नई दिल्ली, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास से जुड़े एक स्टार्टअप का नवाचार इलेक्ट्रिक वाहनों के मोर्चे पर क्रांतिकारी साबित हो सकता है। पिछले कुछ समय से प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है और उसके कुछ अच्छे परिणाम भी सामने आए हैं, परंतु उनकी एक सीमा भी रही है।
लंबी दूरी की यात्रा करने वाले बड़े वाहनों को इलेक्ट्रिक से चलाना संभव नहीं हो सका है। उसी तरह ट्रक जैसे भारी वाहनों के इलेक्ट्रिक स्वरूप की कल्पना भी मुश्किल लगती है, क्योंकि उसके लिए बड़े पैमाने पर बैटरियों की आवश्यकता होगी और केवल इसी कारण ट्रकों का आकार बहुत अधिक बढ़ सकता है। मौजूदा तकनीक के आधार पर बनने वाले इलेक्ट्रिक ट्रक पांच से सात टन वजनी और भारी तक हो सकता है। यह नई खोज इसी समस्या का समाधान कर भारी इलेक्ट्रिक वाहनों की राह प्रशस्त करने की दिशा में एक कदम है।
ट्रकों को अमूमन लंबी यात्रा करनी पड़ती है तो उनके लिए भारी तादाद में बैटरी रखना व्यावहारिक नहीं होगा, क्योंकि इससे उनका परिचालन बहुत प्रभावित होगा। ऐसे में अगर यात्रा के दौरान ही ऊर्जा उपभोग के लिए इलेक्ट्रिसिटी मिल जाए तो इसका समाधान संभव है। इसमें फ्यूल सेल्स बहुत उपयोगी हैं, लेकिन उन्हें लेकर समस्या यही है कि फिलहाल वे बहुत ही महंगे हैं।
आईआईटी मद्रास के सहयोग से विकसित हो रहे स्टार्टअप एयरोस्ट्रोविलोस ने इस बाधा को दूर करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। उसने ऊर्जा उत्पादन के लिए वाहन में माइक्रो गैस टरबाइन लगाई है ताकि सफर के दौरान ऊर्जा की आपूर्ति सुनिश्चित रहे।
उसकी दलील है कि जब सामान्य बिजली उत्पादन में दशकों से गैस टरबाइन का उपयोग जारी है तो ट्रकों में उसका उपयोग क्यों नहीं किया जा सकता? इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए एयरोस्ट्रोविलोस ने एक 'टरबाइन इलेक्ट्रिक वाहन' (टीईवी) विकसित किया है। इसका आकार किसी बड़े सामान्य ट्रक से कुछ छोटा और बैटरी से चलने वाले ट्रक से बड़ा है।
इसमें 60 किलोवॉट क्षमता का एक गैस टरबाइन जेनरेटर लगाया गया है। साथ ही एक छोटी बैटरी भी लगाई गई है जो वाहन के मोटर को निरंतर आधार पर ऊर्जा की आपूर्ति करती रहे। यह 'फ्यूल टैंक-जीटी बैटरी मोटर' संरचना अपने आप में अनूठी है और इसका वजन एक टन से भी कम है। एयरोस्ट्रोविलोस के सीईओ रोहित ग्रोवर ने मीडिया को जानकारी दी है कि कंपनी जल्द ही इसके प्रतिरूप (प्रोटोटाइप) का परीक्षण करने जा रही है
यह सब सुनने में सरल लग रहा है, लेकिन इसे मूर्त रूप देने की राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। लागत की समस्या इसके साथ भी जुड़ी है, क्योंकि गैस टरबाइन भी सस्ती नहीं आतीं और उससे भी बड़ी बात यह है कि छोटी गैस टरबाइन तो और भी महंगी पड़ती है। हालांकि कुछ लोअर ग्रेड मैटिरियल के इस्तेमाल से इसकी लागत घटाई जा सकती है। जैसे कि एयरो ग्रेड मैटिरियल के बजाय स्टेनलेस स्टील के उपयोग द्वारा। इसके साथ एक दूसरी चुनौती जुड़ी हुई है, वह यह कि टरबाइन के भीतर फ्लेम टेंपरेचर को भी कम करना होगा। इसका निहितार्थ यही है कि तापमान जितना कम होगा नाइट्रस ऑक्साइड उतनी ही कम बनेगी। साथ ही इसमें कंबस्टेशन इनस्टेबिलिटी यानी ज्वलन अस्थिरता,असमान ज्वलन, ऊर्जा का एकसमान सार्वभौमिक वितरण जैसी अन्य चुनौतियां भी हैं।
दूसरी बात यह कि गैस टरबाइन से निकलने वाली ऊष्मा के व्यर्थ जाने का भी कोई तुक नहीं। एयरोस्ट्रोविलोस ने इसके लिए 'रीक्यूपिरेटर' बनाया है जो ऊष्मा विनियमक यानी हीट एक्सचेंजर का काम करता है। इसमें गैस टरबाइन में प्रवेश करने वाली हवा रीक्युरेरेटर के भीतर एक्जॉस्ट से पहले ऊष्मा को ग्रहण करती है। इसे तैयार करने में टीम को अपने मेंटर सत्या चक्रवर्ती की मदद मिली है। चक्रवर्ती आईआईटी मद्रास में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर हैं।
इसकी आर्थिक व्यावहारिकता पर ग्रोवर कहते हैं कि टीईवी को 55 लाख रुपये में खरीदा जा सकता है। बाजार में डीजल से चलने वाले ट्रक की कीमत भी अमूमन इतनी ही पड़ती है, परंतु टीईवी ईंधन के लिहाज से बहुत किफायती है। टीईवी जहां एक लीटर डीजल में 5.5 किलोमीटर तक चल सकता है जबकि सामान्य ट्रक 3.5 किलोमीटर प्रति लीटर के औसत से चलता है। इसके फ्यूल सेल्स सिस्टम के बारे में भी ग्रोवर कहते हैं कि टीईवी, हाइड्रोजन सहित किसी भी ईंधन पर चल सकेगा। जब तक डीजल का डीएमई, मेथेनॉल या हाइड्रोजन जैसा कोई कारगर विकल्प नहीं आ जाता, तब तक वह डीजल से भी चलाया जा सकेगा।
इस लिहाज से अगर टीईवी साल भर में 90,000 किलोमीटर चले तो तीन वर्षों के भीतर अपनी अतिरिक्त लागत की भरपाई कर लेगा। इसके अतिरिक्त टीईवी की औसत परिचालन आयु भी अधिक है, जो 12 लाख किलोमीटर तक आसानी से चल सकेगा, जबकि आईसी इंजन वाला सामान्य ट्रक आठ लाख किलोमीटर तक ही बढ़िया ढंग से चलता है। अब इसके प्रतिरूप से मिलने वाले आंकड़ों की प्रतीक्षा है, जिसके बाद टीईवी को लेकर स्पष्ट तौर पर राय बनाई जा सकेगी।
(इंडिया साइंस वायर)