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Written By अनिरुद्ध जोशी

नरेंद्र मोदी और अमित शाह 'कृष्ण नीति' पर चले और जीत लिया राजनीतिक समर

नरेंद्र मोदी और अमित शाह 'कृष्ण नीति' पर चले और जीत लिया राजनीतिक समर - narendra modi and amit shah follow 'Krishna Neeti'
कहा जाता है कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की पहली मुलाकात 1982 में हुई थी। 1986 में शाह बीजेपी युवा मोर्चा में शामिल हुए। इसी दौर में नरेन्द्र मोदी को गुजरात बीजेपी में सचिव की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। वक्त का पहिया आगे बढ़ता रहा और दोनों की जोड़ी ने पहले गुजरात को फतह किया।
 
 
2001 में मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो शाह को मंत्री बनाया गया। फिर जब मोदी को बीजेपी का पीएम उम्मीदवार घोषित किया तो शाह भी बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में आ गए। तब दोनों ने कंधे से कंधा मिलाकर हिन्दुस्तान के कोने-कोने में कमल खिलाने की मुहिम चलाई और 2014 का चुनावी समर 282 सीटों से जीतकर पूर्ण बहुमत से वे सत्ता के सिंहासन पर बैठ गए।
 
 
फिर पीछे मुड़कर देखने का सवाल ही नहीं था। 2019 का चुनावी समर उन्होंने 303 सीटों से जीतकर अपना ही रिकॉर्ड तोड़ दिया। अब नरेन्द्र मोदी के साथ अमित शाह उनके गृहमंत्री हैं। चुनावी रणनीति और कूटनीति बनाने में माहिर अपने 37 साल के सफर में दोनों की जोड़ी ने मिलकर बहुत बड़े-बड़े समर जीत लिए हैं। लेकिन यह कैसे संभव हुआ?
 
हाल ही में दक्षिण भारत के सुपरस्टार रजनीकांत ने अनुच्छेद 370 पर फैसले के संबंध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की तुलना भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन से की थी। इससे पहले मध्यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह ने भी दोनों की तुलना कृष्ण और अर्जुन से की थी। तो क्या सचमुच ही मोदी और अमित शाह ने 'कृष्ण नीति' पर चलकर ही सभी मोर्चों पर विजय प्राप्त की है?
 
 
कहते हैं कि अटलबिहारी वाजपेयी की नीति राम की नीति थी। भगवान राम ने भी रावण से समझौते और शांति के लिए पहले हनुमानजी को लंका भेजा लेकिन रावण ने उनका उपहास उड़ाया और उनकी पूंछ में आग लगा दी। फिर उन्होंने अंगद को भेजा लेकिन अंगद को भी अपमान ही झेलना पड़ा। अटलबिहारी वाजपेयी के भी सभी समझौते नाकाम रहे थे।
 
वाजपेयी ने अपने काल में पाकिस्तान और अपने राजनीतिक विरोधियों से दोस्ती और समझौते का मार्ग अपनाकर शांति कायम करना चाही। इसके लिए उन्होंने 'समझौता एक्सप्रेस' जैसी ट्रेंने चलाईं। पहले नवाज शरीफ से मिलने लाहौर गए और फिर बाद में उन्होंने परवेज मुशर्रफ से भी समझौता करने के लिए भारत में बुलाया। लेकिन इसके बदले उन्हें कारगिल का युद्ध मिला।
 
 
दूसरी ओर उन्होंने कश्मीर में भी कश्मीरियत और जम्हूरियत का पक्ष लेकर कश्मीरियों के लिए बहुत कार्य किया लेकिन अलगाववादियों, आतंकवादियों और स्थानीय नेताओं ने उनके नेक इरादों पर पानी फेर दिया और उनकी पीठ में छूरा घोंप दिया। अंतत: उनको उनके ही सहयोगियों ने धोखा दिया और उनकी सरकार गिरा दी गई। लेकिन फिर भी अटलबिहारी वाजपेयी ने शांति के मार्ग का ही अनुसरण किया और विपक्ष की सभी गलतियों को नजरअंदाज करके उन्हें अपना मित्र ही माना।
 
 
हालांकि नरेन्द्र मोदी जबसे सत्ता में आए हैं, तब से कहा जा रहा है कि 'यह नया भारत और बदला हुआ भारत है। अब यह न झुकेगा, न रुकेगा और न थकेगा और अब यह घर में घुसेगा भी सही और मारेगा भी सही।' परमाणु हथियार पर 'पहले नहीं चलाने की नीति' को भी अब परिस्थिति अनुसार बदला जाएगा। ...ऐसी कई बातें हैं, जो कि 'कृष्ण नीति' की तरह नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम में नजर आती है।
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने अपने विरोधियों से कभी भी समझौता करने की राह को नहीं चुना, बल्कि संघर्ष और लड़ाई की राह को ही चुना है। उन्होंने हमेशा सत्य के मार्ग पर चलकर उन सारी नीतियों को अपनाया जिससे की लक्ष्य को हासिल किया जा सकता हो।
 
 
उन्होंने पाकिस्तान से कभी भी बातचीत या समझौते का पक्ष नहीं लिया और लिया भी तो अपनी शर्तों पर। उन्होंने अपने किसी भी विरोधी राजनीतिज्ञ को आसानी से नहीं छोड़ा। भ्रष्ट नेता चाहे अपनी पार्टी का हो या विपक्ष का, उसे कानून के कटघरे में खड़ा कर दिया गया है।
 
नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम कभी भी कठिन और साहसी फैसले लेने ने पीछे नहीं हटी। चाहे वह नोटबंदी हो, जीएसटी हो या सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट अटैक हो। 5 साल में उन्होंने देश और दुनिया के हर मोर्चे पर खुद को पूरी तरह से साबित किया है। कृष्ण के कर्म सिद्धांत के अनुसार वे दिन-रात भिड़े रहे।
 
 
उन्होंने समस्या को न कभी पाला और न ही टाला। तभी तो दूसरे टर्म में उन्होंने न केवल अनुच्छेद 370 को हटाया बल्कि उस लद्दाख को जम्मू और कश्मीर से अलग भी कर दिया, जो कभी उस राज्य का हिस्सा था ही नहीं। दूसरी ओर उन्होंने 'तीन तलाक' को खत्म करके मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में एक बहुत ही बड़ा कदम उठाया।
 
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का साथ और सफर लगभग 30 वर्षों से अधिक का रहा है। इस सफर में वे निश्चित ही कृष्ण और अर्जुन की तरह साथ रहे हैं। उन्होंने संघर्ष, अपमान और जेल के दिन भी देखे हैं तो अब कुछ सालों से वे देश को सम्मानजनक स्थिति में लाने के लिए कई मोर्चों पर एकसाथ लड़ाई लड़ रहे हैं।
 
कहते हैं कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार की कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। वे उसी तरह योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ते रहे हैं जिस तरह कि श्रीकृष्ण रण के बाहर और रण में भी योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ते रहे थे। कृष्ण नीति के अनुसार 'यदि आपका उद्देश्य सही है तो उसे हासिल करने के तरीके कैसे भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। साम, दाम, दंड और भेद सभी को अपनाया जा सकता है।'
 
 
भगवान कृष्ण को राजनीति और कूटनीति में दक्ष माना गया है। उनकी कूटनीति के कारण उनकी आलोचना भी होती रही है, जबकि सत्य और धर्म के लिए उन्हें यह करना जरूरी था। यदि वे ऐसा नहीं करते तो अधर्म की जीत होती और समाज में अधर्म का ही राज स्थापित हो जाता। मोदी और शाह ने भी देशहित के लिए जो करना था उसके लिए वोट की राजनीति को ताक में रख दिया।
 
भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों के घेरने के लिए कई जनपदों से संबंधों को बढ़ावा दिया था। उन्होंने कुछ ऐसे जनपदों को भी अपने में शामिल कर लिया था, जो कि कभी कौरवों के पक्षधर थे। उनकी नीति के तहत ही पांडवों ने विराट राज्य में अज्ञातवास काटा था। युयुत्सु को अपनी ओर मिला लिया गया था।
 
 
नरेन्द्र मोदी ने भी पाकिस्तान को घेरने के लिए पहले विश्वभर का दौरा किया। उन्होंने सऊदी अरब और यूएई जैसे देशों से भारत में निवेश करवाकर अपना बना लिया, साथ ही उन्होंने चीन की बोलती भी बंद करवा दी है। जब भारत ने पुलवामा के बाद बालाकोट में हमला किया, तो ऐसा कोई देश नहीं था जिसने इस कार्रवाई का विरोध किया हो। साथ ही आज जब अनुच्छेद 370 हटा दिया गया है, तो एक भी देश ऐसा नहीं है, जो कि भारत के इस फैसले का विरोध कर रहा हो। यही कृष्ण नीति का एक हिस्सा है।
 
 
जिन्होंने भी 'महाभारत' पढ़ी है, वे यह जानते हैं कि युद्ध के पहले भगवान श्रीकृष्ण ने किस तरह से विरोधी पक्ष को कमजोर करने के लिए क्या-क्या उपाय किए थे। उन्होंने सबसे पहले दुर्योधन के शरीर के एक हिस्से को वज्र के समान होने से रोक दिया था। कृष्‍ण की नीति के कारण ही कर्ण को अपने कवच और कुंडल गंवाने पड़े थे। इसी तरह मोदी और शाह की टीम ने भी पाकिस्तान के कई सहयोगियों को बिलकुल बेअसर कर दिया है और आर्थिक मोर्चे पर भी पाकिस्तान मात खा बैठा है।
 
 
कहने का तात्पर्य यह कि अटलबिहारी वाजपेयी जहां राम की नीति पर चलकर शांति स्थापित करने का सपना देखते थे, वहीं मोदी और शाह की टीम अब श्रीकृष्ण की नीति पर चलकर अखंड भारत का सपना देखने लगी है। उन्होंने अपने कई धुर विरोधियों को भी ठिकाने लगा दिया है।
 
कहते हैं कि जो भी मोदी और शाह से भिड़ा या अड़ा, वह पार्टी के भीतर हो या बाहर और अंतत: वह हाशिये पर ही चला गया है। हम बात नवजोत सिंह सिद्धू, शत्रुघ्न सिन्हा, चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी, पी. चिदंबरम या प्रवीण तोगड़िया की ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि ऐसे कई लोग देश के भीतर और बाहर हैं, जो मोदी और शाह की 'कृष्ण नीति' के चलते घायल हैं।
 
 
पाकिस्तान तो इस वक्त सदमे में जी रहा है। उसका तो सारा खेल ही बिगड़ गया है। वह कश्मीर की आड़ में जम्मू और लद्दाख को खाने का भी सपना देख रहा था और कश्मीर की आड़ में ही वह संपूर्ण भारत में आतंकवाद फैलाने के मंसूबों के साथ आगे बढ़ रहा था। लेकिन अब उसके लिए आगे बढ़ना यानी मौत को दावत देने जैसा है और आगे नहीं बढ़ना भी मौत जैसा ही है। मतलब यह कि हड्डी अब न तो निगलते बन रही है और न ही उगलते!