आज समूचा विश्व 'कोरोना' नामक महामारी से भयाक्रांत है। लगभग 5 माह पूर्व इस खतरनाक वायरस ने चीन के वुहान शहर में अपनी आमद दी और फिर विश्व के अधिकांश देशों को इसने अपनी चपेट में ले लिया। भारत भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहा।
इस घातक विषाणु का अभी तक कोई कारगर इलाज नहीं खोजा जा सका है सिवाय इससे बचने के। कोरोना वायरस से बचाव के लिए चीन सहित अधिकांश देशों ने 'लाकडाउन' विकल्प को अपनाकर इसके दुष्प्रभाव में कमी करने में सफलता प्राप्त की है।
मौजूदा हालात ये हैं कि गत कुछ दिनों से विश्व के अनेक देश किसी पक्षाघात के रोगी की तरह जड़वत अपनी गतिविधियों को बंद किए जस-के-तस रुके हुए हैं। लोग अपने-अपने घरों में बंद हैं, कल-कारखानों पर ताला है, परिवहन के साधनों के पहिए थमे हुए हैं, मजदूर बेरोजगार बैठे हैं। ऐसा लग रहा है, जैसे समूचा विश्व रुक-सा गया है।
अब इस परिस्थिति को क्या कहें, प्राकृतिक आपदा, महामारी का प्रकोप या परमात्मा का विराट रूप! मेरे देखे वर्तमान संकट को यदि परमात्मा का विराट रूप कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
दरअसल, यह एक जंग है भौतिकवाद और अध्यात्म के मध्य। जब भी मनुष्य ने स्वयंभू सर्वशक्तिमान बनने का दु:साहस किया है, तब-तब प्रकृति ने उसे इसी प्रकार अपना विराट रूप दिखाकर सावधान किया है। प्राकृतिक आपदाएं यूं ही नहीं आतीं, हर आपदा हमारे लिए एक संकेत होती है। हम अपने भौतिकतावादी दृष्टिकोण में इतने उलझे हुए होते हैं कि हमें इस बात का पता ही नहीं चलता कि कब हमने प्रकृति का दोहन करने के स्थान पर शोषण करना आरंभ कर दिया।
पर्यावरण... प्रकृति परमात्मा का ही रूप है। हमने अपने तथाकथित विकास के लिए परमात्मा के इस प्रकट रूप का बुरी तरह अनादर किया है। विचार कीजिए, दूसरे पर आधिपत्य जमाने के चलते हम शस्त्रों की कैसी बाढ़ ले आए हैं विश्व में। परमाणु बम तक हमने बना डाले, आखिर क्यों? केवल दूसरों पर अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए ही न!
आज विश्व में जितने परमाणु बम हैं, वे पूरी वसुधा को विनष्ट करने के लिए शायद पर्याप्त होंगे। ईश्वर ने हमें जीवित रखने के लिए शुद्ध जल, शुद्ध वायु, क्षुधा तृप्ति के लिए सुस्वादु और पौष्टिक आहार की व्यवस्था प्राकृतिक रूप से की थी किंतु हमने भौतिकतावाद की अंधी दौड़ में इसे बुरी तरह प्रदूषित कर दिया।
आज का मनुष्य अध्यात्म से कोसों दूर है। अध्यात्म से दूर होने का आशय है- आत्मानुशासन से दूर होना। आज जो महामारी हमारे सम्मुख सुरसा-सा मुख खोले खड़ी है, वह भी केवल कुछ मनुष्यों द्वारा नियत अनुशासन के उल्लंघन का परिणाम मात्र है। मनुष्य जब प्रकृति-प्रदत्त स्वतंत्रता से परे उच्छृंखलता व स्वच्छंदता का आचरण करने लगता है, तब इस प्रकार की चेतावनी हमें प्रकृति के ही द्वारा मिलती है।
मनुष्य कभी भी सर्वशक्तिमान व पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता। वह सदैव अपने जीवन-यापन के लिए प्रकृति के बनाए अनुशासन को मानने के लिए बाध्य है। जब भी वह इस अनुशासन का उल्लंघन करता है, उसे इस प्रकार के परिणाम भोगने ही पड़ते हैं। इसे आप परमात्मा की ओर से दिया गया दंड कह लें या फिर प्राकृतिक आपदा, वास्तव में यह हमारे अनुशासनहीन व स्वच्छंद जीवनशैली का परिणाम है।
आज 'कोरोना' नामक इस महामारी ने हमें अवसर दिया है कि हम अपने अंतस में झांकें और इस अकाट्य सत्य का साक्षात्कार करें कि हमें जो कुछ भी अपने जीवन-यापन के लिए प्राप्त हुआ है, चाहे वे हमारी सांसें ही क्यों न हों, परमात्मा की ओर से दिया गया प्रसाद है। हम उसके अधिकारी नहीं हैं, वह केवल हमें ईश्वर की कृपा से मिला है अत: हम उसका आदर करें। हमें अपनी भौतिकतावादी जीवनशैली को परिवर्तित करना होगा, क्योंकि भौतिकतावादी जगत का सत्य इन कुछ दिनों में हम सभी के सामने आ चुका है।
आज बड़ी-बड़ी महाशक्तियां इस अदने-से विषाणु के आगे घुटने टेकने पर विवश हो चुकी हैं। वर्तमान समय की आवश्यकता प्रकृति के साथ लयबद्ध होने की है, न कि अपने तथाकथित विकास के लिए उसका शोषण करने की। हमें अपने विकास के मानदंड बदलने होंगे। हम विकास के नाम पर प्रकृति के विनाश के सहभागी नहीं बन सकते।
हमें अपने लोभ, लालच व वर्चस्व की लड़ाई को स्थगित करना होगा। हम सर्वशक्तिमान हैं इसलिए स्वच्छंद आचरण करेंगे, ऐसी आत्मवंचनाओं से हमें बचना होगा। आज हमें 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना के आधार पर अपना आचरण करना सीखना होगा।
सर्वशक्तिमान केवल ईश्वर है, जगत में जो भी गति हो रही है, वह उसी नियंता की इच्छा का परिणाम मात्र है। यदि उसकी मर्जी न हो तो समस्त अस्तित्व चाहकर भी गति नहीं कर सकता। कोरोना संकट इसका जीवंत उदाहरण है। समस्त अस्तित्व को उसी सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान के अनुशासन में चलना होता है।
जब भी इस अनुशासन की मर्यादा का अतिक्रमण होता है, इस प्रकार के संकट हमें सावधान करने आते रहते हैं। अब यह हम पर है कि हम इन संकेतों से कितना सीखते हैं। यह महामारी आज नहीं, तो कल विदा हो ही जाएगी लेकिन इस महामारी के चलते सीखा हुआ सबक यदि हम भूले तो हो सकता दोबारा मनुष्यता इस 'सबक' को सीखने के लिए बचे ही ना।
-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
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