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खुद को पहचानने और तराशने में मदद करेगा यह ब्लॉग : मन के द्वार खोलिए, ईश्वर यहीं है

खुद को पहचानने और तराशने में मदद करेगा यह ब्लॉग : मन के द्वार खोलिए, ईश्वर यहीं है - Hindi Blog On Humanity And God
श्री श्री रविशंकर का विचार है -' एक-दूसरे के लिए भगवान बन जाओ, ईश्वर को कहीं आसमान में मत खोजो।'
मुझे उनके इस विचार में वो सुनहरा मार्ग नज़र आया, जिस पर चलकर हम प्रसन्नता और शांति को अपने जीवन में स्थायित्व प्रदान कर सकते हैं।
 
सामान्य तौर पर भगवान की परिकल्पना में वह दैवीय स्वरुप सामने आता है, जो स्नेह, दया, क्षमा, सौहार्द्र, अपरिग्रह से भरा हुआ है और जो ईर्ष्या, द्वैष ,हिंसा, प्रतिहिंसा, लोभ से परे है। 
 
तनिक गंभीरता से सोचकर देखिए कि हमारे लिए भी ऐसा बनना कठिन नहीं है। मन में संकल्प कर लें, तो थोड़े से प्रयासों से इसे संभव बना सकते हैं। इसे कुछ उदाहरणों से समझें। 
 
मान लीजिए, कोई हमारा अपना किसी बात पर हमसे विवाद करे, तो हम मौन रहें क्योंकि यदि उसी समय हम भी क्रोधावेश में अपनी बात रखेंगे, तो विवाद बढ़ेगा और संबंधों में कटुता आ जाएगी। इसलिए बाद में जब वह शांत हो जाए, तब अपना पक्ष रखें तो उसे स्वयं अपनी लघुता और आपके बड़प्पन का अहसास होगा और तब आपके और उसके संबंध सदा के लिए मधुर हो जाएंगे। 
 
यहां आपने धैर्य रखा भी और सिखाया भी। बस, यही तो एक दूसरे के लिए भगवान हो जाना है क्योंकि भगवान धैर्य की शिक्षा देते हैं।
 
दूसरा उदाहरण, किसी ने आपके साथ कभी दुर्व्यवहार किया, जो आपके लिए अत्यंत पीड़ादायी रहा। अब उसकी याद तो सदैव जेहन में रहेगी क्योंकि स्मृति हमें प्रकृति की देन है। फिर हम संत भी नहीं जो इन सबसे ऊपर हो जाएं। हम तो सामान्य गृहस्थ ठहरे, तो स्मृति में भले ही वह कटु बात रहे, लेकिन उसकी गांठ ना बांधे क्योंकि ऐसा करने पर वह ग्रंथि का रूप लेकर एक ओर हमें व्यक्तिगत रूप से सदा दुखी बनाए रखती है तो दूसरी ओर संबंधित से हमारे रिश्ते भी प्रभावित होते हैं। यदि आप यहां क्षमा का उपयोग कर अपना स्नेह उसके साथ बनाए रखेंगे, तो संभवतः उसके मन का मैल भी एक दिन धुल जाएगा। तब आपके और उसके बीच भगवत्-तत्व ही तो घटेगा। 
 
यहां तर्क उठ सकता है कि कुछ लोग प्रकृति से ही परम दुष्ट होते हैं, जिन्हें कभी किसी का स्नेह, सद्व्यवहार, शिक्षा, उपदेश आदि कुछ भी समझ ही नहीं आता और वे निरंतर अपना दुराचरण जारी रखते हैं। उनके साथ कैसे रहें?
 
तो इसका उत्तर यह है कि ऐसे लोगों के प्रति कटुता या घृणा का भाव त्यागकर उनसे विमुख हो जाएं क्योंकि नकारात्मक भाव आपके मन को संतप्त करेंगे। इसलिए आप सहज सद्भावना के साथ अपनी आत्मा में सुखी रहें। जिस प्रकार ईश्वर दुष्टों से विमुख हो जाते हैं, वैसे ही आप भी यथासंभव उनसे दूर हो जाएं। 
 
इसी क्रम में बात करें एक और अहम काम की। 
अपने संपर्क में आने वाले हर छोटे-बड़े की जैसी और जितनी मदद बन सके, अवश्य कीजिए। याद रखिए, मदद का स्वरूप बड़ा और व्ययसाध्य ही हो, यह आवश्यक नहीं। हम लघु प्रयासों और अल्प साधनों के द्वारा भी इसे संभव बना सकते हैं। संकट अथवा आवश्यकता के समय की गई सहायता ईश्वरीय मदद मानी जाती है और वहां आप किसी के लिए भगवान का रूप सिद्ध होते हैं। 
 
इसके अतिरिक्त यदि कहीं विवाद संप्रदाय या धर्म को लेकर है, तो बजाय तेरा मेरा करने के 'हमारा' की भावना बलवती करें, क्योंकि ईश्वर एक ही है। यदि वो पृथक-पृथक संप्रदायों में विभक्त होता, तो मनुष्यों की संरचना भी अलग-अलग होती। जबकि वास्तविकता यह है कि ईश्वर ने हम सभी को एक जैसा शरीर, मन-मस्तिष्क दिया है। आवश्यकता बस अपनी बुद्धि और विवेक को जागृत करने की है। यदि हम परस्पर एक दूसरे के धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं का आदर करेंगे तो ईश्वरत्व का दिव्य आनंद प्रसारित होने में कितनी देर लगेगी? 
 
अब बात करें अपरिग्रह की। हम उतना ही संग्रह करें, जितनी आवश्यकता है क्योंकि अधिक का लालच हमें कुमार्ग पर ले जाता है। अधिकाधिक संग्रह की वृत्ति दूसरों का हक मारने में नहीं हिचकिचाती। हमारी वजह से अन्य लोग दुखी हों और हमें कोसें, यह कदापि ठीक नहीं। 
 
वेदों में कहा गया है - 'हम सैकड़ों हाथों से संग्रह करें और सहस्रों से बांट दें।' बस यही भाव रखकर अपना जीवन यापन करें तो पाएंगे कि कैसा स्वर्ग हमारे चारों ओर खिल उठा है। क्योंकि तब देने का सुख हमारी आत्मा को हरिया देता है और पाने का सुख दूसरों को मिलने पर वे हमारे प्रति श्रद्धा भाव से भर उठते हैं। ऐसे में 'परम-तत्व' मानव समाज में ही साकार हो उठता है।
 
ऐसे सैकड़ों और उदाहरण दिए जा सकते हैं जहां हम एक दूसरे के लिए भगवान बन सकते हैं। वैसे भी भगवान कोई चार, पांच या अष्ट भुजाधारी दैवीय स्वरूप लेकर हमारी मदद करने नहीं आते। ये हम ही हैं, जो उनके मूल भाव को अपने सुंदर मन, सद्व्यवहार और सत्प्रयासों के द्वारा संभव बनाते हैं या बना सकते हैं।
 
तो आइए, आज से 'स्व' के संकुचित दायरों से बाहर निकलकर इस विराट विश्व को भगवान मान लें और स्वयं को भी उसी का एक अंश मानकर कार्य करें। अपने ह्रदय के द्वार सभी के लिए पक्षपात रहित हो खोल दें, सभी को 'अपना' मान लें, स्नेह-भाव से आपूरित हों और हर मलिनता से दूर हों। 
 
सच मानिए, यदि ऐसा हो जाए तो परमात्मा को किसी पूजा स्थल में जाकर या विभिन्न कर्मकांडों और बाह्यडम्बरों के जरिए खोजने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। क्योंकि वह इसी पृथ्वी पर प्रकट हो जाएगा। वस्तुतः आत्मा का यह परिष्कार ही परमात्मा की उपलब्धि का माध्यम बनेगा और तब हर ओर सही अर्थों में स्थापित होगा- राम राज्य।