राहुल गांधी की स्वीकार्यता को लेकर अब भी विपक्षी एकता में भले ही सुलह न दिखे या यूं कहें कि दिखने में कुछ दल सहमति न देकर अपने अस्तित्व के लिए ही चिंतित हो गए हों। लेकिन 5 राज्यों के चुनाव जिसे सत्ता का सेमीफाइनल कहा जा रहा था, ने कांग्रेस को जो संजीवनी दी उसने राहुल के नेतृत्व पर उंगली उठाने वालों को एक बार सोचने के लिए विवश जरूर कर दिया है।
यह बात इसलिए भी वजनदार लगती है, क्योंकि नतीजों के बाद से ही उप्र में 80 लोकसभा सीटों के लिए गठबंधन की नई कवायद जिसमें 2019 के आम चुनाव में सपा 37, बसपा 38 और रालोद की 3 सीटों पर लगभग बन चुकी सहमति की तस्वीर यही कहती है। इसमें कांग्रेस के लिए कोई जगह न होना या केवल कांग्रेस के गढ़ अमेठी और रायबरेली में उम्मीदवार नहीं उतारना ऐसा ही संकेत देता है।
इसी तरह हिन्दीभाषी यानी हिन्दी पट्टी के 3 राज्यों में भाजपा को वो आशातीत सफलता नहीं मिली जिसके लिए प्रधानमंत्री मोदी, राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, उप्र के मुख्यमंत्री योगी और भाजपा के तमाम स्टार प्रचारकों ने खूब पसीना बहाया और बड़ी-बड़ी बातें हुई थीं। लेकिन मिजोरम ने कांग्रेस को निराश किया और कुल 5 सीटें हासिल कीं और 26 खोईं और इतनी ही सीटों को हासिल कर मिजो नेशनल फ्रंट ने 10 साल बाद सत्ता में वापसी की।
हां, भाजपा का सुकून यही है कि 1 सीट से खाता जो खुला। तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव ने समय पूर्व चुनाव कराने का जो बड़ा जुआ खेला, वह सही साबित हुआ। यकीनन क्षेत्रीय दलों के दबदबे को नकारना राजनीतिक भूल होगी।
इन चुनावों में मुद्दों से हटकर भी जमकर राजनीति हुई जिस पर मतदाता ने भी खुलकर यह जतलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि उसके लिए चुनावी हथकंडों से इतर लोकजीवन से जुड़े मुद्दे अहम हैं। यही कारण है कि तीनों राज्यों में कांग्रेस ने बिना गलती और देरी किए सबसे पहले किसानों को लेकर खेला गया दांव पूरा किया। किसानों का मामला कितना नाजुक और संवेदनशील है, यह इसी से पत चलता है कि जहां कमलनाथ ने मुख्यमंत्री बनते ही महज आधे घंटे में सबसे पहले मप्र के 34 लाख किसानों का 31 मार्च 2018 तक का लगभग 38 हजार करोड़ के कर्जमाफी के आदेश पर दस्तखत किए वहीं मुख्यमंत्री कन्यादान योजना में मिलने वाली राशि को 26 हजार से बढ़ाकर 51 हजार रुपए कर दिया।
वहीं दूसरे ही दिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी लगभग 16 लाख 65 हजार किसानों के 6,100 करोड़ रुपए के अल्पकालिक कर्ज माफी के ऐलान के साथ धान का कटोरा कहे जाने वाले राज्य के किसानों की आशा के अनुरूप धान खरीदी का समर्थन मूल्य 1,750 से बढ़ाकर वादे के मुताबिक 2,500 रुपए प्रति क्विंटल कर एक ही झटके में किसानों का दिल जीत लिया। कुछ इसी तर्ज पर शपथ लेने के तीसरे दिन राजस्थान में भी किसानों के 2 लाख रुपए के कर्जमाफी, जिस पर 18 हजार करोड़ रुपए का बोझ सरकार पर पड़ेगा, पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने दस्तखत कर दिए।
अब मप्र में किसानों का बिजली बिल आधा करने के साथ 100 यूनिट तक बिजली खपत करने वाले उपभोक्ताओं का बिल भी 100 रुपए कर भाजपा सरकार की 200 रुपए बिजली बिल वाली संबल योजना का जवाब देकर 63 लाख से ज्यादा उपभोक्ताओं को लुभाकर लोकसभा चुनावों में इसे जमकर भुनाया जा सकता है। इसके पीछे दिल्ली में बिजली के बिलों में कमी का केजरीवाल सरकार का लोकप्रिय फैसला भी हो सकता है। हो सकता है कुछ ऐसा ही छग और राजस्थान की कांग्रेस सरकारें भी करें।
इसी बीच राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा का राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से अलग होना और अब लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) प्रमुख रामविलास पासवान की नाराजगी बता रही है कि हवा का रुख कहीं और है। हालांकि एनडीए के कोटे से उन्हें राज्यसभा भेजे जाने की सहमति भी रविवार को बन चुकी है। निश्चित रूप से ऐसे घटनाक्रमों पर भाजपा में चिंतन और मंथन चल रहा होगा और कल तक अति आत्मविश्वास से लबरेज दिखने वालों के माथों पर चिंता के बल भी होंगे।
वोट प्रतिशत के आंकड़ों के खेल में हिन्दीभाषी तीनों राज्यों में सिवाय छत्तीसगढ़ के कांग्रेस का प्रदर्शन उम्दा नहीं कहा जा सकता लेकिन भाजपा के 'कांग्रेस मुक्त' नारे की हवा निकलना कहें या दंभ और बड़बोलापन जिसे मतदाता ने जरूर नकार दिया है। हां, चुनाव जीतने के बाद तीनों राज्यों में कांग्रेस ने वादे के अनुसार किसानों की कर्जमाफी का जो सबसे बड़ा पांसा फेंका है, उसमें भाजपा की घबराहट इसी से समझ पड़ती है कि झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने किसानों को प्रति एकड़ खेती के लिए 5,000 रुपए देने तथा 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य की घोषणा कर जबरदस्त दांव फेंका है।
इतना तो साफ हो गया है कि 2019 के आम चुनावों में किसान ही सभी दलों के लिए भगवान होगा और हर कोई इन्हें मनाना चाहेगा। बस, देखना होगा कि राजनीति के ऐसे दांव-पेंच में फिर से न किसान बाजी हार जाए!