यह बात पूर्व में भी कई विद्वान लोगों ने कही है। हो सकता है कि यह गलत हो या सही भी हो। लेकिन इस पर विचार जरूर किया जाना चाहिए। यह बात नहीं मानने वाले हमारे देश में लाखों लोग मिल जाएंगे, क्योंकि उन्होंने कुछ और पढ़ा या समझा होगा। यह जरूरी नहीं कि आप इस पर विचार ही करें। इसे इग्नोर भी कर सकते हैं। जैसा कि भारतीय लोगों को इग्नोर करने की आदत रही है।
दुनिया में यह बहुत कम सुनने को मिलता है कि इंसाफ, न्याय या सत्य की जीत हुई। आपने महाभारत पढ़ी नहीं तो देखी जरूर होगी? कौन सत्य था? कौरव या पांडव? निश्चित ही आप कहेंगे पांडव। सचमुच पांडवों के साथ अन्याय हुआ था। लेकिन अन्याय क्यों हुआ? क्या जरूरत थी जुआ खेलने की? चलो खेल भी लिया तो जो राजदरबार में न्यायकर्ता थे जैसे भीष्म, द्रोण, विदुर आदि उन्होंने न्याय क्यों नहीं किया?
यह सही है कि बाद में न्याय का फैसला दरबार या अदालत में नहीं हुआ तथा वह हुआ लड़ाई के मैदान में। इसका मतलब यह कि हर फैसला लड़ाई के मैदान में शक्ति से ही होता है? लड़ाई के मैदान में एक ओर सत्य था तो दूसरी ओर शक्ति थी। सत्य के समक्ष शक्ति हार गई, क्योंकि सत्य के साथ ईश्वर था या कहें कि भगवान श्रीकृष्ण थे। यह युद्ध भी अपनों के खिलाफ अपनों का ही युद्ध था। किसी बाहरी से लड़ाई नहीं थी। लेकिन यह भी सत्य है कि लड़ाई के हर मैदान में श्रीकृष्ण ही हो, ऐसा जरूरी नहीं। चलो मान लो महाभारत एक अपवाद है। लेकिन उसके बाद भारत ने जितनी भी लड़ाइयां लड़ीं, उस पर विचार किया जाना चाहिए। वहां कहां श्रीकृष्ण थे?
सच तो यह है कि सिकंदर और मोहम्मद बिन कासिम से लेकर आज तक भारत किसी बाहरी से नहीं हार रहा है। आप यह भूल जाइए कि लड़ाई के मैदान में क्या हुआ? लड़ाइयां होती हैं और वे इतिहास बन जाती हैं और इतिहास वही लिखता है, जो लड़ाई जीतता है। जो लड़ाई जीत जाता है वह खुद को न्यायप्रिय और न्याय की जीत की तरह घोषित कर इतिहास में अमर हो जाता है। यह कोई नहीं पूछता या जानने का प्रयास करता है कि जो हार गए क्या वे सही थे? या उन्हें क्यों, किसलिए और कैसे हराया गया?
एक बात यह तय है कि लड़ाई में वही जीतता है जिसके पास शक्ति होती है। आप ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं कि मुट्ठीभर लोगों ने पूरी सेना का सफाया कर दिया। इसका मतलब यह कि शक्ति की जरूरत नहीं? लेकिन आपने उन मुट्ठीभर लोगों के पीछे और आगे की पूरी कहानी शायद नहीं पढ़ी होगी? उनकी जीत के कारणों पर शोध नहीं किया होगा?
भारत में सिकंदर मुट्ठीभर लोगों को लेकर आया था लेकिन उसने भारतीय राजा आम्भी की मदद से झेलम को पार किया और पार करने के बाद इतिहास को बदलकर रख दिया। आखिर शक्ति जीत गई न्याय के सामने और न्याय या सत्य जीतकर भी हार गया प्रचार तंत्र के सामने।
ऐसा नहीं है कि भारत के पास शक्ति नहीं थी। भारत के पास धन, बल और ज्ञान तीनों की शक्ति थी लेकिन सदियों से भारत हारता रहा। क्यों? क्योंकि भारतीय राजा कभी आक्रमणकारी नहीं रहे, वे हमेशा सत्य, शांति और न्याय के पक्षधर रहे थे। अजीब था कि वे अपने शत्रुओं को छत्तीस बार क्षमा करने की क्षमता रखते थे। लेकिन यही राजा शक्ति के सामने हार गए। इसका मतलब यह कि शक्ति ही तय करती है कि कैसा होगा भविष्य? हालांकि भारत यह जानता था कि शक्ति से ही सबकुछ तय होता है, फिर क्यों भारत हारता रहा?
दरअसल, जिस तरह सिकंदर ने स्थानीय भारतीय मदद से आक्रमण कर भारत में तबाही मचाई, उसी तरह मुगल आक्रमणकारियों ने भी यही किया। अंग्रेज जब आए तो उनके पास सेना नहीं थी। उन्होंने भारतीय राजाओं की मदद से पहले दूसरे राजा के खिलाफ मोर्चा खोला और अपने लिए एक जगह बनाई फिर उन्होंने स्थानीय लोगों की मदद से भारत में अपने राज्य का विस्तार किया। उन्होंने भारतीयों के खिलाफ ही भारतीयों को खड़ा किया और इस तरह मुगलों के बाद 200 साल तक उन्होंने शक्तिशाली भारत पर राज किया।
मुगलों के बाद अंग्रेजों को भी यह मालूम था कि भारतीय लोग जाति, प्रांत और भाषा में बंटे हुए लोग हैं। हर राज्य से उन्होंने असंतुष्ट लोगों को इकट्ठा कर एक सेना बनाई और लगा दिया काम पर। उन्होंने हर राज्य के लिए एक अलग योजना पर काम किया और वे जीत गए। राजपूत लड़ा राजपूतों के खिलाफ, मराठा लड़ा महारों के खिलाफ, गुर्जर लड़ा जाटों के खिलाफ, दलित लड़ा ब्राह्मणों के खिलाफ। दरअसल, इस मुगल या अंग्रेजों की फौज में भारतीय लोग लड़े अपने ही भारतीयों के साथ। इस लड़ाई ने भारत को बना दिया एक बहुधर्मी देश।
आप देखें इतिहास उठाकर कि इंसाफ, न्याय या सत्य की हर जगह हार हुई सिर्फ इसीलिए कि उनका साथ उनके ही लोगों ने नहीं दिया या नहीं था उनके साथ कोई कृष्ण। शक्तिशाली होते हुए भी सत्य हारता गया। और सिर्फ सत्य ही नहीं हारा अपनों से हारा एक देश- आर्याना, एक देश गांधार, एक देश पुरुषपुर, एक देश सिन्धु, एक देश पांचाल और एक देश बंगाल। लड़ाई अभी भी जारी है। कहां? जरा सोचिए...