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उच्चतम न्यायालय का आर्थिक आधार पर आरक्षण संबंधी फैसला क्‍यों है इतना महत्वपूर्ण

supreme court
आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग यानी ईडब्ल्यूएस के लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण को उच्चतम न्यायालय द्वारा सही ठहराया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला है। पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ में से दो इसके पक्ष में नहीं थे, लेकिन बहुमत के आधार पर फैसला हो गया। हालांकि ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण लागू होने के बावजूद इस पर विवाद और बहस जारी रहेगा।

संभावना यह भी है कि फैसले के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में पुनर्विचार याचिका डाली जाएगी। तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज डीएमके नेता स्टालिन ने कहा कि हम अपने वकीलों से विचार कर रहे हैं और फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका डालेंगे। हालांकि ज्यादातर दलों में खुलकर स्टालिन की तरह इसका विरोध नहीं किया है, किंतु एक्टिविस्टों और बुद्धिजीवियों के जमात से इसके विरुद्ध स्वर उठ रहे हैं।

आइए, विषय को पहले समझने की कोशिश करें। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के लोगों को आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण दिया था। 103 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 15 और 16 में खंड छह जोड़कर आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णो के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10% आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। इस विधेयक के आने के साथ ही विरोध आरंभ हो गया था। स्वाभाविक ही इसके पारित होने के साथ ही न्यायालय में चुनौती देने की शुरुआत हो गई। इस तर्क से विरोध आरंभ हुआ कि यह सामाजिक न्याय की अवधारणा के विरुद्ध है तथा इसमें संविधान के मूल ढांचे का भी उल्लंघन हुआ है। फरवरी, 2020 में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में 5 छात्रों ने याचिका दायर की। इसमें कहा गया था कि इससे अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्ग को बाहर रखना संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय में 40 से ज्यादा याचिकाएं दायर हुई थीं।

याचिकाकर्ताओं में डीएमके भी शामिल था। न्यायालय के सामने मुख्य तीन प्रश्न थे। एक, क्या आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण के लिए किया गया संशोधन संविधान की मूल भावना के खिलाफ है? दो,क्या इससे अनुसूचित जाति जनजाति के सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को बाहर रखना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है? और तीन, क्या राज्यों को अपने यहां शिक्षण संस्थानों में ईडब्ल्यूएस के लिए कोटा तय करने का अधिकार देना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है? संविधान पीठ के फैसले का अर्थ है कि यह संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध नहीं है। एक प्रश्न आरक्षण की सीमा 50% से संबंधित भी था।

अब यह देखें कि संविधान पीठ के पांच न्यायाधीशों में से किसने क्या कहा? मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित, न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी, न्यायमूर्ति पारदीवाला और न्यायमूर्ति रवींद्र भट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ में से मुख्य न्यायाधीश और न्यायमूर्ति भट ईडब्ल्यूएस आरक्षण के विरुद्ध थे जबकि न्यायमूर्ति माहेश्वरी, न्यायमूर्ति त्रिवेदी और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला ने इसे उचित और संविधानसम्मत कहा। संक्षेप में देखें कि न्यायमूर्तियों ने अपने फैसले में क्या-क्या कहा है

1. जस्टिस दिनेश माहेश्वरी- केवल आर्थिक आधार पर दिया जाने वाला आरक्षण संविधान के मूल ढांचे और समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। 50% तय सीमा के आधार पर भी ईडब्ल्यूएस आरक्षण मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं है, क्योंकि 50% आरक्षण की सीमा अपरिवर्तनशील नहीं है।

2. न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी- मैं न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी से सहमत हूं और यह मानती हूं की ईडब्ल्यूएस आरक्षण मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं है और न ही यह किसी तरह का पक्षपात है। यह बदलाव आर्थिक रूप से कमजोर तबके को मदद पहुंचाने के तौर पर ही देखना जाना चाहिए। इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता है।

3. न्यायमूर्ति पारदीवाला-  न्यायमूर्ति माहेश्वरी और न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी से सहमत होते समय मैं यहां कहना चाहता हूं कि आरक्षण का अंत नहीं है। इसे अनंतकाल तक जारी नहीं रहना चाहिए, वर्ना यह निजी स्वार्थ में तब्दील हो जाएगा। आरक्षण सामाजिक और आर्थिक असमानता खत्म करने के लिए है। यह अभियान सात दशक पहले शुरू हुआ था। प्रगति और शिक्षा ने इस खाई को कम करने का काम किया है।

इसके विरुद्ध दो न्यायमूर्तियों का फैसला भी देखिए -
1. न्यायमूर्ति रवींद्र भट- आर्थिक रूप से कमजोर और गरीबी झेलने वालों को सरकार आरक्षण दे सकती है और ऐसे में आर्थिक आधार पर आरक्षण अवैध नहीं है, लेकिन इसमें से अनुसूचित जाति -जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग को बाहर किया जाना असंवैधानिक है। मैं यहां विवेकानंदजी की बात याद दिलाना चाहूंगा कि भाईचारे का मकसद समाज के हर सदस्य की चेतना को जगाना है। ऐसी प्रगति बंटवारे से नहीं, बल्कि एकता से हासिल की जा सकती है। यह समानता की भावना को खत्म करता है। यह संविधान के मूल ढांचे का भी उल्लंघन है। ऐसे में मैं ईडब्ल्यूएस आरक्षण को गलत ठहराता हूं।

2. मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित- मैं न्यायमूर्ति रवींद्र भट के विचारों से पूरी तरह सहमत हूं। संशोधन के दायरे से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के गरीबों को बाहर रखना भेदभाव दर्शाता है जो कि संवैधानिक रूप से प्रतिबंधित है। थोड़े विस्तार में जाएं तो न्यायमूर्ति भट्ट की कुछ पंक्तियां ध्यान देने योग्य है, 'गणतंत्र के सात दशकों में पहली बार इस अदालत ने स्पष्ट रूप से बहिष्करण और भेदभावपूर्ण को मंजूरी दी है। हमारा संविधान बहिष्कार की भाषा नहीं बोलता है। मेरा मानना है कि यह संशोधन सामाजिक न्याय के ताने-बाने को कमजोर करता है।'

इसके समानांतर आरक्षण का समर्थन करने वाले न्यायमूर्ति माहेश्वरी ने कहा है कि 103वें संशोधन को संविधान के मूल ढांचे को भंग करने वाला नहीं कहा जा सकता। आरक्षण सकारात्मक कार्य करने का एक जरिया है ताकि समतावादी समाज के लक्ष्य की ओर सर्वसमावेशी तरीके से आगे बढ़ा जा सके। यह किसी भी वंचित वर्ग या समूह के समावेश का एक साधन है। इसी तरह न्यायमूर्ति त्रिवेदी और न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा कि केवल आर्थिक आधार पर दाखिलों और नौकरियों में आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं करता।

103वें संविधान संशोधन को ईडब्ल्यूएस के कल्याण के लिए उठाए गए संसद के सकारात्मक कदम के तौर पर देखना होगा। उन्होंने इन दलीलों पर भी समान रुख रखा कि मंडल मामले में फैसले के तहत कुल आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि इसके कथित उल्लंघन से संविधान के बुनियादी ढांचे पर असर नहीं पड़ता। केंद्र की ओर से पेश तत्कालीन अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुनवाई के दौरान कहा था कि आरक्षण की 50% सीमा को सरकार ने नहीं तोड़ा। 1992 में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया था कि 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए ताकि बाकी 50% जगह सामान्य वर्ग के लोगों के लिए बची रहे। यह आरक्षण 50% में आने वाले सामान्य वर्ग के लोगों के लिए ही है।

इस तरह उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायमूर्तियों ने अपना मत प्रकट कर दिया है। हम अपने दृष्टिकोण के अनुसार इसका अर्थ निकाल सकते हैं। निस्संदेह,संविधान में सामाजिक व शैक्षणिक शब्द प्रयोग क है लेकिन इससे आर्थिक आधार असंवैधानिक हो जाएगा यह तर्क आसानी से गले नहीं उतरता। सामाजिक आधार पर जातीय भेदभाव रहा है किंतु आज वही स्थिति नहीं है जो 1950, 60, 70, 80 के दशक में थी। संसद व राज्य विधायकों से लेकर स्थानीय निकायों में राजनीतिक आरक्षण, नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण के कारण अनुसूचित जाति -अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों का सामाजिक- आर्थिक -शैक्षणिक उत्थान हुआ।

सरकार के अन्य कल्याणकारी कार्यक्रमों से भी उन्हें लाभ मिला है। ऐसा नहीं है कि सब कुछ अच्छा हो गया है किंतु स्थिति वैसी ही नहीं है जैसी पहले थी। जिन्हें सामाजिक शैक्षणिक रूप से उच्च वर्ग माना गया उनमें भी ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए हैं। उन्हें आरक्षण से वंचित रखना और वह भी इस आधार पर कि वे घोषित पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जनजाति में नहीं आते, सामाजिक न्याय के विरुद्ध जाना होगा। इस विषय को संविधान के साथ मानवीयता, संवेदनशीलता, करुणा और सबसे बढ़कर देश में विषमता कम करने के लक्ष्य की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। वैसे उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण की समय सीमा पर भी बात की है। आरक्षण व्यवस्था अनंत काल के लिए नहीं हो सकती। राजनीति इतनी दुर्बल हो गई है कि आज कोई भी इस विषय पर बात करने को तैयार नही। आरक्षण जिनके लिए है उन तक पहुंच रहा है या कुछ समूह तक ही सीमित हो गया है इसकी समीक्षा की बात पर भी सामाजिक न्याय को केवल आरक्षण तक सीमित मानने वाले नेतागण और एक्टिविस्ट आगबबूला हो जाते हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए।

Edited: By Navin Rangiyal
नोट :  आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्‍यक्‍त विचारों से सरोकार नहीं है।
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