तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कुछ अहम सवालों का जवाब नहीं मिला। सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार करते हुए इसे खत्म कर दिया है। कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस दौरान कानून बनाने के लिए कहा है।
इसके साथ ही उन इन बड़े सवालों का भी जवाब नहीं मिला जिसमें यह तय होना था कि मुस्लिम धर्म में तीन तलाक मान्य है या नहीं? अगर इन बड़े सवालों के जवाब मिलते तो मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी और भी बेहतर हो सकती थी।
तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट को यह भी तय करना था कि तलाक-ए बिद्दत यानी एक बार में तीन तलाक और निकाह हलाला, धर्म का अभिन्न अंग है या नहीं? अगर ये इस्लाम के अभिन्न अंग नहीं हैं तो इन्हें अवैध घोषित क्यों नहीं किया गया? विशेष रूप से आजादी के सत्तर साल के बाद भी।
एक और अहम प्रश्न है कि क्या इन दोनों मुद्दों को महिला के मौलिक अधिकारों से जोड़ा जा सकता है या नहीं? अगर यह महिलाओं के साथ पक्षपात नहीं है तो इन दोनों मुद्दों पर केन्द्र सरकार और सरकार मुंह में दही क्यों जमाए रही?
क्या कोर्ट इसे मौलिक अधिकार करार देकर कोई आदेश लागू करा सकता है या नहीं?
अगर नहीं तो क्या यह महिलाओं के साथ भेदभाव, लैंगिक असमानता और उनके मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है? इन मामलों पर कोर्ट का क्या कहना है?
विदित हो कि इस मामले पर कोर्ट ने केन्द्र सरकार से भी कुछ सवाल पूछे थे, क्या इस फैसले से इन सवालों के भी जवाब दिए गए?
कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि -
1. धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत तीन तलाक, हलाला और बहु-विवाह की इजाजत संविधान के तहत दी जा सकती है या नहीं?
2. समानता का अधिकार और गरिमा के साथ जीने का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में प्राथमिकता किसको दी जाए?
3. पर्सनल लॉ को संविधान के अनुछेद 13 के तहत कानून माना जाएगा या नहीं?
4. क्या तीन तलाक, निकाह हलाला और बहु-विवाह उन अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत सही है, जिस पर भारत ने भी दस्तखत किए हैं?
5. अगर यह मुद्दा राजनीतिक दलों की कृपा से कानूनी, धार्मिक लड़ाई का विषय बन जाता है तो क्या इस तय समयावधि के भीतर वांछित तौर पर कठोर कानून बना सकती है?
आपको यह जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि इस्लाम में केवल पुरुषों को ही तलाक देने का अधिकार है, दूसरी तरफ महिलाओं को तलाक देने का अधिकार नहीं है। आज कई ऐसे मुस्लिम शख्स हैं जो व्हाट्सएप पर, ईमेल पर या फिर फोन पर ही तलाक दे देते हैं।
तलाक से जुड़े कुछ और तथ्य : भारत में 9 करोड़ मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक का दंश झेल चुकी हैं और ये तब है जब भारत तीसरा सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है। ये सभी तलाक कथित तौर पर शरिया कानून के तहत दिए गए हैं। क्या सरकार इस तरह के धार्मिक कानूनों के साथ संवैधानिक कानूनों को भी जगह देगी?
आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया के 22 मुस्लिम देशों में तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन भारत में यह क्यों संभव नहीं है। क्या राजनीतिक तुष्टिकरण नीति का परिणाम नहीं है अगर है तो इस पर क्या रोक लगाई जा सकी? केन्द्र सरकार में क्या इस पर रोक लगाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है?
भारत में बाल विवाह पर प्रतिबंध होने के बावजूद 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, 13.5 फीसदी मुस्लिम महिलाओं की शादी 15 साल से कम उम्र में कर दी गई। 49 प्रतिशत महिलाओं की शादी 14 से 19 वर्ष के बीच कर दी गई। वहीं, 18 प्रतिशत का निकाह 20 से 21 साल की उम्र में कर दिया गया। मुस्लिमों में बाल विवाह पर रोक क्यों नहीं लगाई गई? क्या सरकार इस पर रोक लगा सकती है?
भारत में जिन महिलाओं को तलाक दिया गया, उनमें 80 से 95 प्रतिशत को किसी प्रकार का गुजारा भत्ता तक नहीं दिया गया। इतना ही नहीं, 65 फीसदी मुस्लिम महिलाओं को उनके पतियों ने मुंह से तलाक बोला है और शादी के बंधन से मुक्त हो गए हैं। क्या यह अवैध और नाजायज नहीं है तो इस पर रोक लगाने की जरूरत क्यों नहीं समझी गई क्योंकि यह मुद्दा सामाजिक बुराई की बजाय राजनीतिक दलों की नाक का सवाल बन गया। केन्द्र सरकार अब विरोध की स्थिति से कैसे निपटेगी?