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भारतीय लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही असमंजस में हैं!

भारतीय लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही असमंजस में हैं! - In Indian democracy, both the ruling party and the opposition are in confusion
Indian democracy: लोकतंत्र एक पक्षीय या एक दलीय नहीं हो सकता है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की सामान्य न्यूनतम निरंतर उपस्थिति से ही सामान्य रूप से लोकतंत्र सहजता से चल सकता है। भारतीय लोकतंत्र बहुदलीय होकर अपने जन्म के पचहत्तर वर्ष पूरे कर चुका है। इतना समय बीत जाने पर भी भारतीय लोकतंत्र में सहज सत्ता पक्ष और सहज विपक्ष का उदय या विकास न हो पाना एक ऐसा सवाल है जिसकी केवल व्यापक चर्चा ही नहीं वरन सहज लोकतंत्र की दिशा में कदम बढ़ाना भी जरूरी है। साथ ही साथ वास्तविक लोकतंत्रात्मक राजनैतिक व्यवहार भारतीय समाज में खड़ा करने की दृष्टि से नीचे से लेकर ऊपर तक खुला संवाद भी करते रहना बेहद जरूरी है।
 
लोकतंत्र आपसी संवाद, सद्भाव और समझ के बिना जीवंत लोकतंत्र नहीं बन सकता। वैसे भारतीय लोकतंत्र लोक संख्या के हिसाब से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। देश की आजादी के बाद से बनने वाली सभी सरकारें वयस्क मताधिकार के आधार पर ही चुनी गई है। यह बात बहुदलीय भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का एक अनोखा उदाहरण हैं। पर देश की विधि, विधान, संविधान में राजनैतिक दल बनाने की जो प्रक्रिया निर्धारित है उसके अनुसार ही भारत में मौजूद सैकड़ों राजनैतिक दल पंजीकृत तो हो गए पर राजनैतिक दल देशव्यापी सोच, समझ और विस्तार वाले आज तक नहीं बन पाए, कहां और क्या कमी रह गई? यह खुली बातचीत से हम समझ सकते हैं।
 
भारतीय लोकतंत्र में विकसित हुए सभी राजनैतिक दल कानून और कागज़ पर तो लोकतांत्रिक तरीके से पंजीकृत हैं पर मन वचन और कर्म से लोकतंत्र की आत्मा से एकाकार हो अपने दैनंदिन कार्य कलापों को करते हुए नहीं महसूस होते है। भारतीय राजनीति का बाहरी ढांचा भले ही लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला दिखाई देता हो पर अंदरूनी व्यवहार में स्थित एकदम उलट है।
 
भारत के नागरिकों में आपस में जो सोच-समझ और एक दूसरे के प्रति व्यवहार का तौर तरीका है उसका भारतीय लोकतंत्र की राजनीति और विशेषकर चुनावी राजनीति पर गहरा असर दिखाई देता है। भारतीय राजनीति और भारतीय समाज या भारतीय जनता और भारतीय नेतृत्वकर्ता 75 सालों के बाद भी लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्कारों को प्राणप्रण से अपना ही नहीं पाए हैं। पर इस सब के बाद भी भारत के राजनैतिक दल और मतदाता दोनों ही को चुनाव का असाधारण चस्का लग गया है। यही बात भारतीय लोकतंत्र की विशेषता और कमजोरी दोनों बन गई है, जिसे बदले बिना हम भारतीय लोगों के लोकतांत्रिक सपनों को यथार्थ यानी स्वराज में नहीं बदल सकते। 
 
यह बात भारतीय लोकतंत्र या आज के भारत की एक तरह से जीती-जागती सच्चाई है। इसके साथ ही यह भी खुली सच्चाई है कि आज तक का भारतीय लोकतंत्र का सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी अपनी सुविधा के लोकतंत्र में, बुनियादी या सचेत लोकतंत्र की अपेक्षा ज्यादा भरोसा करता दिखाई देता है। आजादी के बाद से भारत में कई राजनैतिक दल अकेले या समूह में गठबंधन बनाकर सत्ता पक्ष और विपक्ष की भूमिका में काम करने का अवसर पाते रहे हैं पर सभी राजनीतिक दलों ने अपनी सत्ता पक्ष और विपक्ष की भूमिका के साथ वैसा न्याय नहीं किया जैसा भारत जैसे प्राचीन वैचारिक पृष्ठभूमि वाले देश में होना चाहिए।
 
इसी कारण भारत में लोकतंत्र की लंबी परम्परा के बाद भी लोकतांत्रिक मूल्यों का उदय उस तरह नहीं हो पाया जिसकी कल्पना हमारे स्वाधीनता आंदोलन के लिए अपना सबकुछ लुटा देने वालों स्वतंत्रता संग्रामके योद्धाओं के मनों में स्वराज के रूप में समायी हुईं थी और जो स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश की जनता के मन का सबसे बड़ा सपना थी। स्वतंत्रता और स्वराज की संकल्पना में आज भी अधूरापन महसूस होता है।
 
लोकतंत्र लोगों का लोगों पर लोगों का शासन की पद्धति है। लोकतंत्र में सभी विचारों और सभी समूहों को अवसर दिए बिना हम भारतीय लोकतंत्र को सहजता से नहीं चला सकते। भारत में आज हम सबको मिलकर ही लोकतांत्रिक तरीके से देश और व्यवस्था को चलाने में सबको अवसर और मौका दिये बिना इतनी बड़ी संख्या वाली आबादी को राजनैतिक प्रक्रियाओं में शामिल ही नहीं कर सकते हैं। एक विचार या व्यक्ति या दल ही राजनैतिक कार्यक्रमों को संचालित करता रहे और बाकी लोग चाहे वे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष या निर्दलीय आपस में खुल कर शायद ही कभी बातचीत भी करते हो, यह किसी भी तरह सहज लोकतंत्र की मूल तासीर नहीं है।
 
अमेरिकी लोकतंत्र की तरह सर्वोच्च राजनैतिक पदों पर केवल दो कार्यकाल के प्रावधान को विस्तारित करते हुए भारतीय लोकतंत्र में इतनी बड़ी जनसंख्या या विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश होने से एक निर्णायक भूमिका पर खुली चर्चा कर या विचार विमर्श कर यह निर्णय लेना चाहिए कि किसी भी नागरिक को किसी भी संवैधानिक निर्वाचित पद पर लगातार दो बार से अधिक निर्वाचित होने का अवसर नहीं प्रदान किया जाना  चाहिए। यानी दो बार विधायक और दो बार लोकसभा, दो बार राज्यसभा। इस तरह अधिकतम कुल 32 सालों तक कोई भी नागरिक निर्वाचित जनप्रतिनिधि के रूप में कार्यरत रह कर अपने विधायक या संसदीय जीवन का सबसे जीवंत और ऊर्जावान योगदान देश और समाज को देकर विधायी और संसदीय कार्य कलापों को समयबद्ध तरीके से सम्पन्न करने की चुनौती जनप्रतिनिधि और नागरिकों के मन में पैदा की जा सकती है।
 
यही सिद्धांत सभी राजनैतिक दलों की दैनंदिन कार्यप्रणाली में भी लागू होना चाहिए कि एक ही व्यक्ति दल के लिए हाईकमान के नाम पर आजीवन बने रहकर काम नहीं कर सके, लगातार दो समयावधि के बाद व्यक्ति या पद परिवर्तन होना चाहिए। यदि भारतीय लोकतंत्र को हम लोकव्यापी और व्यापक समझ और विस्तार वाले लोकतंत्र के रूप में विकसित करना चाहते हैं तो हमें व्यक्ति केन्द्रित राजनैतिक कार्यप्रणाली के बजाय कार्यकर्ताओं और आम जनता की व्यापक सहभागिता, सुनिश्चित करना होगी।
 
लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को अपनी अपनी कार्यप्रणाली को और अधिक लोकतांत्रिक और लोकसमर्थक राजनैतिक कार्यप्रणाली के तरीके खड़े करने या खोजने की दिशा में आगे कदम बढ़ाने होंगे तभी हम केवल अपने अपने सपनों नहीं सबके सपनों को साकार करना लोकतंत्र का मूल स्वभाव बनाकर भारतीय लोकतंत्र को लोकतांत्रिक तरीके से मजबूत आधार और दिशा निर्देश देकर सामान्य मनःस्थिति वाले सत्ता-पक्ष और विपक्षी दल वाले अपने-अपने सतारूढ़ और विपक्षी दलों की भूमिका में आए असमंजस को त्याग कर सामान्य मनःस्थिति के सहज लोकतंत्र की दिशा में कदम रख सकते हैं। (यह लेखक के अपने विचार हैं, वेबदुनिया का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है। 
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