्ठिर का दूत बनने में संकोच हुआ और न ही अर्जुन का सारथी बनने में। एक बार तो दुर्योधन के छप्पन व्यंजन को छोड़ कर विदुरानी (विदुर की पत्नी) के घर उन्होंने सादा भोजन करना पसंद किया।
जीवन में उदारता रखें : उदारता व्यक्तित्व को संपूर्ण बनाती है।
श्रीकृष्ण ने जहां तक हो सका मित्रता, सहयोग सामंजस्य आदि के बल पर ही परिस्थितियों को सुधारने का प्रयास किया, लेकिन जहां जरूरत पड़ी वहां सुदर्शन चक्र उठाने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया। वहीं अपने निर्धन सखा सुदामा का अंत तक साथ निभाया और उनके चरण तक पखारें।