स्व. जगजीत सिंह को दुनिया एक बड़े ग़ज़ल गायक के रूप में जानती है। मैं भी उनकी बेमिसाल गायिकी का कायल हूं मगर ज़ाति तौर पर मैं उनकी एक और ख़ूबी का प्रशंसक हूं। वे परेशान हाल लोगों के लिए अदृश्य हाथों वाले भगवान की तरह थे। वे ज़रूरत मंद लोगों की उनके बताये बिना ही आर्थिक मदद किया करते थे। हर महीने वे दर्जनों लोगों के नाम से बंद लिफाफों में हज़ारों,लाखों रुपए उनके घरों तक बड़े गोपनीय तरीके से पहुंचा दिया करते थे। आज ऐसे इंसान दुनिया में कहां मिलते हैं। वक्त पर तो अपने भी साथ नहीं देते। इन मायनों में जगजीत सिंह इंसान होकर भी किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे।
यह बात बायोपिक फिल्म मेकर और वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल ने कही। वे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में स्व.जगजीत सिंह पर लिखी अपनी पुस्तक -कहां तुम चले गए - दास्ताने जगजीत सिंह के विमोचन कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे।
दस साल बाद जगजीत सिंह की यादें ताज़ा : राजधानी दिल्ली में दस साल बाद जगजीत सिंह को लेकर यह विशिष्ट कार्यक्रम आयोजित हुआ। कार्यक्रम में जगजीत सिंह के छोटे भाई करतार सिंह ने उनकी गायी चुनिंदा ग़ज़लें सुनाईं और चहेते सिंगर की यादों को फिर से ताज़ा कर दिया। कार्यक्रम में गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत, सिक्किम के पूर्व राज्यपाल और लेखक वाल्मिकी प्रसाद सिंह, आकाशवाणी के पूर्व उप-महानिदेशक और कवि डॉ. लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, ओएनजीसी के वरिष्ठ अधिकारी हरीश हवाल मंच पर प्रमुख रूप से मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन डॉ. हरीश भल्ला ने किया। बता दें कि राजेश बादल की यह पुस्तक मंज़ुल प्रकाशन हाउस ने पब्लिश की है। विमोचन से पहले ही उनकी क़िताब की कई प्रतियां कार्यक्रम में आये लोगों ने ख़रीद ली।
अनूठा था जगजीत सिंह की मदद का तरीका : राजेश बादल ने कार्यक्रम में कहा - जगजीत सिंह लोगों की मदद के लिए बड़ा ही अनूठा तरीका अपनाते थे। वे हर हफ्ते-दस दिन में, रूपयों से भरे कई लिफाफे तैयार किया करते थे। किसी में दस हज़ार रूपए होते, किसी में पचास हज़ार। किसी में एक लाख तो किसी में ढाई लाख। इन लिफाफों के साथ दर्जनों लोगों के नाम-पतों की एक सूची होती। वे रूपयों वाले उन लिफाफों के साथ वह सूची भी बनाकर एक बैग में रख देते। यह करने के बाद वे, मुंबई के वाशी में एक रेस्टारेंट चलाने वाले अपने करीबी मित्र जसबीर सिंह को फोन करते। कहते, जसबीर गड्डी लेकर आ जा। जसबीर समझ जाते कि उन्हें जगजीत सिंह के दिए लिफाफे लेकर, ज़रूरत मंदों के घरों तक पहुंचाना है। वे ऐसे लोग होते जिन्हें पैसों की सख़्त ज़रूरत होती। ऐसे लोग जो तंगहाली के दौर से गुज़र रहे हैं। ...किसी के घर में चूल्हा नहीं जल रहा। कोई बेरोज़गार है। किसी के मकान की किस्त रूक गई है। किसी के पास किराए के पैसे नहीं। कोई बीमार है, उसे इलाज की ज़रूरत है। जसबीर ऐसे लोगों के घरों में जाते और उनके नाम का बंद लिफाफा सौंप देते। बिना यह बताए कि उन्हें लिफाफा किसकी तरफ़ से भेजा गया है।
बिन मांगे ही ज़रूरतमंदों तक पहुंच जाती मदद: श्री बादल ने बताया, अनोखी बात ये थी कि जिन लोगों तक जगजीत सिंह की आर्थिक मदद पहुंचती, उन्होंने जगजीत साहब से कभी कोई मदद ना मांगी होती। मगर जगजीत सिंह को यह पता होता कि किसे, कब, कितने रूपयों की ज़रूरत है। श्री बादल ने कहा, सोचिये,आज दस हज़ार रूपए मांगने पर, हमारे घर-परिवार और करीब के लोग कितने बहाने बना देते हैं। मगर जगजीत सिंह, बड़ी ख़ामोशी से महीने में कम से कम दो या तीन बार पचासों खुफिया लिफाफे तैयार किया करते थे। बादल जी ने रहम दिल जगजीत सिंह के बारे में एक क़िस्सा और सुनाया। कहा, एक बार उनके पास एक शख्स पहुंचा। उसने कहा कि वह उनका शो आयोजित करना चाहता है। जगजीत सिंह पूछा कि वह कहां और किसलिए शो करना चाहते हैं। तब उस इंसान ने बताया, उनकी बेटी की शादी है। वे शो के टिकट बेचकर आयोजन करेंगे और बेटी की शादी के कुछ पैसा भी जुटा लेंगे। उसने यह भी बताया कि वो गुजरात के किस इलाके में शो करना चाहता है। जगजीत सिंह उसके बताए इलाके का नाम सुनते ही ताड़ गए कि टिकट नहीं बिक सकेंगे। वे अंदर गए, एक मिठाई का डिब्बा लेकर वापस आए और उस व्यक्ति को देकर बोले, ये मिठाई है। आप घर लेकर जाओ और बेटी की शादी की तैयारी करो। घर पहुंचने पर उस शख़्स ने देखा, मिठाई के डिब्बे में मिठाई कम, नोट ज़्यादा थे, वे भी लाखों में!
निधन पर नहीं जले सैकड़ों घरों में चूल्हे : श्री बादल ने कहा, जगजीत सिंह के निधन के बाद उनके जन्म स्थान श्री गंगानगर में हज़ारों घरों में चूल्हे तक नहीं जले। सौ से ज्यादा शोक सभाएं आयोजित हुईं। ट्रैक्टर में भर-भरकर लोग श्रद्धाजंलि सभाओं में आए। हर सभा में 1 लाख से कम आदमी नहीं जुटे। बिन बुलाए शंकराचार्य तक पहुंचे। ये बात ना सिर्फ उनकी लोकप्रियता बल्कि उनके एक अच्छे इंसान होने को बयान करती है। जहां तक उनकी गायिकी की बात है, उन्होंने वहां से अपना सफ़र शुरू किया, जहां पर बेगम अख़्तर का सफ़र ख़त्म हुआ था। तब ग़ज़ल का आसमान सूना था, ग़ज़लें महफिलों तक सीमित थीं। मगर जगजीत सिंह ने अपने फ़न से ग़ज़लों को घर-घर तक पहुंचा दिया। उन्होंने आज के हालात और मुद्दों पर बेशक़ीमती ग़ज़लें गाकर पुराने ग़ज़ल गायकों से आगे बढ़कर अपना फ़ासला तय किया। माशूका से मुहब्बत की बातें गुज़रे दौर की बात हो गई। उनकी ग़ज़लों में आम आदमी के मुद्दे छाने लगे। उनकी चुनी गई रचनाओं में गांधी वाले राम भी नज़र आए और भारतीय तहज़ीब, अध्यात्मिकता और चिंतन के दर्शन भी हुए। मिसाल के लिए कुछ ग़ज़लें याद कीजिए।
आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यों है / अब मैं राशन की क़तारों में नज़र आता हूं / वो रुलाकर हंस न पाया देर तक / मैं न हिंदू न मुसलमान मुझे जीने दो..।
ग़ज़लों की ज़रख़ेज़ ज़मीन थे जगजीत : कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि कुमार प्रशांत ने कहा, जगजीत वो ज़रख़ेज़ ज़मीन थे जिन पर शायरों की लिखी ग़ज़लों के बीज गिरे और लहलहाती हुई फ़सलें पैदा हुईं। शब्द और भाव को पकड़ने में उन्हें महारत हासिल थी। जगजीत ने शब्दों और उनमें गूंथे हुए भावों को इतनी कोमलता से छुआ कि ग़ज़लें खिलखिलाने लगी। बेशक उन्होंने दूसरे शायरों की रचनाओं को चुनकर, उन्हें अपने रागों की पालकी में बिठाकर, हम तक पहुंचाया। परंतु उन्होंने अपनी लाजवाब गायन कला के ज़रिये इस काम को इतनी ख़ूबी से किया कि हम सुनने वाले पहले से और बेहतर हुए। किसी भी कला का यह काम भी यही होता है। बड़ी बात ये है कि जगजीत सस्ते नहीं थे। उन्होंने स्तरीय काम किया। आज हम ग़ज़लों की दुनिया को बड़ी आसानी से दो हिस्सों में बांट सकते हैं। पहला, जगजीत सिंह के आने से पहले और दूसरा जगजीत के आने के बाद।
गांधी के राम में ग़ज़लों की ध्वनि : श्री प्रशांत ने कहा, एक बार मुंबई में मेरा गांधी के राम शीर्षक से व्याख्यान हुआ था। व्याख्यान देकर जब मैं मंच से नीचे उतरा, तब जगजीत सिंह से मुलाक़ात हुई। वे कहने लगे, भैया आपकी कही बातों से बहुत सी ग़ज़लें निकलती हैं। यह उनका नज़रिया और समझ थी। उस वक्त हमारा थोड़ा परिचय हुआ। बाद में मिलने, बैठने का मौका भी मिला। एक बार वे कहने लगे, आपकी ग़ज़लें भी बताइए मुझको। मैंने कहा, मैं वैसा लिखता नहीं। कहने लगे, वो मैं बताऊंगा कि जो आप लिखते हैं, वह ग़ज़ल है या नहीं। वो दिन कभी आया नहीं। आज जब दस साल बाद हम ये प्रोग्राम कर रहे हैं। लगता नहीं कि वे हमसे दूर चले गए हैं। उन्होंने निदा फ़ाज़ली की ग़ज़ल जब किसी से कोई गिला रखना गाई थी। उसका एक शेर मुझे आजकल बहुत महसूस होता है - घर की तामीर चाहे जैसी हो / इसमें रोने की जगह रखना। ... हम सबके घरों में, हमारे समाज में और हमारे देश में आज उन जगहों की बहुत कमी हो गई है, जहां इंसान को बैठकर अपने बारे में रोने का कुछ समय मिले। जगजीत रोने का वह समय देते हैं। इसीलिए जगजीत कभी जाते नहीं। वो हमारे साथ ही रहते हैं।
नवाचार ने जगजीत को जगजीत बनाया : कवि डॉ. लक्ष्मी शंकर वाजपेयी ने कहा, ग़ज़ल गायिकी में नवाचार की वजह से जगजीत सिंह को शुरू में आलाचनाओं का शिकार ज़रूर होना पड़ा। मगर उनके नए काम ने ही उनकी अलग धारा और पहचान बनाई। देखते-देखते वे मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र-छात्राओं के चहेते सिंगर बन गए। उन्होंने बड़ी हिम्मत से अपनी ग़ज़ल गायिकी में इनोवेशन को बढ़ाया। सारंगी,तबला,ढोलक की जगह गिटार,वायलिन,की बोर्ड को जगह दी। हमारे समय की संवेदनाओं और भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली रचनाओं को चुना। वे सिर्फ सिंगर नहीं बल्कि एक इंस्टीट्यूशन थे।
मैंने आकाशवाणी में 35 साल की सेवाओं के दौरान गायकों को जगजीत साहब की तर्ज पर कुछ नया करने का आग्रह किया। ऐसा कहने का मतलब ये नहीं है कि पुराना ना गाया जाए। ख़ुद जगजीत सिंह ने टप्पा जैसी बहुत सी मिट्टी की चीज़ें गाई हैं। राम पर गाया उनका भजन सबसे ज़्यादा रायल्टी देने वाला हिट नंबर है। परंतु उन्होंने समय की चुनौती को पहचान कर काम किया। ग़ज़ल को नई जनरेशन में मकबूल बना दिया।
राजेश बादल आधुनिक पत्रकारिता का फरिश्ता: डॉ. वाजपेयी ने कहा, जगजीत सिंह पर राजेश बादल की क़िताब, एक बड़ा दस्तावेज़ है। यह बहुत ही सराहनीय काम है। बादल जी ने अपने सम्बोधन में जगजीत सिंह को फरिश्ता कहा, मगर मैं उन्हें आधुनिक पत्रकारिता का फरिश्ता कहता हूं। उन्होंने पत्रकारिता और किताबों के साथ ही,संगीत, साहित्य और सिनेमा के कलाकारों पर बायोपिक फिल्में बनाकर देश को एक बड़ा ख़ज़ाना सौंपा है। उसका आकलन कब होगा, पता नहीं। मगर उन्होंने वह भी एक बहुत अद्भुत कार्य किया है।
जज़्बातों को दिलों में उतार देने वाला फ़नकार : ओएनजीसी के वरिष्ठ अधिकारी हरीश हवाल ने कहा, सुनने वाले के दिलो-दिमाग़ में ग़ज़ल के जज़्बातों को किस अंदाज़ में पहुंचाना है, जगजीत सिंह ने अपनी गायिकी में सबसे पहले यह सुनिश्चित किया। यह ठीक वैसा ही है, जैसे खयाल गायिकी में भाव को प्रधानता दी जाती है जबकि ठुमरी,दादरा में शब्द को। वे ऐसे फ़नकार रहे जिन्होंने ग़ालिब जैसे शायर को भी आम लोगों के दिलों में गहरे तक उतार दिया। उन्होंने कहा, मैं जगजीत सिंह का उनके पहले अलबम अनफॉरगेटेबल से फ़ैन रहा हूं। इसी तरह से मैं निष्पक्ष पत्रकारिता के प्रतिमान, राजेश बादल की लेखनी का भी प्रशंसक हूं। बादल साहब ने जिस सहजता से सरल शब्दों में जगजीत साहब के सफ़र को पिरोया है, वह बेहद दिलचस्प है। सरल भाषा में लिखना सबसे मुश्किल होता है। जब आप जगजीत पर लिखी उनकी पुस्तक को पढ़ेंगे तब आप उसकी लय में बहते चले जायेंगे।
छोटे भाई के सुरों में जगजीत सिंह की आवाज़ : कार्यक्रम में जगजीत सिंह के छोटे भाई करतार सिंह जब मंच पर साजिंदों के साथ जगजीत की ग़ज़लों को आवाज़ दी, एक बारगी वहम हुआ कि क्या हम जगजीत सिंह को ही सुन रहे हैं !... करतार सिंह ने ग़ज़लों का सुरीला सफ़र एक फास्ट ट्रैक मेमोरी लेन की तरह तय किया। उन्होंने बड़े भाई के शुरूआती दौर से लेकर उनके शिखर तक पहुंचने के सफ़र को, दिल की गहराइयों से याद किया। उन्हें जगजीत सिंह के दिल्ली में उनके घर पर आने, आकर भरमा करेले और मूंग की दाल खाने की फरमाइश जैसी तमाम यादें आईं। उन्होंने भैया की तरह ही हारमोनियम बजाना बीच में रोककर कुछ मूड हल्का करने वाला अंदाज़ भी याद दिलाया। उन्होंने जगजीत साहब के इन सुपरहिट गीतों और ग़ज़लों की झलक पेश की।
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी / दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है / ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो / होंठो से छू लो तुम / तुमको देखा तो ये ख़याल आया / तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो / परेशां रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ / होश वालों को ख़बर क्या, बेख़ुदी क्या चीज़ है / चिट्ठी न कोई संदेश,कहां तुम चले गए / सुनते हैं कि मिल जाती है हर चीज़ दुआ से।
वीणा की झंकार का, झरना था जगजीत : वीणा की झंकार का झरना था जगजीत / सात सुरों का बहता दरिया था जगजीत / रफ़्ता-रफ़्ता जिसमें सारी दुनिया डूब गई / मोसेक़ी की इक ऐसी धारा था जगजीत….कार्यक्रम के संचालन के दौरान डॉ. हरीश भल्ला ने अपने ख़ास अंदाज़ में जहां जगजीत सिंह पर यह कविता सुनाई। वहीं उन्होंने राजेश बादल की तारीफ़ में कहा - क़लम के कमाल का, जिसका है अनमोल हुनर / पन्ने पर या परदे पर, क़िस्सा कहती उसकी नज़र / रचता है अद्भुत अफ़साने, उड़ता फिरता ये बादल / चुपके से दिल में आ बैठा हैं, ये आंख का काजल। मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल से प्रकाशित राजेश बादल की लिखी 242 पेज की यह शोधपूर्ण पुस्तक, उनके दस साल के निरंतर किए अथक प्रयासों का नतीजा है। पुस्तक में जगजीत के बचपन से लेकर उन्हें स्थापित होने तक जानने वालों के विरल साक्षात्कार,चित्र आदि संग्रहित हैं। कई दिलचस्प क़िस्से हैं। पुस्तक से यह भी पता चलता है कि जगजीत सिंह का सफ़र एक आम आदमी की तरह ही कठिनाइयों और अभावों से भरा था। मगर उन्होंने अपने संघर्ष भरे सफ़र, मख़मली आवाज़ और शिद्दत से सीखे संगीत से वो कर दिखाया जिसकी गूंज अब पीढ़ियों तक सुनाई देती रहेगी।
Edited: By Navin Rangiyal/ PR