1. मन की मिठास
एक शिष्य अपने गुरु से सप्ताह भर की छुट्टी लेकर अपने गांव जा रहा था। तब गांव पैदल ही जाना पड़ता था। जाते समय रास्ते में उसे एक कुआं दिखाई दिया। शिष्य प्यासा था, इसलिए उसने कुएं से पानी निकाला और अपना गला तर किया। शिष्य को अद्भुत तृप्ति मिली, क्योंकि कुएं का जल बेहद मीठा और ठंडा था।
शिष्य ने सोचा- क्यों ना यहां का जल गुरुजी के लिए भी ले चलूं। उसने अपनी मशक भरी और वापस आश्रम की ओर चल पड़ा। वह आश्रम पहुंचा और गुरुजी को सारी बात बताई। गुरुजी ने शिष्य से मशक लेकर जल पिया और संतुष्टि महसूस की। उन्होंने शिष्य से कहा- वाकई जल तो गंगाजल के समान है। शिष्य को खुशी हुई। गुरुजी से इस तरह की प्रशंसा सुनकर शिष्य आज्ञा लेकर अपने गांव चला गया।
कुछ ही देर में आश्रम में रहने वाला एक दूसरा शिष्य गुरुजी के पास पहुंचा और उसने भी वह जल पीने की इच्छा जताई। गुरुजी ने मशक शिष्य को दी। शिष्य ने जैसे ही घूंट भरा, उसने पानी बाहर कुल्ला कर दिया। शिष्य बोला- गुरुजी इस पानी में तो कड़वापन है और न ही यह जल शीतल है। आपने बेकार ही उस शिष्य की इतनी प्रशंसा की।
गुरुजी बोले- बेटा, मिठास और शीतलता इस जल में नहीं है तो क्या हुआ। इसे लाने वाले के मन में तो है। जब उस शिष्य ने जल पिया होगा तो उसके मन में मेरे लिए प्रेम उमड़ा। यही बात महत्वपूर्ण है। मुझे भी इस मशक का जल तुम्हारी तरह ठीक नहीं लगा। पर मैं यह कहकर उसका मन दुखी करना नहीं चाहता था।
हो सकता है जब जल मशक में भरा गया, तब वह शीतल हो और मशक के साफ न होने पर यहां तक आते-आते यह जल वैसा नहीं रहा, पर इससे लाने वाले के मन का प्रेम तो कम नहीं होता है ना।
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2. गुरु-शिष्य
एक नवदीक्षित शिष्य ने अपने गुरु के साथ कुछ दिन व्यतीत करने के बाद एक दिन पूछा- गुरुदेव, मेरा भी मन करता है कि आपकी ही तरह मेरे भी कई शिष्य हों और सभी मुझे भी आप जैसा ही मान-सम्मान दे।
गुरु ने मंद-मंद मुस्कुराते हुए कहा- कई वर्षों की लंबी साधना के पश्चात अपनी योग्यता और विद्वता के बलबूते पर तुम्हें भी एक दिन यह सब प्राप्त हो सकता है। शिष्य ने कहा- इतने वर्षों बाद क्यों? मैं अभी ही अपने शिष्यों को दीक्षा क्यों नहीं दे सकता? गुरु ने अपने शिष्य को तख्त से उतरकर नीचे खड़ा होने को कहा। फिर स्वयं तख्त पर खड़े होकर कहा- जरा मुझे ऊपर वाले तख्त पर पहुंचा दो।
शिष्य विचार में पड़ गया। फिर बोला- गुरुदेव! भला मैं खुद नीचे खड़ा हूं, फिर आपको ऊपर कैसे पहुंचा सकता हूं? इसके लिए तो पहले खुद मुझे ही ऊपर आना होगा। गुरु ने मुस्कुराकर कहा- ठीक इसी प्रकार यदि तुम किसी को अपना शिष्य बनाकर ऊपर उठाना चाहते हो, तो तुम्हारा उच्च स्तर पर होना भी आवश्यक है। शिष्य गुरु का आशय समझ गया। वह उनके चरणों में गिर गया।
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3. पाप का गुरु 'लोभ'
एक समय की बात है। एक पंडित जी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद गांव लौटे। पूरे गांव में शोहरत हुई कि काशी से शिक्षित होकर आए हैं और धर्म से जुड़े किसी भी पहेली को सुलझा सकते हैं। शोहरत सुनकर एक किसान उनके पास आया और उसने पूछ लिया- पंडित जी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है?
प्रश्न सुन कर पंडित जी चकरा गए, उन्होंने धर्म व आध्यात्मिक गुरु तो सुने थे, लेकिन पाप का भी गुरु होता है, यह उनकी समझ और ज्ञान के बाहर था। पंडित जी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा रह गया है। वह फिर काशी लौटे। अनेक गुरुओं से मिले लेकिन उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला। अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक गणिका (वेश्या) से हो गई। उसने पंडित जी से परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी। गणिका बोली- पंडित जी ! इसका उत्तर है तो बहुत सरल है, लेकिन उत्तर पाने के लिए आपको कुछ दिन मेरे पड़ोस में रहना होगा।
पंडित जी इस ज्ञान के लिए ही तो भटक रहे थे। वह तुरंत तैयार हो गए। गणिका ने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी। पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे। अपने नियम-आचार और धर्म परंपरा के कट्टर अनुयायी थे। गणिका के घर में रहकर अपने हाथ से खाना बनाते खाते कुछ दिन तो बड़े आराम से बीते, लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला। वह उत्तर की प्रतीक्षा में रहे।
एक दिन गणिका बोली- पंडित जी ! आपको भोजन पकाने में बड़ी तकलीफ होती है। यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं। आप कहें तो नहा-धोकर मैं आपके लिए भोजन तैयार कर दिया करूं। पंडित जी को राजी करने के लिए उसने लालच दिया- यदि आप मुझे इस सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन आपको दूंगी।
स्वर्ण मुद्रा का नाम सुनकर पंडित जी विचारने लगे। पका-पकाया भोजन और साथ में सोने के सिक्के भी ! अर्थात दोनों हाथों में लड्डू हैं। पंडित जी ने अपना नियम-व्रत, आचार-विचार धर्म सब कुछ भूल गए। उन्होंने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा, बस विशेष ध्यान रखना कि मेरे कमरे में आते-जाते तुम्हें कोई नहीं देखे। पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर उसने पंडित जी के सामने परोस दिया। पर ज्यों ही पंडित जी ने खाना चाहा, उसने सामने से परोसी हुई थाली खींच ली।
इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और बोले, यह क्या मजाक है ? गणिका ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडित जी, यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है। यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर, किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे, मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभ ही पाप का गुरु है।
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नाविक गुरु
प्राचीन मगध के किसी गांव में एक ज्ञानी पंडित रहते थे। वे भागवत कथा सुनाते थे। गांव में उनका बड़ा सम्मान था। लोग महत्वपूर्ण विषयों पर उनसे ही विचार-विमर्श कर मार्गदर्शन लेते थे। एक बार पंडितजी को राजधानी से राज्य के मंत्री का बुलावा आया। पंडितजी गांव की नदी नाव से पार कर राजधानी पहुंचे। मंत्री ने उनका अतिथि सत्कार कर कहा- मैंने आपके ज्ञान की काफी प्रशंसा सुनी है। मैं चाहता हूं कि आप प्रतिदिन यहां आएं और मुझे तथा मेरे परिजनों को कुछ दिन भागवत कथा सुनाएं।
पंडितजी ने खुशी-खुशी स्वीकृति दे दी। अब पंडितजी प्रतिदिन नदी पार कर मंत्री को भागवत कथा सुनाने जाने लगे। एक दिन जब पंडितजी नदी पार कर रहे थे तो एक घड़ियाल ने पानी से सिर बाहर निकालकर कहा- पंडितजी, आते-जाते मुझे भी भागवत कथा सुना दिया कीजिए, मैं आपको मोटी दक्षिणा दूंगा, यह कहकर उसने अपने मुंह एक हीरों का हार निकालकर पंडित को दिया। पंडितजी हार देखकर भूल ही गए कि उनको मंत्री के यहां कथा सुनाने जाना है तथा तब से वह घड़ियाल रोज उन्हें हीरे-मोती देता।
एक दिन नाव चलाने वाला नाविक उन्हें देखकर हंस पड़ा। पंडितजी ने हंसने का कारण पूछा तो वह बोला- मैं इसलिए हंस रहा हूं कि क्या आपने इतने शास्त्रों का ज्ञान सिर्फ एक घड़ियाल को उपदेश देने के लिए लिया है? आपके ऐसे ज्ञान की परिणति देख मुझे हंसी आ गई। पंडितजी को अपने लोभी स्वभाव पर शर्म आ गई और फिर वे कभी घड़ियाल को कथा सुनाने नहीं गए।
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शिवाजी को गुरु का संदेश
जब छत्रपति शिवाजी को यह पता चला कि समर्थ रामदास जी ने महाराष्ट्र के ग्यारह स्थानों में हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित की है और वहां हनुमान जयंती उत्सव मनाया जाने लगा है, तो उन्हें उनके दर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा हुई। वे उनसे मिलने के लिए चाफल, माजगांव होते हुए शिगड़वाड़ी आए। वहां समर्थ रामदास जी एक बाग में वृक्ष के नीचे 'दासबोध' लिखने में मग्न थे।
शिवाजी ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया और उनसे अनुग्रह के लिए विनती की। समर्थ ने उन्हें त्रयोदशाक्षरी मंत्र देकर अनुग्रह किया और 'आत्मानाम' विषय पर गुरुपदेश दिया (यह 'लघुबोध' नाम से प्रसिद्ध है और 'दासबोध' में समाविष्ट है।) फिर उन्हें श्रीफल, एक अंजलि मिट्टी, दो अंजलियां लीद एवं चार अंजलियां भरकर कंकड़ दिए।
जब शिवाजी ने उनके सान्निध्य में रहकर लोगों की सेवा करने की इच्छा व्यक्त की, तो संत बोले- 'तुम क्षत्रिय हो, राज्यरक्षण और प्रजापालन तुम्हारा धर्म है। यह रघुपति की इच्छा दिखाई देती है।' और उन्होंने 'राजधर्म' एवं 'क्षात्रधर्म' पर उपदेश दिया।
शिवाजी जब प्रतापगढ़ वापस आए और उन्होंने जीजामाता को सारी बात बताई, तो उन्होंने पूछा- 'श्रीफल, मिट्टी, कंकड़ और लीद का प्रसाद देने का क्या प्रयोजन है?'
शिवाजी ने बताया- 'श्रीफल मेरे कल्याण का प्रतीक है, मिट्टी देने का उद्देश्य पृथ्वी पर मेरा आधिपत्य होने से है, कंकड़ देकर यह कामना व्यक्त हो गई है कि अनेक दुर्ग अपने कब्जे में कर पाऊं और लीद अस्तबल का प्रतीक है, अर्थात उनकी इच्छा है कि असंख्य अश्वाधिपति मेरे अधीन रहें।'
इस प्रकार राजधर्म को समझकर शिवाजी ने अपनी शक्ति का विस्तार किया और न्याय नीति की स्थापना की।